बच्चों की परवरिश में संतुलन बहुत ज़रूरी होता है, लेकिन यह संतुलन किस तरह साधा जाए इसका कोई रेडीमेड प्लान नहीं होता. यह प्लान समय, परिस्थिति और हर बच्चे के अनुसार अलग होता है, जो हर अभिभावक को ख़ुद बनाना होता है. यदि आप बच्चों के विकास के केवल एक या दो पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं और बाक़ी को छोड़ देते हैं तो इसके परिणाम अलग हो सकते हैं. यह आलेख इसी के बारे में है.
मेरी एक दोस्त पढ़ने में बेहद होशियार थी, इतनी ज़्यादा कि उसके पैरेंट्स ने इसलिए कि उसकी पढ़ाई में कोई बाधा ना आए, उसे घर के सभी कामों से दूर रखा. उसका करियर अच्छा बन गया, लेकिन असल समस्या आई जब वह काम के लिए बाहर गई. उसे घर का कोई काम नहीं आता था, यहां तक कि बाज़ार से सब्ज़ी ख़रीदना भी उसके लिए बेहद मुश्क़िल अनुभव होता था. हालांकि उसने सालभर के भीतर ही सब सीख लिया, लेकिन उसने मुझसे कहा, ‘‘काश मेरे पैरेंट्स ने मुझे यह काम समय रहते सिखाया होता तो मुझे इतना परेशान नहीं होना पड़ता.’’
नताशा मेहता, सीनियर साइकोलॉजिस्ट, एस एम शेट्टी एजुकेशनल इन्स्टिट्यूशन्स, मुंबई, कहती हैं, ‘‘ओवरइंडल्जेंट पैरेंट्स वो होते हैं, जो अपने बच्चों के प्रति ज़रूरत से ज़्यादा दयालुता बरतते हैं. अपने बच्चों को ज़रूरत से ज़्यादा चीज़ें या आराम देना चाहते हैं. बच्चों को उनकी उम्र के हिसाब से चीज़ें न सिखाना, महंगे गैजेट्स, महंगी बर्थ डे पार्टीज़ देना, फ़ॉरेन ट्रिप्स पर ले जाना. दरअसल, वे अच्छी नीयत के साथ ऐसा करते हैं, लेकिन अनजाने ही अपने बच्चों के भविष्य को उपेक्षित कर जाते हैं.’’
हाऊ मच इज़ टू मच? बच्चों की परवरिश पर लिखी गई यह किताब, जिसे लेखक त्रय जेन इल्सल क्लार्क, कॉनी डॉसन और डेविड ब्रेडहॉफ़ ने लिखा है, ‘‘बतौर पैरेंट्स हम सभी अपने बच्चों को हर बेहतरीन चीज़ देना चाहते हैं, लेकिन ज़्यादा दी गई चीज़ें हमेशा अच्छी हों, यह ज़रूरी नहीं.’’ किताब आगे बताती है, ‘‘बच्चों को ज़्यादा दी जाने वाली चीज़ें कभी-कभी तो जीवन में ख़ुशियां और रंग घोलती हैं, लेकिन जब यह किसी पैटर्न की तरह होने लगता है तो इसके नतीजे बहुत अलग होते हैं. और यह पैटर्न ही ओवरइन्डल्जेंस हैं.’’
डॉक्टर हरीश शेट्टी, साइकियाट्रिस्ट, डॉक्टर एलएच हीरानंदानी हॉस्पिटल, मुंबई, हमारे देश में इन्डल्जेंट पैरेंटिंग को आम मानते हैं. वे कहते हैं, ‘‘पैरेंट्स का बच्चों के साथ इंडल्जेंट होना नॉर्मल है, लेकिन ओवरइंडल्जेंट मतलब आप बच्चे को अपने ऊपर निर्भर बना रहे हैं. बच्चों का होमवर्क कराना, उन्हें सड़क पार कराना, हर बार पूछना खाना खाया क्या, बच्चों को बड़े होने तक भी ख़ुद पर डिपेंडेंट बनाए रखना, पैथलॉजिकल डिपेंडेंस है और वो ठीक नहीं है. इससे बच्चे का आत्मविश्वास कम होता है.’’
