बचपन के दोस्तों के साथ जुड़ी होती है, बचपन की मस्तमौला यादें, नटखट शरारतें और मसालेदार सच्चे-झूठे क़िस्सों की पोटली. इसी पोटली में से कहानी ‘तितलियां’ निकाल लाई हैं, हमारी लेखिका डॉ संगीता झा.
तितलियां नहीं जानती कि उनके पंखों का रंग कितना चटक, या कितना धूसर है. चिड़ियां नहीं जानती कि उनके चहकने से कितनों की उदासी दूर हो रही है, सर्द हवाएं नहीं जानतीं कि वे किसकी खिड़की खड़खड़ा रही हैं, किसके मन में कैसी सिरहन पैदा कर रही हैं. ये सब बस हैं और अपने होने में पूरे रस-गंध, उसके सुख-दुख के साथ खपी, अपने प्रभाव से अंजान, अपने समय में धीरे-धीरे घुल रही हैं, व्यतीत हो रही हैं.
…ऐसी ही थीं मेरी सारी सहेलियां जिनके साथ खेलते-खेलते भी कल्पनाएं थीं, घर की रसोई में रोटी का फूलना भी एक आशा की लहर जगाता था. मां का स्वेटर उधेड़ना ऐसा लगता मानो मेरी ज़िंदगी उधड़ रही हो. पर फिर से बुनी भी जा सकती थी.
एक तरफ़ हमारी माटी इतनी गीली थी कि उन्हें छू देने भर से उनका स्वरूप बदल जाता था. तभी तो सुरेखा आज एक मल्टीनैशनल कंपनी की सीईओ, रेणु देना बैंक की चेयरमैन और दूसरी तरफ़ सब अपने अनुभव में इतनी पकी हैं कि ये ना केवल सक्सेजफ़ुल स्त्रियों की कहानी का हिस्सा हैं बल्कि अभी भी अपने बचपने को ख़ुद में समाए हुए हैं. वहीं माला, नीता और पुष्पा भी है जिनमें स्त्री की इच्छाओं के ऐसे असंख्य बीज हैं जो मिट्टी, खाद-पानी को तलाशते तलाशते, अंकुरित होने की चाह में, ऐसे मोतियों में बदल गए हैं जो चमक तो सकते हैं लेकिन अंकुरित नहीं हो सकते. अंकुरित नहीं हो सकने से मेरा तात्पर्य है कि वे सिर्फ़ बीबी, मां और बहू बन कर रह गई हैं, जबकि वो भी जीवन में अपना मुकाम बनाना चाहती थीं.
इन पुराने बचपन के मित्रों का साथ, चाहे वो फ़ोन पर क्यों ना हो, मुझे अपने भीतर खींचकर अपने से बाहर निकलने का रास्ता भुला देने वाले लम्हों की पुनरावृत्ति है.
..इनके बारे में बताने, इन्हें खोलने, समझाने के लिए इनपर लिखने से ज़्यादा इनकी उंगली पकड़कर इनके साथ चलने, हंसने, रोने, सुबकने, थककर इनके कांधे पे सिर रखकर सोने और किसी साझा सपने में उतर जाने की ज़रूरत है..
जहां अतीत में लौटकर यथार्थ को थोड़ा उल्टा-पल्टा जा सके..
..जो छूट गया है वो सिरा फिर से पकड़ा जा सके..
…जो जीने से रह गया, उसे फिर से जिया जा सके…
ऐसा ही अक्सर होता है जब हम सब बचपन की सहेलियां आपस में मिलती हैं या व्हाट्सऐप पर जब हमारी कांफ्रेंस कॉल होती है. हमारे व्हाट्सऐप ग्रुप का नाम रखा है ‘तितलियां’. जिस तरह झुंड में जब तितलियां उड़ती हैं तो उनके पंखों की झंकार चारों तरफ़ फैल जाती है. ठीक उसी तरह जब हम बातें करते हैं तो मेरी बेटियां भी पहचान जाती हैं कि मैं किस उपवन की सैर कर रही हूं? कमरे में झांक कर भी ‘सॉरी सॉरी’ कहते हुए सब निकल जाते हैं.
