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ओए अफ़लातून
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उसने छुआ था: डॉ संगीता झा की कहानी

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
March 28, 2023
in नई कहानियां, बुक क्लब
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Dr-Sangeeta-Jha_Kahani
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कुछ बातें, कुछ घटनाएं और कुछ लोग हमारे मन को कुछ इस क़दर छू जाते हैं कि हम अपनी एक पैरलल दुनिया में रहने लगते हैं. ऐसा लगता है जैसे अपने आसपास की दुनिया से हमारा कोई वास्ता नहीं है. हम अपने ख़्यालों की दुनिया से बाहर आना ही नहीं चाहते. कुछ ऐसा ही होता है, कालजयी कहानी ‘उसने कहा था’ से प्रभावित हमारी इस कहानी की नायिका के साथ. वह बचपन में होली की एक छुअन को दिल से लगा बैठती है. पढ़ें, डॉ संगीता झा की बेहद रोचक कहानी.

उसने कहा था के लहना सिंह की तरह मेरे भी जीवन में एक मीठा पर दर्द भरा वाक़या था, जिसे आज तक दिल में दबाए बैठी हूं. स्कूल में ‘उसने कहा था’ कहानी कई बार पढ़ी थी और बार-बार पढ़ी थी. थी तो नादान, लेकिन बड़ी अमीर. उन दिनों मैं मैं नहीं हम हुआ करती थी. कल्पनाओं में बड़ी-बड़ी कोठियों की मालकिन, पानी में हमारे जहाज़ चलते थे और हवा में रॉकेट उड़ा करते थे. वो दूसरी बात है कि पानी वो बारिश ठहरा हुआ पानी था और जहाज़ रॉकेट काग़ज़ के थे. उस जहाज़ और रॉकेट को बनाने के लिए अपनी कॉपी का एक पन्ना फाड़ना पड़ता था और बहुत बार हमारी पिटाई भी हुई थी. घर के पास एक नाला था जो मेरे सुख दुख का साथी था और अक्सर एकांत में मैं अपने सपने उस नाले की मुंडेर पर बैठ कर ही देखती थी. हर समय मेरे हाथ नाले की मिट्टी से सने रहते थे. इतना अपनी दुनिया और सपनों में खोई रहती थी कि कभी अपना ख़्याल ही नहीं रहता था. कभी वहां सहेलियों को बुला उन्हें घास की रोटी कीचड़ की दाल कंकड़ के चावल परोसती. कुछ मेरे जैसी थीं, वो भी मेरे साथ बैठ जातीं और कुछ मेरी हालत देख अपने मुंह और नाक पर हाथ रख मेरी हंसी उड़ातीं. मेरी तो दुनिया ही अलग थी, मुझे इससे कोई सरोकार ही ना था. घर पर मां और दादी बड़े परेशान रहते कि इस लड़की को कब अक्कल आएगी. बालों में लट उलझी, हाथ पैरों में मिट्टी, फ़्रॉक पर अचार का तेल… इस लड़की का किया भी जाए तो क्या? ऐसा सहेलियां सोचतीं. सपनों में ऐसे खोई रहती, मानो इस दुनिया से कोई सरोकार ना हो. कभी भौरों को पकड़ उनके पंखों को धागे से बांध एक साथ उड़ाती. तितलियों को पकड़ उनके रंगीन पंखों से ख़ुद के हाथ पर फूल पत्ती के गोदने गढ़ती, तो कभी गाय-भैंसों के पीछे दौड़कर उनका गोबर इकट्ठा कर उससे भी नाना प्रकार की चीज़ें बनाती. मेरी इस उजुल फुजुल हरक़तों के बावजूद पापा निशर्त प्यार करते थे. शायद विधाता ने मेरी जैसी अनोखी दूसरी लड़की गढ़ी ही नहीं थी, क्योंकि ये उन दिनों की बात है जब लड़की को पैदाइश से ही पराया धन माना जाता था और लड़की की सीमा स्कूल, घर और रसोई ही थी. ऐसे में नाले, मिट्टी, गोबर की अनोखी दोस्त मैं अकेले ही हुआ करती थी. बारिश में मेरा पानी के जहाज़ के साथ छोटी-छोटी मछली पालन का व्यवसाय भी चलता था और मेरी फूटी क़िस्मत की वजह से वो बाल मछली यानी टेडपोल मेंढक बन मेरी बोतल से बाहर कूद जाते.