आख़िर पैरेंट्स ओवरइंडल्जेंट क्यों होते हैं?
इस सवाल का जवाब आसान नहीं है, क्योंकि इसमें कई मुद्दे शामिल हैं. ठाणे में रहने वाली आक्यपेशनल थेरैपिस्ट हिताशा मेरानी इस बात को मानती हैं कि तीन वर्ष पहले तक वो ख़ुद भी ओवरइंडल्जेंट पैरेंट थीं. वे बताती हैं, ‘‘मैं लंबे समय तक एक स्कूल के साथ एसोसिएटेड थी. वहां बच्चों की समस्याओं को लेकर पैरेंट्स और बच्चों के साथ बातें करते हुए मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मैं भी ओवरइंडल्जेंट पैरेंट हूं.’’ जब उन्हें एहसास हुआ तो उन्होंने इसके बारे में काफ़ी पढ़ना शुरू किया. ‘‘पैरेंट्स को लगता है कि जो चीज़ें हमें नहीं मिलीं, वो हम बच्चों को दें. अक्सर ये मटीरियलिस्टिक चीज़ें होती हैं. पर कई पैरेंट्स ये सोचते हैं कि बचपन में हमारे पैरेंट्स ने हमें इतना अटेंशन नहीं दिया तो हम अपने बच्चों को दें.’’ इसके अलावा हिताशा न्यूक्लिअर फ़ैमिली और सिंगल चाइल्ड को भी इसका कारण मानती हैं, ‘‘क्योंकि वहां पैरेंट्स का पूरा ध्यान अपने बच्चे पर रहता है और यदि आप वर्किंग हैं तो बच्चे को कम समय दे पाने का गिल्ट भी.’’
वहीं बक़ौल डॉक्टर शेट्टी, ‘‘एक ही बच्चा और ऊब महसूस कर रही (बोर) या डिप्रेस्ड मदर ये कॉम्बिनेशन ही ओवरइंडल्जेंट पैरेंट का है. यदि मां वर्किंग नहीं है, पिता 18 घंटे घर से बाहर है. मां ही बच्चे को नहला, धुला रही है, स्कूल ले जा रही है, एक्स्ट्रा करिकुलर करवा रही है. तो यहां ये देखिए कि ये पैथलॉजिकल डिपेंडेंस की ज़रूरत बच्चे की नहीं है, मां की है.’’ फिर हमारे देश में घरों का जो स्वरूप है, जहां बच्चों के दादा-दादी भी रहते हैं, साथ नहीं रहते तो भी घर में दख़ल रखते हैं तो मांओं पर ‘अच्छी मां’ बनने का दबाव होता है. ऐसे में वे बच्चे के सारे काम ख़ुद कर देना चाहती हैं, ताकि उनके ‘मातृत्व’ को कोई कम न आंक सके.
कोलकाता की मेघा वोहरा, जो वेलनेस ऑन्ट्रप्रनर और दो बच्चों की सिंगल मदर हैं, वे भी इस बात से इत्तेफ़ाक रखती हैं, ‘‘मैं क़तई ओवरइंडल्जेंट पैरेंट नहीं हूं, लेकिन मैं ख़ुद जिस दौर में बड़ी हुई हूं वो 80’ का दशक था. मेरे माता-पिता ने हमें बहुत सामान्य तरीक़े से बड़ा किया. तब लग्ज़री और बहुत सारी चीज़ों को इन्डल्ज करने की संकल्पना थी भी नहीं. जबकि आजकल के बच्चों को पास इस तरह की चीज़ों का ऐक्सेस है. आजकल के पैरेंट्स यदि अफ़ोर्ड कर सकते हैं तो बच्चों को ब्रैंडेड चीज़ें दिलाने में संकोच नहीं करते.’’
