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Home ज़रूर पढ़ें

आंखें: डॉ संगीता झा की कहानी

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
October 21, 2023
in ज़रूर पढ़ें, नई कहानियां, बुक क्लब
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Dr-Sangeeta-Jha_kahani
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जो बातें ज़ुबां नहीं कहती, वो आंखें कह जाती है. और जब हमारी आंखों का पानी मर जाता है तो हमसे उम्मीद रखनेवाली आंखें सूनी हो जाती हैं. आंखों के ज़रिए बढ़ने वाली यह कहानी आपकी आंखों को नम कर जाएगी. डॉ संगीता झा की एक और दिल छू लेनेवाली कहानी पढ़िए.

दरवाज़े पर किसी ने कॉलबेल दवाई. महरी ने दरवाज़ा खोला और तुरंत दौड़ कर मेरे पास आई,“दीदी ऑटोवाला आया है, आपसे मिलना चाहता है. आपको बुलाने का कह रहा है.’’
मैंने बड़ी ज़ोर से ग़ुस्साते हुए कहा,“बड़ा आया लाड साहेब! मुझसे क्यों मिलना? जा कह दे मैं सोई हुई हूं.’’
महरी दो मिनट मुंह खोल मुझे देखते रही. जिस ऑटो वाले को पति और बच्चे मेरा लख़्ते जिगर यानी दिल के क़रीब कह पुकारते हैं. साथ ही वो महरी, धोबी और दूसरे काम वालों के लिए ईर्ष्या का कारण बना रहता है कि कैसे उसने मेरे दिल में इतनी जगह बना ली, के लिए मेरी इतनी बेरुख़ी. अमूमन मैं इतनी रूखी नहीं रहती हूं अपने लिए काम करने वालों से, इसलिए महरी भी आश्चर्यचकित थी. महरी ने बाहर जाकर नरेश यानी ऑटोवाले से कहा,“मेमसाब सो रही हैं.” नरेश परेशान हो जाता है, क्योंकि वो मेरी दिनचर्या से बड़ी अच्छी तरह वाक़िफ़ है.
बेचारा पूछता है,“अरे क्या हुआ मैडम की तबीयत तो ठीक है ना? ये उनके सोने का तो समय तो है नहीं, कोई बात नहीं, मैं बाद में आ जाऊंगा.”
उसके लहजे में मुझे लेकर परेशानी झलक रही थी. मुझे समझ आ रहा था, क्योंकि मैं उसकी आवाज़ सुन पा रही थी. लेकिन मैं तो उस दिन एक दूसरी ही दुनिया में मग्न थी. महरी को भी मेरा व्यवहार समझ नहीं आ रहा था. एक घंटे बाद फिर कॉल बेल बजी और इस बार मैंने दरवाज़ा खोला पाया फिर वही ऑटोवाला. मैंने बड़ी तल्ख़ी से पूछा,“क्या है, जल्दी बोलो!”
ऑटो वाले की चमकती आंखों का रंग बदलने लगा. उन आंखों की तो मैं दीवानी थी, लेकिन आज मुझ पर कोई असर नहीं हो रहा था. मेरी बेरुख़ी देख उसकी आंखें शहीद होते बकरे की तरह मिमियाने लगी और उसने धीरे से अपनी आंखों में बेचारगी लाते हुये गुज़ारिश की,“मैडम थोड़े पैसे चाहिए.”
मैंने हिन्दी फ़िल्म के लाला की तरह गुर्राते हुए पूछा,“क्यों और कितने?”
उसकी आंखों में एक अलग-सा अविश्वसनीय डर झलकने लगा और मेमने की तरह मिमियाते हुए उसने कहा,“दस हज़ार.’’
मेरे अन्दर एक भेड़िए ने जन्म लिया और मैंने अपनी आवाज़ का सारा वज़न दस पर डालते हुए जवाब दिया,“दस्स हज़ार! पैसे मेरे यहां क्या दरख़्तों में लगते हैं?”