आज भले ही मैं एक लड़कियों के जूनियर कॉलेज की स्ट्रिक्ट प्रिंसिपल हूं, लेकिन अन्दर मौक़ा मिले तो वही तितली. हमारी सबकी ज़िंदगियों में बहुत कुछ बदला लेकिन नहीं बदला तो हमारे बचपन का वो उपवन. हमने आपस में कभी अपना वर्तमान नहीं डिस्कस किया, हमेशा हम बचपन को ही जीते रहे.
एक बार हम सभी तितलियों ने बचपन को फिर से जीने का मन बनाया और सब एक साथ पहुंच गए मायानगरी, जहां हम सबके सपने बसे हुए थे. किसी के सपनों में विनोद खन्ना तो कोई मार्क ज़ुबेर को मन में बसाए हुए था. हमारा बचपन का सात लोगों का ग्रुप जिसमें माला, नीता, पुष्पा, रेणु, सुरेखा, अरुणा और मैं उषा थे, पहुंच गए बंबई नगरिया. इसमें सबने अपने सालों की बचत का उपयोग किया था, इससे सब ताज होटल में ही पांच दिनों का पैकेज ले ठहरे.
घुसते ही मेन डोर पर हम सब ऋषि कपूर और उसकी पत्नी नीतू कपूर से टकराए. रविवार का दिन था और पूरी कपूर फ़ैमिली वहां सुबह के नाश्ते के लिए आई थी. उसके बाद सबने कमरे में पहुंचते ही हमारे समय की बॉबी पिक्चर के गाने कोरस में गाए.
दूसरे दिन एक सेवन सीटर बुक कर सबके सब मुंबई दर्शन को निकल पड़े. हमारा मेन मुद्दा था सारे हीरो-हीरोइन के घर के पास से गुज़रा जाए, क्या पता कौन दिख जाए? हाय री क़िस्मत किसी के भी दीदारे यार नहीं हुए. ड्राइवर ने समझाया,‘आप लोग बहुत अच्छी जगह ठहरे हैं. वहीं आपको कोई कभी भी मिल सकता है.’
सिद्धि विनायक तक पहुंचे तो हर तरह से रास्ता बंद था. पूछने पर पता चला कि बिग बी पूरी फ़ैमिली के साथ दर्शन को आए हैं. इसलिए सब तरफ़ से बेरीकेडिंग की गई है. सबका मन खिन्न हो गया और एक बड़ा डिसीज़न सबने मिल कर लिया. हम तो यहां बचपन जीने आए हैं ना कि इस तरह हर्ट होने! भाड़ में जाए बच्चन और हेमा. हम किसी से कम हैं क्या? अचानक से रेणु ने मुझे छेड़ा और कहा,‘चलो सायरा बानो के मामा की लड़की से ही काम चला लेते हैं.’
एक साथ इतने ठहाके टकराए कि वहां सिद्धि विनायक की लाइन में खड़े सभी हमें देखने लगे. रेणु फिर चिल्लायी,‘अरे जीजू दिलीप साहेब नहीं रहे तो क्या हुआ. सायरा दी तो हैं, उन्हीं को हैलो बोल आते हैं.’ बाप रे बचपन भी कितना सरल होता है, उषा और सायरा बहनें, ऐसा झूठ बोलने में ज़बान नहीं कांपती है. बचपन से मैं ज़िद्दी और मैं जीतूंगी वाला एटीट्यूड लिए हुई थी, जैसे आज प्रिंसिपल बन घर बाहर और स्कूल में अपना वर्चस्व बनाए हुए हूं. ये शायद कक्षा चार का वाक़या है. सब सहेलियों में होड़ लगी कि कौन किस फ़िल्म स्टार को कितने अच्छे से जानता है. किसी ने बताया भोपाल में उसकी मौसी जया भादुड़ी की क्लासमेट है और उसने जया मौसी से कई बार बातें भी की है. किसी के मामा रामानन्द सागर के पड़ोसी थे और दीपिका यानी उन दिनों की सीता से अक्सर उन लोगों का मिलना होता था. किसी के चाचा तो कई बार माला सिन्हा से टकराते थे. अब मैं तितली कैसे ना अपने पंख फड़फड़ाती? मैंने बिना सोचे-समझे लंबी छलांग मारी,‘सायरा बानो तो मेरी बड़ी बुआ की बेटी है.’
