कैलाश मानसरोवर भले ही भारत के पड़ोसी देश चीन के तिब्बत में हों, पर भगवान शिव का निवास कहलाने वाले कैलाश पर्वत के दर्शन करना हर हिंदू का ख़्वाब होता है. क्या होता है, जब यह ख़्वाब पूरा हो जाता है. इंदौर की वरिष्ठ लेखिका ज्योति जैन अपने अनुभवों के आधार पर हमें बता रही हैं.
भारत से रवाना हुए हमें 10 दिन हो चुके थे. कुल जमा 12 कि.मी. की यात्रा पैदल और कुछ घुड़सवारी करते हुए हम डेरापुक पहुंचे. ठीक सामने सम्माहित करने देने वाला विशाल कैलाश पर्वत खड़ा था. भूरे रंग के पहाड़ों के बीच यह विशाल स्वरूप आंखों में समा जाना मुश्किल प्रतीत होता था. पूरी आंखों को खोलकर सिर उठाकर देखा तो ऐसा लग रहा था जैसे शेषनाग का फन हमारे सामने अपने विराट दर्शन करवा रहा है. नज़दीक ही स्थित अतिथि गृह में अपना साजो-सामान रखकर हम कैलाश को चरण स्पर्श करने निकल पड़े. कोई हज़ार फुट ऊपर की खड़ी चढ़ाई थी. मन में जिस तरह का जुनून था उसको देखते हुए सारी बाधाएं बेमानी लग रही थीं. सामने सिर्फ़ कैलाश पर्वत का मंत्रमुग्ध कर देने वाला दृश्य था. मन कह रहा था इस समय पलक भी नहीं झपकना चाहिए.
चारों ओर भूरे-पथरीले पहाड़ों के बीच बर्फ़ से ढंका एकमात्र विशालकाय पर्वत कैलाश. बर्फ़ के बीच से झांकते हुए काले पत्थर ऐसे चुम्बक थे जो हमें अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे. चूंकि मन में एक अजीब-सी धुन सवार थी इसलिए एक छड़ी का सहारा लेकर हम कैलाश चढ़ते गए और जब क़रीब…क़रीब… और क़रीब पहुंचे तो लगा शिव की जटाओं की गंगा मानों बहकर कैलाश के चरणों तक आ गई है. बर्फ़ के विशालकाय ग्लैशियर से निकलकर अपने साथ सैकड़ों शिवलिंग के आकार के गोल-गोल पत्थर को लिए बहती वह स्वच्छ धारा बिल्कुल ऐसी ही प्रतीत हो रही थी. वह रास्ता कैलाश के सिर्फ़ चरणों तक ही जाता था. ऊपर चढ़ते-चढ़ते अनायास ही मन उस धारा को छूने के लिए लालायित हो उठा. संभलकर डग भरती, कुछ नीचे उतरकर अपने दस्ताने, टोपी और चश्मा हटाकर उसी धारा को छुआ…बर्फ़ीला-ठंडा पानी! अंजुरी में भरकर आंखों और माथे पर लगाया.
बस… यही वो अनुभूति थी जो कह रही थी आज तुमने साक्षात शिव के चरण स्पर्श कर लिए हैं. कोई थकान नहीं… सिरदर्द नहीं… सर्दी नहीं… पूरी देह और हृदय शिवमय हो गया था. अनुभूति का वह क्षण विरल था. उसकी स्मृति आते ही आज भी रोमांचित हो उठती हूं और पलभर में कैलाश की मानस यात्रा कर आती हूं. एक पल यह भी लगा कि अब जीवन में कुछ शेष नहीं रहा… सब मिल गया है. चेहरे पर पड़ा ठंडा पानी कैसे गर्म आंसुओं के साथ एकसार हो गया, कह नहीं सकती. अश्रुओं की अविरल धारा किस भावना से बह रही थी, नहीं जानती. चरण स्पर्श कर वापसी में मेरे पैर धरती से चिपके जा रहे थे. कैलाश का यह सम्मोहन आगे नहीं बढ़ने दे रहा था. मन किया बस वहीं रुक जाऊं… हमेशा के लिए. पता नहीं वह पर्वत जैसे मुझे अपनी ओर खींच रहा था. अब तक की गई यात्रा जो महज़ यात्रा ही थी, अब एक अलौकिक और रूहानी अहसास में बदलती जा रही थी. यक़ीन मानें इस अनुभूति को कैलाश के चरण स्पर्श के बिना नहीं महसूस किया जा सकता.