मेरे मुंह से उर्दू का शब्द दरख़्त सुनते ही फिर उसकी आंखों में हरक़त हुई. उसकी ज़रूरत बहुत ज़्यादा उसके लिए मायने रखती थी. उसने अपनी मायूस आंखों के साथ धीरे-धीरे बोलना शुरू किया,“बेटी के दसवीं में छियानबे प्रतिशत नंबर आए हैं. ग्यारहवीं में एडमिशन दिलाना है. फ़ीस तो उन लोगों ने उसके नंबर देख माफ़ कर दी है. अभी तक का सारा सफ़र आपने ही करवाया है. ये रुपए तो किताबों ड्रेस और जूतों के लिए हैं. दे दीजिए मैडम, महीने महीने पिंकी बिटिया के ऑटो के किराए में काट लीजिएगा.’’
मैंने अपनी ज़बान में और सख़्ती लाते हुए कहा,“कह दिया ना नहीं दे सकती, हमारे भी बच्चे हैं उनकी भी फ़ीस देनी है.’’ इतना बड़ा झूठ बोलते हुए ना मेरी ज़बान कांपी ना आंखों में कोई शर्म का पानी आया मेरा ये रूप देख उसकी आंखें मुरझा-सी गईं, लेकिन मेरा झूठा ग़रूर टस से मस ना हुआ. उसके मुंह पर ही मैंने दरवाज़ा बंद कर दिया. ऐसा पहली बार हुआ था कि मैंने किसी मुलाजिम वो भी जो मुझे बहुत प्यारा था, को इस तरह दुत्कारा था. यही ऑटो वाला था जिसके लिए अक्सर मैं अपने ही घर में कलह मचाया करती थी. पहली बार उसके लिए ऑटो ले पूरे परिवार की कश्मीर ट्रिप का प्लान चूर-चूर कर दिया था. तब हमारे पास ज़्यादा पैसे भी नहीं हुआ करते थे. कभी उसकी बेटी की सालाना फ़ीस देने के किए पति के नाइकी के हाई एंड जूतों का सपना धराशाई, तो उसकी दिवाली के लिए बेटी का पूरा बार्बी सेट लेने का सपना तोड़ा था. ऐसे अनगिनत क़िस्से थे जिससे मेरे परिवार का दिल दुखा था. एक बार तो मेरे बेटे के गेम बॉय के लिए जोड़े गए पैसों से उसके बच्चों की स्कूल ड्रेस ले दी थी.
यह ऑटो ड्राइवर नरेश मेरे जीवन में अपनी आंखों की वाचालता की वजह से आया था. तब बेटी पिंकी लोअर केजी में थी. मैं उसके स्कूल के सामने खड़े हो उसके लिए स्कूल लाने ले जानेवाले ऑटो खोज रही थी. अचानक एक ऑटो वाला रिवर्स मार मेरे सामने आ अपना ऑटो रोक दिया,“मैम कहां जाना है?”
उसका मुंह ही नहीं उसकी आंखें भी वही पूछ रही थीं. मैं एकटक उन बोलती आंखों को देखती रही. मुझे एकटक घूरते देख बेचारा घबरा-सा गया और फिर उसकी पूछती आंखों में घबराहट के भाव देख मुझे भी हंसी आ गई. मैंने हंसते हुए उसे घर का पता बताते हुए चलने को कहा और ऑटो में बैठ गई. सारे रास्ते वो गुनगुनाता रहा. मैं सोच रही थी है, ऑटो वाला, घर पर बीबी बच्चे भी होंगे, उसके बाद भी इतने बेफ़िक्र आंखों में इतनी कशिश. मैंने भी उससे बल्कि कहिए उसकी आंखों से बात करना शुरू कर दिया,“ऑटो कितने सालों से चलाते हो?’’
उसका जवाब,“मेम साब दो सालों से. इसके पहले एक मैडम का ड्राइवर था. निकाल दिया तो सोचा एक ऑटो हो तो अपने मन का मालिक हो जाऊंगा. बस फिर दोस्तों ने मिलजुल कर किराए के इस ऑटो का इंतज़ाम किया, तब से ज़िंदगी की गाड़ी ऐसे ही चले जा रही है.’’