सबके मुंह खुले के खुले रह गए. पता तो था सभी को कि ये सरासर झूठ है पर सिद्ध कैसे करें? मैं तो बड़ी कॉन्फ़िडेंट थी. सब ने मन ही मन मेरी हंसी उड़ाई. उसके बाद तो जब भी मैं क्लास में घुसती सारी लड़कियां कोरस में फुसफुसाती-दो चोटी वाली दिलीप कुमार की साली. ये परेशानी तो मैंने ही अपने लिए बुलाई थी, सो किसी से इसका ज़िक्र भी नहीं कर सकती थी. घर पर बताती तो उल्टे मेरी ही ठुकाई होती इतना बड़ा झूठ बोलने के लिए. दिमाग़ में कितनी खुरफ़ाते चलती रही फिर अचानक एक शैतान आईडिया आया.
बड़ी बुआ की शक्ल सूरत भी सायरा बानो से काफ़ी मिलती थी. बस बिना घर में किसी से भी पूछे प्यारी बुआ को एक चिट्ठी लिखी जो इस प्रकार थी
प्यारी बुआ, सादर प्रणाम.
कुशलोपरांत. आपकी कुशलादि की कामना ईश्वर से सदैव नेक करती हूं. बुआ आपकी बहुत याद आ रही हैं.
मेरी परीक्षा भी पास है. आप आएंगी तो मुझे बहुत मानसिक शांति मिलेगी.
सोने की चांदी में हीरे चमकते हैं.
बुआ तेरी याद में आंसू टपकते हैं.
आपकी अपनी
पप्पी
पप्पी सब मुझे प्यार से बुलाते थे. मेरे इस झूठे प्यार को सच्चा मान बेचारी बुआ …तुरंत बस पकड़ हमारे घर के लिए निकल पड़ी. बुआ और पापा का कोई विशेष लगाव ना था. पापा से बड़ी होने से वो अम्मा पर बड़ा रौब झाड़ती थी. इससे हमारे यहां उनका आना यदा-कदा ही होता था. अम्मा भी टीचर थी इसलिए घर पर कभी अनचाहे मेहमानों की कोई जगह नहीं थी. बुआ को घर पर देख मेरे सिवाय सबके चेहरे उतर गए. मैं बुआ से लिपट कर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी. मेरा नाटक देख सबके मुंह खुले के खुले रह गए. बुआ ने पापा से कहा मैं अपने भाई नहीं भतीजी से मिलने आई हूं. इम्तिहान पास होने से बड़ी परेशान है वो.
अम्मा ने गुस्से से मेरे चेहरे पर नज़र डाली और रसोई में चली गई. मैं और बुआ भी पीछे-पीछे रसोई में गए और हमने अम्मा के हाथ से हंसिया और सब्ज़ी छीन ली. उन दिनों ज़मीन पर बैठ हंसिए से सब्जी काटते थे. उसके बाद मैंने और बुआ ने मिलकर रोटी भी लगभग बना ली. पहली बार बुआ घर पर अनचाहे मेहमान से मोस्ट वांटेड गेस्ट बन गईं. पापा ने भी रात को खाते वक़्त बुआ से कहा,‘आते रहा करो जिज्जी बच्चों का मन भी लगा रहता है. देखो पप्पी की अम्मा, जीजी के हाथ की रोटी! मुंह में डालते ही घुल जा रही है. बरसों हो गए
तुम्हारे हाथ की रोटी खाए..’
अम्मा ने एक पैनी नज़र पापा पर डाली. लेकिन पापा तो जीजी, जीजी किए जा रहे थे. बुआ ने पढ़ाई में भी मेरी मदद की. कुल मिला घर का वातावरण काफ़ी ख़ुशनुमा हो गया था. अब बारी थी मेरी साज़िश को अंजाम देने की, जिसके लिए मैंने बुआ को बुलाया था. ठीक अपने प्लान के मुताबिक मैं एक शाम को रोते हुए घर आई. अपनी प्यारी भतीजी को रोता देख बुआ का दिल पसीज गया. उन्होंने मुझे यानी अपनी पप्पी को गले लगाया और पूछा,‘अच्छे बच्चे नहीं रोते बताओ क्या हुआ है?’
बुआ के इतने पूछने पर मैं चिल्ला चिल्ला कर रोने लगी. पता नहीं आज भी अपनी उस अदाकारी पर आश्चर्य होता है कि कैसे मैं इतना रो पाई वो भी नाटक में. मैंने रोते-रोते उन्हें बताया,‘क्लास में लड़कियां मेरी हंसी उड़ाती हैं और मुझे दिलीप कुमार की साली कह पुकारती हैं.’
