बीसवीं शताब्दी के सबसे महान हस्तियों में एक महात्मा गांधी के अद्भुत व्यक्तित्व का चमत्कार ही कहेंगे कि उन्हें आप हर रूप में देख सकते हैं. आज़ादी के ठीक साढ़े पांच महीने बाद उनकी नृशंस हत्या कर दी गई, पर क्या उन्हें भारत के इतिहास और भारतीय जनमानस से मिटाना संभव है?
मैंने गांधी को उतना नहीं पढ़ा जितना मेरे ज़्यादातर दोस्तों ने पढ़ा है. फिर भी जब कभी कोई गांधी की आलोचना करता दिखता है तब उस बहस में कूदने से ख़ुद को रोक नहीं पाता. अपने आधे-अधूरे तर्कों से उन्हें डिफ़ेंड करने की कोशिश करता हूं, जो कि कभी-कभी निहायत बचकाना होता है, क्योंकि गांधी को कोई क्या डिफ़ेंड कर सकता है? वैसे गांधी से अपने परिचय के बारे में कहूं तो सभी भारतीय बच्चों की तरह बचपन से ही जानता था कि महात्मा गांधी हमारे राष्ट्रपिता हैं. साथ ही यह भी गांधी का निबंध परीक्षा में ज़रूर पूछा जाता है, तो गांधी का निबंध याद कर लिया. स्कूल में गुरु जी ने बताया था निबंध में गांधी जी का पूरा नाम, उनके जन्म की तिथि, मृत्यु का दिन याद रखना बहुत ज़रूरी है. सो मैंने वह रट लिया था. बाक़ी गांधी के बारे में शुरुआती ज्ञान कवि प्रदीप के गीत दे दी हमें आज़ादी बिना खड़ग बिना ढाल से मिला था. यह गीत पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी और दो अक्टूबर को ज़रूर बजाया जाता था. ऐसे ही एक गांधी जयंती पर दूरदर्शन पर रिचर्ड एटेनबरो की फ़िल्म गांधी देख ली. उससे यह पता चला गांधी जी ने भारत से पहले दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेज़ों से लोहा लिया था. सत्याग्रह और अपने अहिंसक आंदोलन से उन्होंने अंग्रेज़ों को भारत से जाने के लिए मजबूर किया.
जब थोड़ा पढ़ने जितनी उम्र हुई तो पिता जी कहा करते थे, गांधी जी कभी झूठ नहीं बोलते थे. उन्हीं की तरह सदा सच बोलना चाहिए. तो मैंने गांधी की आत्मकथा ख़रीद ली. उनकी आत्मकथा तीन-चार बार पढ़ने की शुरुआत की, पर हर बार आधे से कम में ही बंद करके रख दिया. पिताजी ने ज़रूर वह किताब दो बार पढ़ डाली. इस बीच यहां-वहां कुछ लेख आदि ज़रूर पढ़ता रहा. तो मेरे गांधी इस सिलेक्टेड अध्ययन का नतीजा थे. आगे चलकर लगे रहे मुन्ना भाई में गांधी से मुलाक़ात हुई. तो उनके व्यक्तित्व के कुछ आयाम और जुड़ गए. हां, कई जगह गांधी जी के कोट्स, दुनिया भर के महान नेताओं द्वारा उनके लिए कही गई अच्छी बातें पढ़ता, सुनता रहा, जिससे गांधी के एक महा मानव होने की एक पुख़्ता तस्वीर बिना किसी प्रयास के बनती रही. इस बीच जब सूचना और संचार क्रांति अपने पीक पर पहुंची तब व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी ने गांधी के सिलेबस में कई बदलाव लाने चाहे, पर हर बार उनके चरित्र, स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान आदि पर उठाए जानेवाले प्रश्नों को खारिज करता रहा. गांधी की छवि दिमाग़ में गंगा की तरह बन गई, जिसके बारे में पिताजी से बचपन से सुनता आया हूं,‘गंगा का पानी कभी ख़राब नहीं होता.’ तो यह रहे मेरे गांधी. उस व्यक्ति के गांधी, जिसने गांधी को उतना नहीं पढ़ा, उतना समझने की कोशिश नहीं की, जितना करना चाहिए था.
मैंने अपने गांधी के बारे में बताने के लिए इतने शब्द इसलिए ख़र्चे क्योंकि कोरोना की पहली लहर बाद के जब देश की संसद पहली बार बैठी तब सरकार की ओर से कुछ ऐसी बातें की गईं, जिसमें गांधी की देश की आज़ादी में भूमिका पर दोबारा सवाल खड़े कर दिए गए. संसद के उस सत्र में विपक्ष के पास सरकार को घेरने के कई मुद्दे थे. सबसे बड़ा मुद्दा था सरकार द्वारा बिना किसी दूरगामी योजना के लॉकडाउन लगाना, जिससे देश की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई. करोड़ों मज़दूरों का रोज़गार छिन गया और न जाने कितने मज़दूर पैदल अपने गांव पहुंचने की कोशिश में रास्ते में ही मर गए. यहां न जाने कितने इसलिए क्योंकि सरकार द्वारा कहा गया कि उसके पास इसका कोई आंकड़ा नहीं है कि घर लौटते समय कितने मज़दूर मरे. ख़ैर, विपक्षी सांसदों द्वारा यह पूछे जाने पर कि सरकार के पास कोरोना से निपटने की क्या योजना थी? क्या प्रधानमंत्री द्वारा ताली-थाली बजवाने से या दिए जलवाने से कोरोना का संक्रमण ख़त्म हो गया? इस तीखे तंजनुमा सवाल का जवाब ज़ाहिर है सरकार के पास नहीं था. फिर भी राज्यसभा में बीजेपी सांसद सुधांशु त्रिवेदी ने ताली-थाली और दिए की तुलना गांधी जी द्वारा चलाए गए अहिंसक आंदोलन से कर दी. उन्होंने प्रधानमंत्री के इन लाजवाब नुस्ख़ों पर उठे सवाल का जवाब एक और सवाल उठाते हुए दिया, क्या आज़ादी चरखा चलाने से मिल गई थी? ज़ाहिर है, यह वही सवाल है, जो उन लोगों द्वारा बीच-बीच में उठाए जाते रहे हैं कि गांधी द्वारा किया गया आंदोलन महज़ एक नौटंकी थी. अंग्रेज़ तो देश छोड़कर बस जाने ही वाले थे. वे बस सत्ता हस्तांतरण के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं का इस्तेमाल मोहरे के रूप में कर रहे थे. अंग्रेज़ तो देश में अपने ख़िलाफ़ चल रहे हिंसक व सशस्त्र आंदोलन से घबरा गए थे. क्या गांधी का आंदोलन अंग्रेज़ों का एस्केप रूट था? क्या उनका सत्याग्रह और अहिंसा का रास्ता कमज़ोर था, जिससे अंग्रेज़ों को वाक़ई कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा होगा?
