हम चाहें या न चाहें, वक़्त हमें बदल ही देता है. फ़ादर्स डे विशेष कविता ‘पिता के घर लौटने पर’ बता रही है, वक़्त ने चुपचाप कितना बदल दिया है पिता को.
पिता बाहर जाते, पैसे कमाने
और लौटते, थकान कमाकर
सामान ख़रीदने निकलते और
अक्सर घर लाते, ग़ुस्सा उठाकर
घर में हमारी आवाज़ें चुभती उन्हें
बस आंखें उठाकर देख लेते एक बार
कमरे में पसर जाता सूई पटक सन्नाटा
हां, किचन में खाने की थाली लगने की आवाज़ें
ज़रूर डरते-डरते छेड़ती रहतीं, उस सन्नाटे को
ज़माना, पिता से फ़रमाइश करने का नहीं था
महीने की किन्हीं तारीखों को, वो ख़ुद ही पूछते
किताब, कापी, कलम सब है ना?
हम बिन बोले, बस सिर हिला देते
हमारी ये ज़रूरतें, बिना मांगे पूरी करते पिता
जैसे उनके घर पहुंचते ही
मां लगा देती खाने की थाली, बिना पूछे
तब पिता, पिता नहीं एक तंत्र थे
हम बच्चे, बच्चे नहीं बस यंत्र थे
जब पहली बार सुना कि
शेषनाग उठाए रहता है
धरती को अपने फन पर
शेषनाग की जगह पिता
घर कंधों पर उठाए नज़र आए
आगे कल्पनाओं में, शेषनाग की जगह
यूनानी देवता एटलस ने रिप्लेस कर ली
पर पिता की छवि, धीर-गंभीर ही बनी रही
राहत-चिंता, कमाई-ख़र्च का अनुपात
उनके काले से सफ़ेद हो रहे बालों की तरह बढ़ता रहा
वह तेज़ी से बदल रहा दौर था
देश ने खोल दिए थे, दुनिया के लिए दरवाज़े
टीवी पर घुंघराले बालों वाला एक लड़का
ठंडा पी, बल्ले से तापमान बढ़ा रहा था
हम भी चाहते थे, अपने हाथों में वैसा ही बल्ला
सोचा इस बार भी, बिन मांगे पिता समझ जाएंगे
पर इम्तिहान के अच्छे नतीजे के बाद, पिता ने
पुरस्कार में दी थी, चाबी वाली एचएमटी घड़ी
बल्ला भूल, दोस्तों को घड़ी दिखाते रहे
राह चलतों को, रुबाब से समय बताते रहे
समय के साथ, चाबी घड़ी डिजिटल में बदल गई
जैसे बच्चों के बढ़ते ही रातोंरात
सीनियर सिटिज़न में बदल जाते हैं पिता
सख्तमिजाज़ पिता, जीवनभर मिठास दिल में छुपाए रहे
आजकल वही मिठास, उनके ख़ून में उतर आई है
पिता बाहर जाते हैं, मिठास घटाने
और लौटते हैं, बातें कमाकर
समय ख़र्चने निकलते हैं
और अक्सर लाते हैं, सुकून उठाकर
अब पिता, सिर्फ़ पिता नहीं एक दुनिया हैं
उनके बच्चे, माता-पिता बन गए हैं
और उन्हें भी एक दिन दुनिया बन जाना है!
Illustration: Pinterest