बुआ ने पूछा,‘कौन दिलीप कुमार?’
मेरा जवाब था,‘सायरा दीदी का पति.’
बुआ ने अपनी भवें तरेरते हुए पूछा,‘सायरा दी..दी. ये कौन है?’
मैंने कमरा पहले से बंद कर लिया, फिर भी धीरे से उनके कान में कहा,‘मैंने ही एक बार ताव ताव में अपनी दोस्तों से कहा था कि सायरा बानो मेरी बुआ की बेटी है.
बुआ बड़ी ज़ोर से चिल्लाई,‘राम राम तुम भी ना! मैं ही मिली थी. तुम्हारे मौसी मामा मर गए थे क्या? अब जा कर कह दो मज़ाक़ किया है.’
मैं और ज़ोर से रोने लगी और मैंने कहा,‘ना अब मेरी इज़्ज़त का सवाल है. आपको मेरी सहेलियों से कहना पड़ेगा कि सायरा बानो आपकी बेटी है. उसका चेहरा भी आपसे बहुत मिलता है.’
चेहरा सायरा बानो से मिलता है सुन, बुआ ने बड़े नज़ाकत से अपने बाल पीछे किए. लेकिन दूसरी बात ने उनके कान खड़े कर दिए. उन्हें उस पत्र का अर्थ भी समझ आ गया था. लेकिन अपनी पप्पी से वे निशर्त प्यार करती थीं. जिसे वे सच्चा प्यार समझे बैठी थी उसमें कितना स्वार्थ था. उन्होंने थोड़ा सोचा और कहा,‘ठीक है. बुलाओ अपने दोस्तों को कल शाम घर पर.’
मेरा तो दिल बल्लियों उछलने लगा. शाम को सभी सखियां मेरे घर आयीं. अम्मा से सब डरती थीं क्योंकि अम्मा उसी स्कूल में टीचर जो थीं. मैं चुपचाप बुआ को बाहर ले कर आई. बुआ भी अदाकारा कम नहीं थीं. उन्होंने मेरी सहेलियों को डॉट लगाई,‘तुम सब उषा को क्यों चिढ़ाती हो?’
सारी सहेलियां कोरस में चिल्लाईं,‘ये कहती है सायरा बानो आपकी बेटी है.’
बुआ ने तड़ाक से जवाब दिया,‘हां है हमारी बेटी. आप लोगों की क्या परेशानी है?’
रेणु ही थी जो मुझसे हमेशा कम्पटीशन करती थी, उसने बुआ से कहा,‘ऐसे कैसे? आप हिंदू वो मुस्लिम!’
बुआ ने भी कमाल का दिमाग़ पाया था. तुरंत जवाब भी दिया,‘हम लोग पुराने विचारों के हैं. हमारे यहां फ़िल्म लाइन वालों को अच्छा नहीं समझते. उषा ने बताया ही होगा तुम्हारे फूफ़ाजी बहुत पहले चल बसे. हमने अपनी बिटिया से कहा तुम फ़िल्म लाइन में जा तो रही हो लेकिन अब हमारा तुम्हारा आगे कोई संबंध नहीं रहेगा. और हां नाम भी ऐसा बदलो कि किसी को कभी शक़ भी ना हो कि तुम हमारी औलाद हो.’ फिर धीरे से अपनी ज़ुल्फ़े पीछे करते हुए बुआ ने कहा,‘बस शक्ल का मसला है उसका हम क्या करें?’
इतना कह बुआ अंदर चली गईं और सहेलियां अपने घर.
ये तो तितली के कल्पनाओं की एक उड़ान थी. ऐसी कई कल्पनाओं से हमारा बचपन भरा था. सपने सबके रंग-बिरंगे थे और कई बार तो धारावाहिक की तरह कई दिनों तक चलते थे.
उस दिन फिर सबने अपनी दिलीप कुमार की साली यानी मेरी ख़ूब हंसी उड़ाई और बाक़ी दिन भी पलक झपकते बचपन की यादों के सहारे बीत गए. सारी तितलियां यानी हम सब सहेलियां तरोताजा हो अपने-अपने उपवन में लौट आईं. अब तो बस सबको इंतज़ार है अगली गेटटुगेदर का.
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