आइए! अब इस यात्रा की शुरुआत के लिए आपको कुछ दिन पीछे लिए चलती हूं. हमारे कंवर साहब श्री महेन्द्रजी ने एक दिन पूछा कैलाश मानसरोवर चलना है? और हमने बिना कुछ सोचे-समझे, चिंतन-मनन किए अपनी इन्दौरी शैली में कह दिया… हौ…. यात्रा का अचानक तय हो जाना आश्चर्यजनक था, क्योंकि जीवन में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. कहीं भी जाना हो तो कब, कैसे, कितने दिन, कितने ख़र्च के साथ जाएंगे और कब लौटेंगे ये सारे सवाल मन में होते थे. ख़ासा विचार-विनिमय होता और फिर हां होती… पता नहीं इस बार…ये ‘हौ’ एकदम कैसे आ गई? ख़ैर! बाक़ी सब बातें बाद में तय हुईं.
इन्दौर से मुंबई और मुंबई से काठमांडू तक की सीधी फ़्लाइट थी. यात्रा की योजना कुछ यूं बनी कि रास्ते में रुकते-रुकते जाएंगे ताकि मंज़िल पर कोई परेशानी न हो. यानि एक्लेमेटाइज़ेशन (Acclimatization) हेतु हम समुद्र सतह से 4350 फ़ीट की ऊंचाई पर आ चुके थे. काठमांडू में दो दिन रुकना हुआ जहां भगवान पशुपतिनाथ के आनंदमय दर्शन हुए. मान्यता है कि केदारनाथ से जो शिवजी लुप्त हुए उनका वही शीश यहां पर खड़ा है. पशुपतिनाथ नेपाल के राष्ट्रीय देवता माने जाते हैं. मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व 512 यानि लगभग 3000 वर्ष पूर्व राजा मानदेव ने बागमति नदी के किनारे करवाया था. नदी के किनारे संध्या के समय झांझ मंजीरे की गूंज और सुमधुर कंठों से निकलती आरती गंगा मां की आरती की याद ताज़ा करवा रही थी. परदेस में आकर हिन्दू रीति-रिवाजों की गहन आस्था और वातावरण को देखना मन को असीम गर्व से भर रहा था.
अगले दिन कैलाश मानसरोवर यात्रा हेतु एजेन्ट ने एक मीटिंग आयोजित की, जिसमें उन्होंने सारी यात्रा की बातें और सावधानियों का खुलासा किया. शेरपा वीरभान से भी हमारा परिचय हुआ जो पूरी यात्रा में हमारे साथ रहने वाला था तथा खाने और चिकित्सा सुविधाओं का ध्यान भी रखने वाला था. प्रातः बेला में होटल के अहाते में यात्रा की कुशलता हेतु हमने एक यज्ञ किया.
दूसरे दिन चीन अधिकृत तिब्बत की राजधानी ल्हासा के लिए फ़्लाइट थी. ल्हासा में हम दो दिन रुकने वाले थे लेकिन काठमांडू एयरपोर्ट पहुंचकर ये हक़ीक़त पता चली कि पराए देश में समस्याएं कैसे और कितनी बड़ी हो जाती हैं. हमारे ग्रुप में 16 व्यक्ति थे. कंफ़र्म टिकट होने के बाद भी चायना एयर की उस फ़्लाइट में 11 सीट्स ही ख़ाली थीं. चीनी अधिकारी 16 सीट्स जारी करने के लिए राज़ी नहीं थे. उनके अड़ियल रुख़ का कारण सिर्फ़ यह था कि एक दिन पहले कोई फ़्लाइट कैंसल हो गई थी जिससे उसके यात्रियों को हमारी फ़्लाइट में प्राथमिकता पर सीट दे दी गई. इसी वजह से हमारे 5 साथी छूट रहे थे. दृढ़ता से यह कहने पर कि हम सब साथ-साथ ही रहेंगे. चीनी अधिकारियों ने हमें दूसरी फ़्लाइट से चेंगडू जाने का विकल्प दिया. चेंगडू चीन का एक बड़ा शहर है, जिसमें एक रात रहने की व्यवस्था उन्होंने की और कहा कि आप अगले दिन चेंगढ़ से ल्हासा की फ़्लाइट ले लें. इस वक़्त और कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था सो हमने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. बेशक एक नया शहर देखने को तो मिला लेकिन हम अपने टूर प्लान से एक दिन पिछड़ गए. कहते हैं जो होता है वह अच्छे के लिए ही होता है. इसमें क्या अच्छा होना था ये आगे बताती हूं!
