एक ऐसे समय में जब हम यह मानकर चलने लगे हैं कि हम हैं तो दुनिया है, केदारनाथ सिंह की कविता ‘यह पृथ्वी रहेगी’ इंसानों की नश्वरता और प्रकृति व पृथ्वी की अमरता को सुंदर तरीक़े से समझा जाती है.
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा
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