मानवभारती स्कूल, बीकानेर, की सेक्रेटरी कनुप्रिया, के स्कूल में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं. वे बताती हैं, ‘‘इस वर्ग के बच्चों के पैरेंट्स भी ओवरइंडल्जेंट होते हैं, ख़ासतौर पर अपने लड़कों के लिए. वे अपने लड़कों को किसी ट्रॉफ़ी की तरह दिखाना चाहते हैं.’’ कनुप्रिया ने यह भी देखा है कि मांएं अपने बच्चों के प्रति इसलिए ज़रूरत से ज़्यादा दयालू हो जाती हैं, ताकि वे ख़ुद को अच्छी मां साबित कर सकें, जबकि पिता अक्सर इसलिए ओवरइंडल्जेंट होते हैं कि कहीं उनका बच्चा मां से ज़्यादा अटैच्ड न हो जाए.
साइकोलॉजिकल टुडे ब्लॉग में डॉक्टर डेविड ब्रेडहॉफ़ ने इसके कई कारण गिनाएं हैं: पैरेंट्स अपने बच्चे को वह देना चाहते हैं जो उन्हें नहीं मिला, अपनी किसी गिल्ट को कम करना चाहते हैं, अपने पार्टनर से प्रतिस्पर्धा करना चाहते हैं, उनका एक ही बच्चा है, इस तरह वे बच्चे को कंट्रोल करना चाहते हैं, वे ख़ुद को अच्छा पैरेंट साबित करना चाहते हैं, उन्हें सीमाएं खींचना नहीं आता वगैरह. पर वे यहां चेताते भी हैं कि रिसर्च कहती है कि ओवरइंल्जेंस की वजह से बच्चों पर प्रतिकूल असर पड़ता है.
इसका बच्चों पर प्रतिकूल असर पड़ता है
पैरेंट्स के ओवरइंडल्जेंट होने से बच्चों के आत्मविश्वास और साहस में कमी आती है. वह ज़िद्दी और चिड़चिड़ा हो जाता है. व्यावहारिक जीवन से तालमेल नहीं बिठा पाता. इस बारे में नताशा बताती हैं, ‘‘उन्हें बिहेवियरल इशूज़ होते हैं. बच्चों को लगता है कि वे नियमों से ऊपर हैं और ख़ास हैं. कर्तव्य की भावना तो उनके भीतर आती ही नहीं है. बच्चे अहंकारी हो सकते हैं, भावनाओं और आवेगों पर लगाम नहीं कस पाते, उन्हें नियमों का पालन करने में कठिनाई हो सकती है और उनमें इंटरपर्सनल स्किल्स का विकास नहीं हो पाता है.’’
हिताशा भी इस बात से सहमत हैं. वे कहती हैं, ‘‘मैंने एक स्कूल में बहुत लंबे समय तक प्री प्राइमरी से ग्रेड 8 तक के बच्चों के साथ काम किया. मेरा उन बच्चों के पैरेंट्स के साथ मिलना जुलना होता था, जिनके बिहेवियरल इशूज़ होते थे या जो अटेंशन सीकिंग होते थे. तब मुझे इस बात का एहसास हुआ कि बच्चों के इन प्रॉब्लम्स के पीछे घर का माहौल एक बहुत बड़ा कारण है.’’
डॉक्टर शेट्टी का कहना है किओवरइंडलजेंट पैरेंट्स के साथ रहा बच्चा अपनी सर्वाइवल के लिए ज़रूर लाइफ़ स्किल्स भी नहीं सीख पाता. और जो बच्चा ज़रूरी लाइफ़ स्किल्स ही नहीं सीखेगा, उसकी पर्सनैलिटी सही तरीक़े से कैसे विकसित होगी?