अगले दिन हम ल्हासा पहुंचे जहां दो दिन रुकना था. वह काठमांडू से 3600 फ़ीट की ऊंचाई पर था. एयरपोर्ट से होटल डकलिंग का एक घंटे का रास्ता बेहद ख़ूबसूरत था. बस! यहीं से हमारी तिब्बत गाइड यूडॉन हमारे साथ हो गई. उसके नाम का तिब्बती अर्थ था नीले पत्थर की रौशनी. वह अपने नाम के अनुरूप ख़ुशियों का स्पार्क देने वाली ख़ुशमिज़ाज लड़की थी. यूडॉन फ़र्राट हिन्दी, अंग्रेज़ी, तिब्बती और चीनी बोलती थी जो हमारे लिए बड़ी राहत की बात थी. रास्ते भर वह हिन्दी में बताती चली कि वहां दो नदियां बहती हैं, ल्हासा और ब्रह्मपुत्र. वही ब्रह्मपुत्र जो भारत के आसाम तक चली आती है. यूडॉन के मुंह से झरती हिन्दी और ब्रह्मपुत्र के अपने देश तक आने की बात जानकर लगा कि सरहदों का बंटवारा होता है ज़ुबान और जल की धार का नहीं. सुखद यह था कि वहां भी ब्रह्मपुत्र का नाम ब्रह्मपुत्र ही था जिसके किनारे-किनारे हमारी बस चल रही थी.
ल्हासा सुंदर और व्यवस्थित शहर है. पहाड़ों को बीच-बीच से काटकर बनाई गई सुरंगें जिनकी लंबाई डेढ़ किलोमीटर थी. रास्ते में पहाड़ों पर बादल बैठे मुस्कुरा रहे थे… क़तारबद्ध… अनुशासित और स्थिरप्रज्ञ. मानों उन्हें किसी ने कहा हो कि आपको यहां से हिलना नहीं है. ख़ूबसूरत नज़ारे थे. हरे-पीले खेत जिनमें सरसों और बार्ली (जौ) लहलहा रही थी. सबकुछ किसी फ्रेम में जड़ी ख़ूबसूरत पेंटिंग का आभास दे रहा था.
दूसरा दिन ल्हासा लोकल टूर का था. सबसे पहले हमने वही दिखा प्रसिद्ध पोटाला पैलेस. वहां का इतिहास बताते हुए यूडॉन ने बताया कि
बुद्धिज़्म के पहले तिब्बत के 28वें राजा ने सातवीं शताब्दी में यानि लगभग 1300 बरस पहले इसका निर्माण करवाया था. हाथी जैसे शेप वाला यह महल धर्म का प्रतीक नहीं है. बाद में मंगोलियंस ने दलाई लामा को यहां का प्रमुख नियुक्त कर दिया. इसके बाद हम चोखंग टेम्पल गए. मान्यता है कि वहां पहले झील हुआ करती थी और राजा सोंग लिंगगाम्बो की तीन रानियां थीं नेपाली, तिब्बती और चीनी. कहते हैं, चीनी रानी अपने साथ दहेज़ में बुद्ध की प्रतिमा लेकर आई थी, जिसे किसी मंदिर में प्रतिष्ठित करना आवश्यक था. तब उस झील को भरकर यह मंदिर बनवाया गया. बकरों की पीठ पर रेत ला-लाकर झील को सपाट किया गया. इसलिए भी शहर का नाम ल्हासा पड़ा, क्योंकि इसका अर्थ है गोट ऐंड सैंड यानि बकरा और रेत. मंदिर को रानी चुंग लखांग के नाम को संक्षिप्त रूप देकर चोखंग टेम्पल नाम दिया गया. अन्य कई प्रतिमाओं के साथ इस मंदिर में गुरु पद्म संभव की एक बड़ी प्रतिमा भी है. वही पद्म संभव, जो सिक्किम, लेह-लद्दाख होते हुए तिब्बत पहुंचे थे.