इतिहास की जिन किताबों से मिले जवाब हमने लिखे थे, हाल के सालों में उन किताबों पर भी झूठी होने का ठप्पा लग गया था. बावजूद इसके गांधी का क़द लगातार इतना ऊंचा क्यों होता जा रहा है? इसका जवाब है वर्ष 2011 में देश में हुआ लोकपाल आंदोलन. महाराष्ट्र के बज़ुर्ग गांधीवादी समाजसुधारक अन्ना हज़ारे को चेहरा बनाकर चले उस आंदोलन ने क्या कुछ नहीं बदल दिया. गांधी की ही तरह अहिंसक आंदोलन शुरू किया गया था. उन्हीं की तरह अन्ना हज़ारे ने सरकार द्वारा अपनी मांग न माने जाने तक आमरण अनशन शुरू किया था. उनके साथ-साथ पूरा देश सरकार के ख़िलाफ़ खड़ा हो गया था. अन्ना को दूसरा गांधी बताया जाने लगा. उनके आंदोलन को आज़ादी की दूसरी लड़ाई. सेना, पुलिस और बाक़ी क़ानूनी शक्तियां होने के बावूजद सरकार उस अहिंसक आंदोलन के सामने असहाय खड़ी थी. उसे अन्ना हज़ारे के आगे झुकना पड़ा. अन्ना के उस आंदोलन के बाद यूपीए सरकार क़रीब ढाई साल और चली, पर अंदर से पूरी तरह खोखली हो गई थी. उसकी विश्वसनीय ख़त्म हो चुकी थी. आगे वर्ष 2014 के चुनाव में क्या हुआ, यह हम सबने देखा. अन्ना हज़ारे और जन लोकपाल की मांग का क्या हुआ, किसी को नहीं पता. पर सत्ता बदल गई. यह काम एक डमी गांधी को आगे लाकर किया गया. उसी रास्ते से किया गया, जिसका मज़ाक उड़ाते हुए संसद में सवाल पूछा जाता है. मैंने गांधी को नहीं देखा, उनको नहीं पढ़ा, पर गांधी के रास्ते पर चलकर क्या हो सकता है, यह हम सबने देखा. गांधी के व्यक्तित्व के आगे हमारे डमी गांधी कहीं नहीं ठहरते, इसी से हमें उस विराट व्यक्तित्व का अंदाज़ा लगा लेना चाहिए. जिसे मारने वाले लोग भी आज उसकी पूजा करने को मजबूर हैं. गांधी ज़रूरी हैं. गांधी मजबूरी हैं. आप गांधी को मार तो सकते हो. उन्हें मिटा नहीं सकते.
चलते-चलते पिताजी की एक और बात. हम लोग गंगा के पूरब की ओर रहने वाले लोग हैं. बंबई से जानेवाली रेलगाड़ी जब गंगा पुल से गुज़रती, तब पिताजी जेब से कुछ छुट्टे पैसे निकालकर हम बच्चों को दे देते. मां कहतीं गंगा मैया को चढ़ा दो. हम बिना कुछ सोचे-समझे बस श्रद्धापूर्वक पैसे फेंक देते. भले ही अब बचपन की तरह पैसे नहीं फेंकते पर अब भी गंगा पुल से रेलगाड़ी के गुज़रते समय मन श्रद्धा से भर जाता है. यही श्रद्धा गांधी के लिए भी है. उनके जन्म का दिनांक और हत्या की तिथि को याद रखने से भी ज़्यादा ज़रूरी है उनकी बातें याद रखना. आंख के बदले आंख न लेने की सीख. उनका दिखाया गया अहिंसा का रास्ता. गांधी यह नाम हमेशा सकारात्मकता से भर देता है. यह उम्मीद देता है कि हम ख़ुद को बदल कर दुनिया बदल सकते हैं. तो यह रहे मेरे गांधी, जिनकी मैंने कभी तलाश नहीं की. वे ख़ुद अपनी लकड़ी टेकते हुए मेरी राह में आ जाते हैं. कुछ देर साथ चलते हैं, मैं उनको देख भर लेता हूं. वे दोबारा मेरी जेब में रखे नोट पर चुपचाप जाकर मुस्कुराने लगते हैं. यह कहते हुए मैं हूं मोहनदास करम चंद गांधी…