क्या होता है, जब लंबे समय तक शहर में रहने के बाद एक दिन आप गांव जाते हैं? क्या गांव की जो तस्वीर आपके दिमाग़ में है, असल में आपको वही गांव दिखता है? यादों और विरोधाभासों को संजीदगी से बयां करती है जय राय की कविता ‘गांव की गलियां’.
मेरी उमर गुज़र गई शहर की तंग गलियों में
गांव को गांव की नज़र से कभी देखा नहीं
बस इतना पता था की गांव वह आख़िरी मुक्कमल जगह है
जहां आप लौट कर आ सकते हैं
गांव जाने पर पहले एक पतली गली से गुज़रना पड़ता था,
बहुत दिनों के बाद शहर से आने पर,
अचानक से घर के सामने आने का एहसास कराती थी
कुछ दो तीन दिनों में
एक घनघोर शांति जो चुभने लगती थी
शहर जैसे बनते हुए मेरे घर ने उस पुरानी गली को निगल लिया
फिर भी गांव वहीं है, कहां जाएगा
यह सच है अब लोगों का शहरों से राबता ज़्यादा बढ़ गया है
सुना है ट्रेनें पहले से ज़्यादा चलने लगी हैं
अब गांव से लगने वाली सड़क की बस बहुत दूर तक जाती है
गांव के सारे बुज़ुर्ग, जिनका नाम नहीं पता
मोहल्ले की पहचान हुआ करते थे,
अब वहां आलीशान गाड़ियां खड़ी रहती हैं
चर्चा आम हो चली है की किसके यहां नया क्या है?
पहले गांव के अलग-अलग रास्ते से होते हुए सुबह-सुबह
किसान अपने हल के साथ बैल को आवाज़ देते हुए जाते थे
बड़े-बड़े ट्रैक्टर को देखकर उनकी याद बहुत आती है
सुना है सरकार ने उन्हें शहर बुला लिया, मज़दूर हैं अब
खेतों से निकलनेवाले रास्ते
अब शहर के बाज़ार की तरफ़ जाते हैं
शहर में जब आबोहवा ख़राब हुई, तो लौटे थे बहुत दिनों के बाद
जब शहर ने अपने दरवाज़े बंद कर लिए
तो गांव में गांव देखा, सुकून देखा, गांव में दुनिया का शहर देखा
एक चीज़ और देखा यह वही जगह जहां आप बार-बार आ सकते हैं
हर बार आपको कोई मुस्कुराकर पूछेगा कब आना हुआ आपका?
इसीलिए गांव वह आख़िरी मुक्कमल जगह है
जहां आप लौट कर आ सकते हैं
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