***
वो दिन एक होली का दिन था. मैंने हर तरह के रंग से होली खेली थी. सारा चेहरा इस तरह डरावना हो गया था कि जन्म देने वाली मां भी शायद पहचान नहीं पाती. अब मैं कुरूपा अपनी नाले की मुंडेर पर जाकर बैठ गई. नाले को कैसे उदास रहने देती, चेहरे की बची खुची जगह पर नाले के किनारे वाले दलदल की मिट्टी लपेट ली. घर के लोगों को इल्म भी ना था कि मैं कहां और किस हाल में हूं. ख़ैर ये होली नहीं मेरी हर छुट्टी की दिनचर्या थी, जहां मैं दिनभर घर से ग़ायब रहती और फिर धूल से सनी शाम को घर वापस. कई बार तो मां और दादी दोनों मिल कर मेरी गंदगी छुड़ाते और ईश्वर से प्रार्थना करते कि मुझे सदबुद्धि मिले. अभी मैं नाले की मुंडेर पर बैठी कुछ सोच ही रही थी कि किसी ने पीछे से आकर मेरी आंखों को अपने दोनों हाथों से भींच लिया. मैं तो जैसे कल्पनाओं में खो गई, मैंने विरोध ही नहीं किया, लगा जैसे मेरे सपनों का लहना सिंह आ गया है और अब पूछेगा,‘तेरी कुडमाई हो गई?’ तो मैं कहूंगी,‘नहीं तेरा इंतज़ार है.’
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ वो मेरी आंखो को भींचे रहा थोड़ी देर. मैंने अपने हाथों से धीरे से उसके हाथों को छुड़ाया और पीछे मुड़ कर देखा तो पाया ठीक मेरी तरह उसका भी चेहरा चितकबरा था, लेकिन उसकी आंखें एकटक मेरी तरफ़ बिना पलक झपकाए देख रही थीं. पता नहीं उन आंखों में क्या जादू था कि मैं भी एकटक उसकी तरफ़ देखती रही. ज़िंदगी में पहली बार ये नैन लड़ाए थे. अचानक वो एकदम से ग़ायब हो गया और मेरे ज़ेहन में छोड़ गया वो आंखें और वो छुअन. एक पल में मैं हम से मैं बन गई. बड़ी देर वहां बैठी रही, अपने गंदे हाथों से ही बार बार आंखों को छू उस छुअन को महसूस करने की कोशिश की. पहली बार ज़िंदगी में किसी और की मौजूदगी ने सेंध मारी थी.