कुछ प्रतिमाएं बेहद डरावनी थीं, जिनके बारे में पता चला कि वे रक्षक देवताओं की मूर्तियां हैं. माना जाता है कि इन देवों के चेहरे डरावने इसलिए हैं क्योंकि मृत्यु के बाद परलोक में जाने के बाद मनुष्य ऐसे चेहरों को देखकर डरे नहीं, बल्कि उन्हें अपना रक्षक महसूस करे. स्थानीय लोग वहां ढेरों दीपक जला रहे थे जिसके पीछे मान्यता थी कि मृत्यु के बाद हमें रौशनी प्राप्त हो. बुद्ध के साथ 8 बोधिसत्व सहित कई प्रतिमाओं
से सजा चोखंग टेम्पल उत्कृष्ट कला का नमूना भी है. वहां तस्वीर लेना प्रतिबंधित है. आप सिर्फ़ मंदिर के बाहरी हिस्से और शिखर की तस्वीरें ले सकते हैं.
ल्हासा के बाद हमारा अगला पड़ाव तिब्बत का दूसरा बड़ा शहर शिगात्से था. दोनों शहरों की दूरी 12 घंटों की थी, लेकिन रास्तों की ख़ूबसूरती और 16 मित्रों के संगसाथ के कारण राह की लंबाई पता ही नहीं चली. दरअसल रास्ता यूं तो लंबा नहीं लेकिन ल्हासा से निकलते ही चेक पोस्ट से एक चीनी पुलिसकर्मी हमारी गाड़ी में आकर बैठ गया. यूडॉन ने बताया कि ये सिपाही पूरे टूर में हमारी बस में रहेगा ताकि स्पीड कंट्रोल बना रहे. यह अनिवार्यता हमें खल रही थी. क्योंकि साफ़-सुथरी, चौड़ी और कम ट्राफ़िक वाली सड़क पर एक्सिलेटर दबाने का मन तो होता ही है. बहरहाल परदेस का अनुशासन क़ायम रखना आवश्यक था जो हमने रखा भी.
12 घंटे के सफ़र में भी राह ख़ूबसूरत थी. भूरे पहाड़ों की तलहटी में बसे छोटे-छोटे गांव और एक बार फिर वही सरसों और बार्ली के हरे-पीले खेत. इस सफ़र में ध्यान देने वाली ख़ास बात यह थी कि की यहां सौर ऊर्जा का भरपूर उपयोग होता है. रास्ते में लोग मिट्टी-सीमेंट आदि से अलग-अलग तरह की ईंट बनाते नज़र आए जो उनके मकान बनाने के काम आती है. शायद इसका मकसद यह है कि निर्माण कार्यों में आने वाली सामग्री स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध हो जाए. जो जहां मिल जाए उसी में बेहतर और बेहतर बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए. मुझे लगा स्मार्ट सिटी को ऐसे शहरों को ही कहना चाहिए.
अब ल्हासा से हम कुछ और ऊंचाई पर आ गए थे लेकिन तब तक हमारी बॉडी एक्लेमेटाइज़ हो चुकी थी. दूसरे दिन हम जल्दी तैयार होकर निकल पड़े… पड़ाव था सागा. ये एक छोटी जगह थी और यहीं से हम पेटू इंदौरियों के खानपान की समस्या प्रारंभ हुई. तरबूज़, सेंवफल, केला, उबले आल, उबली पत्ता गोभी और कुछ पानी डालकर पनीला सूप चावल के साथ खाना पड़ता है. वह तो भला हो हमारे साथ मौजूद सेव और जीरावन का वर्ना यात्रा बेस्वाद ही हो जाती. इस यात्रा में ध्यान देने योग्य कुछ और बातें समझ में आईं. टूर ऑपरेटर से सारी बातें पहले से तय कर लेनी चाहिए यानि भोजन वगैरह… बजट पहले से तय हो और हर जगह की वाऊचर कॉपी और टिकट पहले से अपने पास हों. कई बार भाषा की अज्ञानता के कारण बड़ी समस्या आ जाती है. स्थान परिवर्तन भी परेशानी का सबब बनता है. रास्ते में बने शौचालय बेहद गंदे थे जिन्हें इस्तेमाल करना मु़श्क़िल था. बात-बात में अपने भारत की बुराई करने और विदेशों की तारीफ़ करने वालों का ध्यान इस ओर भी जाना चाहिए. ख़ासकर अब तो लगता है कि भारत कई मामलों में अन्य देशों से भी बेहतर होता जा रहा है. मुझे गर्व है कि मेरा अपना शहर इन्दौर स्वच्छता के मामले में पूरे देश में अव्वल है.
