आज बात सीन में ही करेंगे, क्योंकि ये नोस्टैल्जिया ऐसे समझाना बड़ा मुश्क़िल-सा है. सोचिए तो एक शहर है शाम का बाज़ार सजा हुआ है सड़क के दोनों तरफ़ ठेले लगे हैं, ठेलों के पीछे लोग खड़े हैं, सर पर टोपा लगाए, गले में मफ़लर बांधे, ऊन के हाथों से बने स्वेटर पहने लोग, जिनके डिज़ाइन्स उनकी घर की औरतों की कलात्मकता की कहानी कह रहे हैं. कुछ के इन स्वेटरों को देखकर आसपास से नकलती तेज़ नज़र की महिलाएं बड़ी गहराई से अंदाज़ा लगा रहीं हैं कि तीन सलाई सीधी ली होंगी, दो उल्टी फिर एक फंदा छोड़ दिया होगा. बस अबकी बार बबलू के पापा के लिए भी ऐसा ही स्वेटर बनाएंगे. ठेलों पर बीचोंबीच एक बड़ा गुलुप (बल्ब) जल रहा है और सामने एक बोर्ड टंगा हुआ है-गजक…मुरैना वाले.
ऊपर जिन भैया, अंकल, चाचाजी, ताउजी, दादाजी लोगों का ज़िक्र किया है न हमने, जो कनटोप पहने अपने बजाज या प्रिया के स्कूटर पर बैठकर बाज़ार तक आए थे, वो अपने हाथ में कपड़े का थैला बगल में दबाए धीमी चाल से पूरे बाज़ार का मुआयना कर रहे हैं. लाइन से खड़े इन गजक वालों से गजक का भाव पूछ रहे हैं, कहीं-कहीं से गजक का एक टुकड़ा चख भी रहे हैं और आख़िर में एक दुकानवाले से भाव-ताव फ़िक्स होता है और साहब तब गजक जाएगी घर.
और घर… साहेबान, क़द्रदान. घर जहां चुन्नू-मुन्नू, बबली और उनकी मम्मी, सब दरवाज़े पर नज़र टिकाए इंतज़ार कर रहे हैं कि कब पापा घर में घुसेंगे और रात टीवी के साथ, खाने के बाद या ज़िद करके थोड़ा पहले भी गजक पर हाथ साफ़ किया जाएगा. ठंड में यही तिल-गुड़ से बनी गजक जादू करेगी और शरीर को गर्मी पहुंचाएगी.
अब ये मत पूछिएगा कि गजक के साथ मुरैना का नाम क्यों लिया, क्योंकि आपने मुरैना की गजक न खाई तो क्या ही गजक खाई? वैसे यही बात आगरा वाले आगरा की गजक के लिए भी कहते हैं और ग्वालियर वाले ग्वालियर की गजक के लिए भी, पर सच ये है कि मुरैना का पानी ही ऐसा है, आप कह सकते हैं कि कड़क है, जो एक फ़ौजी धावक को डाकू पान सिंग तोमर बना देता है और गजक को बना देता है ग़ज़ब की कुरकुरी. चम्बल का असर उसकी बोली और और उसकी गजक दोनों पर दिखता है. पूरे देश में आपको मुरैना की गजक मिल जाएगी और न जाने कितने ही लोग अपना नकली माल मुरैना की गजक के नाम से बेच रहे हैं, पर आप तो समझदार हैं तो नक्कालों से सावधान…
कहां हुआ गजक का जन्म: देखिए बात ये है कि जन्म तो गजक का मुगल काल में ही हुआ है, पर इसे मुगलों के रसोइयों ने नहीं बना शुरू किया, बल्कि ऐसा कहा जाता है कि उस समय के हिन्दू राजा अपने सैनिकों को गुड़, चना और तिल खाने के लिए दिया करते थे, ताकि उनके शरीर में ज़िंक, कैल्शयम, आयरन और विटामिन बी की कमी न हो. बाद में इन्ही चीज़ों से गजक ने जन्म लिया. मुरैना में गजक लगभग 85 साल पुरानी है पर भारत में गजक उससे भी पुरानी है.
देश के अलग अलग हिस्सों में तिल और गुड़ का अलग-अलग रूपों में प्रयोग होता रहा है, जैसे- महाराष्ट्र को ही ले लीजिए, वहां एक कहावत है- तिल गुड घ्या, गोड गोड बोला, यानी तिल और गुड़ खाओ और मीठा-मीठा बोलो.
आपको जानकार हैरानी होगी कि छोटा-सा दिखनेवाला तिल बहुत से गुणों की खान है, ये हाई ब्लड-प्रेशर को कंट्रोल करता है, दिल की बिमारियों के लिए भी ये अच्छा है, इसमें कैंसर-रोधी ऐंटी-ऑक्सिडेंट मिलता है, डिप्रेशन , ख़ून की कमी जैसी समस्याओं से भी निजात दिलाता है और ठंड में शरीर को गर्म तो करता ही है.
एक बहुत ज़रूरी बात ये भी है कि अकेला तिल बहुत गर्मी करता है इसलिए इसे गुड़ के साथ खाया जाता है और कम मात्र में खाया जाता है, क्योंकि इसकी ज़्यादा मात्रा नुक़सानदायक हो सकती है. शायद इसीलिए गजक जैसी सूखी मिठाई का अविष्कार किया गया होगा, ताकि तिल के ज़्यादा से गुणों का लाभ उठाया जा सके.
क़िस्से गजक वाले: कोई मुंबई में बैठकर गजक का मज़ा ले ही नहीं सकता ये ऐसी चीज़ है, जो गर्म मौसम में अच्छी भी नहीं लगती. इसका स्वाद लेने के लिए मौसम में हल्की ठंड बहुत ज़रूरी है, इसका संबंध कृषि वाले त्यौहारों से भी रहा है, पर गजक सामान्य तौर पर ज़्यादा ठंड वाली जगहों पर बहुत चाव से खाई जाती है.अब तो बाज़ार चॉकलेट गजक, गजक रोल, ड्राई फ्रूट गजक जैसी कई वैराइटी भी उपलब्ध है.
क़िस्सों का तो क्या ही कहें हम ठंडवाली जगहों के रहनेवाले हमारे घरों में पूरी सर्दी गजक का डिब्बा मिलता ही था. कोई मेहमान आया तो गजक की प्लेट सामने, सुबह पोहे के साथ, रात के खाने के साथ गजक हुआ करती थी. इसकी एक और ख़ासियत है ये मीठी होकर भी इतनी मीठी नहीं होती कि जीभ को भली न लगे इसलिए ये हमेशा प्रिय रही है. अब यहां तो गजक कब मिलेगी और वैसी तो नहीं ही होगी तो एक कटोरी में तिल और गुड़ मिलाकर रख लिए हैं, चलते फिरते फांकी मार लेते हैं और वाह गजक कहकर मन बहला लेते हैं. अगली बार जल्द मिलेंगे, किसी और व्यंजन के साथ वाह-वाह करते हुए…
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