नाले की मुंडेर से चूम कर विदा ली. घर आकर मां से शैम्पू और साबुन मांगा. मां आश्चर्य से मुझे देखने लगी. घंटों घिस घिस शरीर का रंग और गंदगी छुड़ाई. पूरे घर वाले अवाक् मुंह खोल कर मुझे देखते रहे. पापा ही बेचारे दुःखी थे उनकी क्वीन विक्टोरिया जो ग़ायब हो गई थी. पहली बार मां और दादी को मेरी उठी हुई नाक और रेशम से बालों के दर्शन हुए. दोनों ने चैन की सांस ली. अब तो रोज़ घंटों आईने से बातें होती और ख़ुद के ही हाथों से ख़ुद की आंखें बंद कर उसी छुअन को महसूस करने की कोशिश करती. कितनी बार बाज़ार, मेले और हाट के चक्कर काटती कि काश मेरा लहना मुझे फिर से मिल जाता. उसने कहा था कहानी में लहना अपनी प्रेमिका से बार-बार मिलता था, यहां तो मुझे अपने लहना का इंतज़ार था. अब मेरा रूप रंग देख मेरे पीछे घूमने वाले आशिक़ों की लाइन लग गई थी. लेकिन कभी भी किसी और से दिल लगाने का जी ही नहीं किया. भाई मेरी रक्षा करते-करते परेशान हो गए थे. मेरा बिना काम के बाज़ार और मेलों की धूल छानने का रहस्य सबकी समझ से परे था. भाईयों की जासूसी ने भी थक कर हथियार डाल दिए थे. उन आंखों से मिले मुझे पूरे पंद्रह साल हो गए थे, लेकिन फिर वो कभी नहीं मिलीं. हर होली पर मैं अपने पुराने साथी नाले पर जाकर घंटों उन आंखों का इंतज़ार करती, लेकिन हर बार ख़ाली हाथ ही वापस आती. कई बार तो ख़ुद की हाथों से पूरे मुंह पर रंग भी लगाया कि शायद उन आंखो ने मेरा काला पीला चितकबरा चेहरा ही देखा था. पर हर बार निराशा ही हाथ लगी.
मेरी उम्र भी चौबीस की हो चली थी और घर वाले मेरे हाथ पीले करना चाहते थे. सबकी पसंद और कुछ हद तक मेरी भी पसंद से मेरा विवाह होने जा रहा था, क्योंकि मैंने तो अपने लहना के आने की उम्मीद ही छोड़ दी थी. वो मेरी मेहंदी का दिन था और मेहंदी लगाने के बाद मेरा फोटोशूट होना था. मेरे फुफेरी बहन मेरे फ़ोटो शूट में मेरे साथ थी और कभी मेरे हाथ की मेहंदी तो कभी मेरे पैर की मेहंदी की फ़ोटो ली जा रही थी. मैंने अपना चेहरा थोड़ा झुका रखा था अचानक मेन फ़ोटोग्राफ़र का असिस्टेंट मेरे पास आया और अपने बॉस के कहने पर अपने हाथ से उसने मेरी ठुड्डी ऊपर की-बाप रे! मुझे तो मानो करेंट लग गया, सालों बाद वही छुअन और ज्यों ही थोड़ा सर ऊपर किया तो वही आंखें मेरी आंखों से टकराईं. जिनकी खोज में गली-गली कूचे-कूचे चक्कर लगाया वो आज सामने. दिल में एक मीठा सा दर्द मेरा लहना मेरे सामने और मैं मजबूर, किसी और के नाम की मेहंदी लेकिन शायद मेरी मोहब्बत बेईमान थी. उसकी आंखों में तो इन आंखों की कोई पहचान ही बाक़ी नहीं थी. मेरा रोम-रोम कांप रहा था, आंखें फड़फड़ा रही थीं. वो मुआ फ़ोटोग्राफ़र बना कहे जा रहा था,‘अरे मैडम ऊपर देखिए, ऐसे हिलेंगी तो फ़ोटो बिगड़ जाएगी. सीधे खड़े रहिए.’
मुझे तो चक्कर सा गया ,मैं मूर्छित हो गई. होश आया तो मां पापा सिरहाने खड़े मेरा सर सहला रहे थे. पापा ने कहा,‘अरे बेटा ये तो दुनिया का दस्तूर है. हर बेटी को अपने बाबुल का घर छोड़ना पड़ता है. हिम्मत रखो मेरा राजा बेटा. तुम मेरे दिल का टुकड़ा हो.’
इस बात को बरसों बीत गए लेकिन आज भी हर होली पर उन आंखों और छुअन की याद आंखों को नम कर देती हैं और मैं सोचती हूं काश मेरे लहना ने मुझे उस दिन पहचान लिया होता और पूछता,‘क्या तेरी कुड़माई हो रही है?’ तो क्या मैं जवाब देती.
Illustrations: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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