वहां भी मोबाइल कल्चर का अतिरेक नज़र आया. जहां डंडे का डर नहीं वहां युवक गाड़ी चलाते हुए मोबाइल पर बतियाते नज़र आए. इस बात की भी हैरानी हुई जहां पीने का साफ़ पानी नहीं वहां पर वाईफ़ाई नेटवर्क था, ख़ैर.
सागा से मानसरोवर की राह भी ख़ासी ख़ूबसूरत थी. हरियाली धीरे-धीरे कम होती जा रही थी लेकिन सुंदरता नहीं. ब्रह्मपुत्र नदी का उद्गम स्थल भी इसी रास्ते पर था. यहां हनुस्वाताल था. जिसके बारे में मान्यता है कि यह तालाब हनुमान के अश्रुओं से बना है. इसी राह पर दोनों ओर ऐसे पर्वत नज़र आ रहे थे मानों किसी कलाकार ने उन्हें तराश दिया हो. यक़ीनन क़ुदरत ही सबसे बड़ी कलाकार है. एक और दिलचस्प बात हमें यूडॉन ने यह बताई कि तिब्बती लोग इन सभी झीलों और तालाबों को पवित्र मानते हैं. दूसरे रास्ते से लौटते हुए अत्यंत सुंदर यमड्रोक लेक नज़र आई. इन सभी झीलों का जल एकदम साफ़-सुथरा था. मानसरोवर झील में स्नान हिन्दुओं के लिए विशेष आस्था की बात तो है ही लेकिन इसके अलावा बाक़ी कई झीलें भी तिब्बतियों की आस्था का प्रतीक हैं. ये सभी झीलें अत्यंत स्वच्छ हैं और इसमें तिब्बती लोग पैर नहीं रखते. यूडॉन ने बताया कि मरणोपरांत वहां पर देह को दफ़न या जलाया नहीं जाता. पार्थिव शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े करके झील में डाल दिए जाते हैं जो मछलियों के लिए आहार बन जाते हैं. इसके पीछे शायद मान्यता यह रही हो कि देह का एक-एक हिस्सा किसी न किसी काम में आना चाहिए. चूंकि अपने परिजनों की देह का आहार मछलियां कर चुकी होती हैं अतः तिब्बती लोग न तो झील में उतरते हैं और न ही मछलियों का आहार करते हैं.
यूडॉन के मुंह से सारी बातें सुनते-सुनते शाम हो गई और हम पहुंच गए मानसरोवर झील के किनारे. हमने रुकते ही उस शीतल जल में डुबकी लगाई. संध्या के लगभग 7 सात बज रहे थे लेकिन सूरज यूं जगमगा रहा था मानों दिन के 3 बज रहे हों. गौरतलब है कि मानसरोवर में सूरज की जगमगाहट रात को 9 बजे तक बनी रहती है. हमने सूर्य देवता को अर्घ्य दिया और निकल पड़े मानसरोवर की 105 किलोमीटर की परिक्रमा के लिए. पल-पल रंग बदलती मानसरोवर झील अपने विविध रंग-रूप का दर्शन करवा रही थी. कहीं नीली, आसमानी, फिरोज़ी, मूंगे से हरी, सलेटी तो कहीं एकदम पारदर्शी. आसमान साफ़ था लेकिन उसी जगह बादलों का झुंड, घिर आया था जहां कैलाश पर्वत स्थित है. बादलों की इस लुकाछपी में मानों भगवान भोलेनाथ हमसे कह रहे हों कि इतनी आसानी से कैलाश के दर्शन नहीं करने दूंगा.
परिक्रमा के दौरान रावण द्वारा निर्मित राक्षस ताल भी देखा. एक मज़े की बात पता चली वह यह कि मानसरोवर का जल मीठा है और राक्षस ताल का खारा. मानों किसी के स्वभाव को क़ुदरत भी अपने अंदाज़ में अभिव्यक्त करती है.
मानसरोवर के ही किनारे हमारा गेस्ट हाउस था. जहां से कई किलोमीटर दूर कैलाश के दर्शन होते थे लेकिन इस वक़्त बादलों से घिरी रात कैलाश के दर्शन नहीं करने दे रही थी. उस कंपकंपाती ठंड में नेपाली रसोइयों ने हमें गर्मा-गर्म सूप पिलाया. आधे घण्टे बाद ही भोजन हमारे सामने था. ऐसी कड़ाकेदार ठंड में मनुष्य की क्षुधा शांत करते थे नेपाली बंधु हमें देवदूत प्रतीत हो रहे थे.
पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार हमें दो दिन और मानसरोवर में रुकना था. तिथि अनुसार ये दिन तेरस और चौदस के थे. जैसा मैंने पहले बताया कि हमें काठमांडू से ल्हासा की जगह चेंगड़ू भेजा गया था अतः पूर्व निर्धारित कार्यक्रम में एक दिन बढ़ गया था. अत: मानसरोवर में हमें चौदस और गुरु पूर्णिमा की रात्रियों का पुण्य लाभ मिल गया. चांद की रौशनी में झील का शबाब देखने के लिए हम रात 3 बजे उठकर मानसरोवर के किनारे आ गए. कहते हैं भगवान शिव ने जब गंगाजी को अपनी जटाओं में समेट लिया था तब देवताओं को स्नान के लिए कोई स्थान ही नहीं मिला. तब सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने बड़े मन से ये झील बनाई थी अतः यह मानसरोवर झील कहलाई. इसमें 33 कोटि देवी-देवताओं ने स्नान किया था. गुरु पूर्णिमा पर इसका विशिष्ट महत्व है. कहते हैं इस दिन तारे और नक्षत्र शिवजी का शृंगार करते हैं. चांद की रौशनी में जगमगाती झील हमें चमत्कृत कर रही थी. दूसरे दिन एक बार फिर मानसरोवर झील में डुबकी लगाने का बड़भाग मिला. हवन-पूजन आदि के बाद पूरा दिन अत्यंत आनंद के साथ किनारे पर ही बीता.
अगले दिन हम सड़क मार्ग से दार्चेन के लिए रवाना हुए. यह लगभग 2 घण्टे का रास्ता था. दार्चेन में ही यम द्वार है और यहीं से कैलाश पर्वत की परिक्रमा का श्रीगणेश होता है. जो यात्री कैलाश पर्वत की परिक्रमा नहीं कर पाते वे यम द्वार की तीन परिक्रमा कर वहीं रुक जाते हैं. यम द्वार से निकल जाना मोक्ष का परिचायक है. यहीं से घोड़े से या पैदल 12-13 किलोमीटर की यात्रा प्रारंभ होती है. कहते हैं शिव की पूरी परिक्रमा नहीं की जाती अतः हमने तय किया कि एक दिन डेरापुक तक की परिक्रमा कर दार्चेन लौट आएंगे. इसके लिए की गई परिक्रमा कभी पैदल तो कभी घोड़े पर सवार होकर शुरू हुई. हर एक किलोमीटर के बाद कैलाश के अलग-अलग रूपों के अलग-अलग दर्शन हो रहे थे. लगता था जैसे पल-प्रतिपल कैलाश नया स्वांग धर रहे है. पथरीला रास्ता… ठंडा मौसम और बीच में कहीं-कहीं बहुत ज़्यादा गड्ढे… दो-तीन बार घोड़े का पैर लचक गया. मुझे लगा मैं गिरकर नीचे लुढ़क जाऊंगी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.
5-6 घण्टे बाद हम डेरापुक में थे. अपना पिट्ठू गेस्ट हाउस में छोड़कर हम चल पड़े कैलाश की ओर. मन आतुर था कि जल्द ही कैलाश के निकट जाकर चरण स्पर्श कर लिए जाएं. उस 800 फ़ीट की खड़ी चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते वे सारी अनुभूतियां मन में साकार हो गईं जिसका बयान इस यात्रा वृत्त के प्रारंभ में मैंने किया था. अगली सुबह कैलाश हमें फिर चमत्कृत करने वाले थे. सुबह सात बजते ही सूर्यदेव की किरणें कैलाश पर पड़ीं. श्वेत बर्फ़ से ढंका वह विशाल पर्वत स्वर्णिम आभा लेकर हमसे रूबरू था; मानों चांदी ने सोने में काया प्रवेश कर लिया.
इसी पल यह अनुभूति झंकृत कर रही थी कि यह जीवन की कोई साधारण यात्रा नहीं है. यह एक विरल अनुभूति है कैलाश दर्शन की. कैलाश वंदन की. अपने को शिवमय कर लेने की. मैं अब तक उस अनुभूति से मुक्त नहीं हुई हूं. जानती हूं कि यह यात्रा जीवन में सिर्फ़ एक बार मुमक़िन है. लेकिन विकल मन बार-बार कैलाशकी मानस यात्रा कर रहा है… आज भी.
पुस्तक साभार: यात्राओं का इंद्रधनुष
लेखिका: ज्योति जैन
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन