यक़ीन करना अच्छी बात है, पर यक़ीन करने की जल्बाज़ी से क्या कुछ हो सकता है, बता रही है कुंवर नारायण की कविता.
एक बार ख़बर उड़ी
कि कविता अब कविता नहीं रही
और यूं फैली
कि कविता अब नहीं रही
यक़ीन करनेवालों ने यक़ीन कर लिया
कि कविता मर गई,
लेकिन शक़ करने वालों ने शक़ किया
कि ऐसा हो ही नहीं सकता
और इस तरह बच गई कविता की जान
ऐसा पहली बार नहीं हुआ
कि यक़ीनों की जल्दबाज़ी से
महज़ एक शक़ ने बचा लिया हो
किसी बेगुनाह को
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