इतना ही नहीं उसने मुझसे बराक ओबामा की प्रेडिंशियल फ़ंक्शनिंग, बिट कॉइन प्लेन क्रैश यानी टू थाउजेंड नाइन में घट रही सारी घटनाओं के बारे में विस्तार से बात की. मैं तो पता नहीं क्यों उसकी आंखों में इतनी खोई कि समय कैसे बीता पता ही ना चला, जबकि मैं पीछे बैठी थी और वो बार-बार पीछे मेरी तरफ़ देख कर बातें कर रहा था. और कोई ऑटो वाला होता तो शायद मैं चिल्लाती कि सामने देखो नहीं तो एक्सीडेंट हो जाएगा. लेकिन मैं तो सम्मोहक आंखों की दीवानी हो गई थी, इससे बस उसे सुनती जा रही थी. जैसे ही घर आया मेरे मुंह से बरबस निकल पड़ा,“ मेरे बेटी को रोज़ स्कूल छोड़ोगे? मैं तुम्हें ऑटो ख़रीद कर दूंगी.’’
ख़ुद को भी आश्चर्य हुआ अपने इस निर्णय पर, लेकिन पछतावा कभी नहीं हुआ. घर पर कलह और भूचाल मचा मैंने उस ज़माने में ऑटो ख़रीद दिया. मेरी किस्त चुकाते-चुकाते बिटिया मेरी एलकेजी से क्लास नाइनथ में पहुंच गई. ये ऑटो वाले नरेश अंकल उसके फ़ेवरेट अंकल बन गए. हर दिन उसकी स्कूल की घटनाओं में ऑटो वाले अंकल ज़रूर रहते थे. कभी बताती आज अंकल की कमाई अच्छी हुई तो उन्होंने हमें आइसक्रीम खिलाई. तो कभी आज अंकल ने हमें स्कूल ग्राउंड में बास्केट बॉल खिलाया. ऑटो में जाने-वाले सारे बच्चे अंकल के दीवाने थे और वो मेरा. हर दिवाली में उसके दोनों बच्चे मेरे ही यहां आकर आतिशबाजी का आनंद उठाते थे. उन चारों के नए कपड़े मेरी ज़िम्मेदारी हुआ करती थी. स्कूल खुलते ही उसके बच्चों की फ़ीस, कपड़े, जूते और किताबें मेरी ही ज़िम्मेदारी थी. अपने बच्चों से ज़्यादा उसके बच्चों के रिज़ल्ट मुझे ख़ुश किया करते थे. इस सारी प्रक्रिया में ऑटो वाले की आंखों की याचना, धन्यवाद और ख़ुशी मेरा दिल जीत ले लेते थे. ऐसा नहीं कि केवल ये ऑटो वाला बल्कि मैं बाक़ी काम करने वालों का भी बहुत ध्यान रखती.
उस दिन मेरा ऑटो वाले को इतनी क्रूरता से मना करना घर पर सबको अखर गया. कुछ पलों के लिए तो मानो मातम सा पसर गया. मुझे ऑटोवाले की चमची कहने वाले बेटा भी मेरे साथ नहीं था. पति ने समझाया,“अरे दस हज़ार क्या है? समझो एक अच्छी साड़ी ले ली. इतनी भी निर्दय ना बनो, तुम्हारे सिवाय उसका है ही कौन?”
मुझ पर तो कुछ दूसरी ही खुमारी छाई हुई थी, मैं झल्लाई,“आप तो कुछ ना बोलें तो अच्छा है. अपने काम से काम रखें.’’ पति भी चुप हो गए लेकिन उन्हें भी मेरे इस एटीट्यूड से बड़ा आश्चर्य हुआ.