वहीं कनुप्रिया कहती हैं कि यह एक बड़ा विषय है. कई बार पैरेंट्स कुछ चीज़ों के लिए तो नियम बनाते हैं, पर कुछ चीज़ों को छोड़ देते हैं. वहां अपने बच्चों के लिए ओवरइंडल्जेंट हो जाते हैं. ‘‘समस्या यह भी है कि कई बार पैरेंट्स का ओवरइंडल्जेंट होना हमें सीधे तौर पर दिखाई नहीं देता है, लेकिन जिस भी चीज़ में वो ज़रूरत से ज़्यादा उदार होते हैं, बच्चे का वह पक्ष कमज़ोर हो जाता है.’’ इस बात को आप ककून से तितली के निकलने के उदाहरण से समझ सकते हैं. जब ककून से तितली ख़ुद निकलती है तो उसके पंख मज़बूत होते हैं, लेकिन यदि हम उसकी मदद कर दें, उसके निकलने में तो वह ठीक से उड़ भी नहीं पाती.
नताशा बताती हैं कि ऐसे वयस्क, जो ओवरइंडल्जेंट पैरेंट्स के साथ बड़े हुए हैं, वे आज असंतोष की भावना ज़ाहिर करते हैं. उनमें से कई रिपोर्ट करते हैं कि उनमें ज़्यादा खाने और ज़्यादा ख़र्च करने की आदत आ गई है. उनमें से कई यह भी बताते हैं कि जीवन की सच्चाइयों का समाना करने में उन्हें बहुत परेशानी और दुख होता है.
क्या आप ओवरइंडल्जेंट पैरेंट हैं?
नताशा और डॉक्टर हरीश शेट्टी का मानना है कि पैरेंट्स को ख़ुद से कुछ सवाल पूछने चाहिए और उनके जवाब आपको ख़ुद ब ख़ुद बता देंगे कि आप ओवरइंडल्जेंट पैरेंट हैं या नहीं.
डॉक्टर शेट्टी के अनुसार, पैथलॉजिकल डिपेंडेंस में तीन सवाल आते हैं: ये किसकी ज़रूरत है?, क्या यह बच्चे को अयोग्य (इनेफ़िशन्ट) बना रहा है?, क्या आप बच्चे का आत्मविश्वास ख़त्म कर रहे हैं? यदि इनके जवाब ‘हां’ हैं तो आप ओवरइंडल्जेंट पैरेंट हैं.
वहीं नताशा कहती हैं पैरेंट्स ख़ुद से ये सवाल पूछें:
1. हम बच्चे को सभी सहूलियतें देते हैं, पर क्या वह हमारी बात मानता है?
2. हम उसे प्रोटेक्ट करने के लिए जो रूल्स बनाते हैं, क्या वह उन्हें मानता है?
3. क्या वह किसी खेल में या दूसरी जगहों पर अपनी बारी आने का इंतज़ार करता है?
4 क्या वह उन चीज़ों के लिए ग्रेटफ़ुल महसूस करता है, जिनके लिए उसे करना चाहिए?
5. क्या वह बहुत ज़्यादा नाराज़ होता है, गुस्सा करता है, चिल्लाता है जब तक कि हम उसकी बात मान न लें?
6. क्या आप बच्चे को सारी सहूलियतें इस लिए दे रहे हैं कि जब आप बच्चे थे तो आपको ये सब नहीं मिला?
यदि पहले चार सवालों का जवाब ‘ना’ है और आख़िरी के दो सवालों का जवाब ‘हां’ है तो यह पैरेंट्स के लिए रेड फ़्लैग है.
