कवि कैफ़ भोपाली की मशहूर कविता ‘ये दाढ़ियां ये तिलक धारियां नहीं चलतीं’ उन सभी के लिए एक मुकम्मल संदेश है, जो ख़ुद को ख़ुदा समझ बैठते हैं.
ये दाढ़ियां ये तिलक धारियां नहीं चलतीं
हमारे अहद में मक्कारियां नहीं चलतीं
क़बीले वालों के दिल जोड़िए मिरे सरदार
सरों को काट के सरदारियां नहीं चलतीं
बुरा न मान अगर यार कुछ बुरा कह दे
दिलों के खेल में ख़ुद्दारियां नहीं चलतीं
छलक छलक पड़ीं आंखों की गागरें अक्सर
संभल संभल के ये पनहारियां नहीं चलतीं
जनाब-ए-‘कैफ़’ ये दिल्ली है ‘मीर’ ओ ‘ग़ालिब’ की
यहां किसी की तरफ़-दारियां नहीं चलतीं
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