इससे बचना मुश्क़िल नहीं है, बस सचेत रहें
हिताशा मानती हैं कि यह एक दिन में नहीं हो सकता. यह जानने के बाद कि मैं ओवरइंडल्जेंट पैरेंट हूं मुझे लंबा समय लगा था, इससे उबरने में. ‘‘जब मैंने पहली बार अपने बच्चे को एक छोटा सामान लेने पास की दुकान तक भेजा था तो मैंने उसे कम से कम 20 इन्स्ट्रक्शन्स दिए थे. उस दिन उसे ये पता चला कि सब्ज़ियों के बैग कहां रखे होते हैं, मां का पर्स कहां रखा है, पर्स का रंग कैसा है, पर्स में मां वॉलेट कहां रखती है, उसे दुकानदार से कैसे सामान मांगना है, कैसे पैसों का हिसाब करना है और कैसे घर सुरक्षित पहुंचना है. इस एक काम से बच्चे के कितने स्किल्स सीखे ये बात ज़्यादा मायने रखती है और ये बातें आप उसे काग़ज़ पर लिख कर आई मीन थ्योरिटिकली नहीं सिखा सकते. हम बच्चे से ये सारे अनुभव छीन लेते हैं, जब हम ओवरइंडल्जेंट पैरेंट होते हैं. मुझे कम से कम दो सालों का समय लगा, जिसमें मैंने ख़ुद में ये बदलाव धीरे-धीरे और कॉन्शसली लाया.’’
मेघना बताती हैं, ‘‘मेरे दोनों बच्चे बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते हैं. दोनों ही ऐथ्लीट हैं तो उन्हें पता है कि मां किन चीज़ों पर ख़र्च करेगी और किन पर नहीं. मैं उन्हें उनके खेल के लिए महंगे जूते और इक्विपमेंट्स दिलाती हूं, उनकी न्यूट्रिशस डायट का ख़्याल रखती हूं, लेकिन वे जानते हैं कि उन्हें और लोगों की तरह पॉकेट मनी के रूप में बड़ी राशि नहीं मिलने वाली. इन बातों को बच्चों को बताना, उन्हें व्यावहारिक जीवन के लिए तैयार करना ही तो है.’’
नताशा भी हिताशा की बात का समर्थन करती हैं. वे कहती हैं, ‘‘यह एकदम से नहीं होगा. सबसे पहले आपको सॉफ़्ट स्ट्रक्चर रूटीन बनाना होगा. उनके उन्हें छोटे-छोटे काम दीजिए और इंडिपेंडेट बनाइए. उन्हें कोई काम करते वक़्त डिस्कम्फ़र्ट हो रहा है तो होने दीजिए, इससे वे सर्वाइवल सीखेंगे. और सबसे बड़ी बात जिसका बतौर पैरेंट्स आपको ध्यान रखना है, वो है- अति सर्वत्र वर्जयेत. मतलब अधिकता किसी भी चीज़ की अच्छी नहीं होती. ना ही उन्हें बहुत ज़्यादा निर्भर रखना है और ना ही बहुत ज़्यादा स्वतंत्रता देनी है. उन्हें उनकी उम्र के अनुसार स्वतंत्रता और ज़िम्मेदारी दें. इस मामले में संतुलन बहुत ज़रूरी है.’’
डॉक्टर हरीश शेट्टी कहते हैं कि एक उम्र तक बच्चों को पैरेंट्स के सपोर्ट की ज़रूरत पड़ती है, फिर वे ख़ुद ही आपको बता देते हैं कि उन्हें मदद नहीं चाहिए. तब आपको उनकी बात सुननी चाहिए. ‘‘बच्चा कहता है कि मैं शर्ट, शूज़ पहन सकता हूं तो उसे पहनने दीजिए. आप उसका होमवर्क मत कीजिए, जब वो कहता है कि मैं ख़ुद कर लूंगा. थोड़ी दूर तक उसे अकेले आने-जाने दीजिए.’’
नताशा इस बारे में बताती हैं, ‘‘पैरेंट्स ये कैसे तय करें कि कब उन्हें रुकना है. पैरेंटिंग के इस संतुलन का कोई रेडीमेड प्लान नहीं होता, जो हर फ़ैमिली पर सूट करे. यह संतुलन हर घर के लोगों और उनकी लाइफ़स्टाइल व परंपराओं के अनुसार अलग-अलग होता है. तो अपने घर के लिए बतौर पैरेंट आपको ही इसे परिभाषित करना होगा.’’