अभी-अभी पति का प्रमोशन हुआ था और पति अपनी कंपनी के सीईओ बन गए थे और मैं मैडम सीईओ. पति के प्रमोशन के बाद बाक़ी दूसरी कंपनियों के सीईओ की पत्नियों से मेरी एक किटी पार्टी में मुलाक़ात हुई. वहां मिसेज़ खन्ना ने मुझे एक पते की और बहुत ही महत्वपूर्ण बात समझाई. मिसेज़ खन्ना ने कहा,“तुम भी ना दिन भर महरी, माली, धोबी और तो और ऑटो वाला करती रहती हो. पता भी है तुम्हें हम आज जहां भी हैं, अपने पूर्व जन्म के कर्मों की वजह से हैं. इनके पूर्व जन्म के पापों की वजह से ही ये सारे भोग रहे हैं. यू कैन नॉट चेंज देयर प्रारब्ध, डोंट डेयर टू चेंज. ये तो प्रभु की मर्ज़ी है, इन्हें भोगने दो.’’
मिसेज़ खन्ना की इस बात को मैंने पूरी तरह से आत्मसात कर लिया और तुरंत ख़ुद को अपने सभी मुलाज़िमों की ज़िंदगी से काट लिया, जिसकी शुरुआत मैंने ऑटो वाले का दिल तोड़ कर की.
उसके बाद मैं पूरे दिन अपने पूर्व जन्म के कर्मों का आनंद उठाया इठल-इठला कर. घर में सब मुझे आश्चर्य से ज़्यादा घृणा की नज़र से देख रहे थे, लेकिन मुझ पर तो पूर्व जन्म के करमों की खुमारी छाई हुई थी. मेरा दिल कह रहा था कि पति का प्रमोशन भी मेरे ही पूर्व जन्म के करमों का फ़ल है.
अगले दिन की शुरुआत बड़ी झुंझलाहट से हुई. बेटी चिल्लाते हुए मेरे कमरे में आई,“मम्मा ऑटो अंकल नहीं आए. मैं लेट हो रही हूं.’’
मैंने अपने चेहरे पर कोई भाव ना लाते हुए कहा,“नो प्रॉब्लम पापा की कंपनी का प्राइवेट ड्राइवर आ जाएगा.’’
बेटी दुगनी ताक़त से चिल्लाई,“उसके आते तक स्कूल का गेट बंद हो जाएगा. मेरा आज इंग्लिश क्लास टेस्ट है.’’
मैंने अपनी आवाज़ में मधुरता लाते हुए कहा,“अरे डैड किसलिए हैं, छोड़ देंगे नहीं तो मैं हूं ना.’’
बेटी लगभग चीखते हुए बोली,‘‘आप! रहने ही दें, मैं पैदल ही पहुंच जाऊंगी.’’
हमारे इस झगड़े ने पति और बेटे की नींद खोल दी. पति बेचारे बिना ब्रश किए नाईट सूट में ही बेटी को कार में छोड़ने चले गए.
इस वाक़ये से भी मेरे अभिमान में कोई कमी नहीं आई. मैंने सुबह आते से ही कंपनी के ड्राइवर से कहा,“कल से तुम साढ़े छः बजे आना. बिटिया को स्कूल जाना होता है.’’
वो भी हाज़िर जवाब था, उसने कहा,“वो मेरा काम नहीं है मेमसाब. मेरी ड्यूटी तो नौ से पांच है. सुबह मैं अपने बच्चों को छोड़ने जाता हूं.’’
मुझे तो जैसे काटो तो ख़ून नहीं ,अब करूं तो क्या करूं? पति चिल्लाएंगे सो अलग.
घर पर काम करने वाली महरी, जिस पर मेरे कई उपकार थे, मसलन घर बनाने में पैसों की मदद, मेरी मदद के लिए आई, वो कहने लगी,“मेमसाब मेरा मरद एक जगह ड्राइवर का ही तो काम करता है. उसका टाइम भी नौ से पांच है, वो बेबी को सुबह अपनी स्कूटर से छोड़ देगा. फिर तीन बजे वापस आपका कंपनी का ड्राइवर ले आएगा.’’
मैं आवाक! हतप्रथ मेरी बेटी स्कूटर में स्कूल! बाप रे वो मानेगी भी या नहीं. ख़ैर मैंने कौन-सा ऑटो वाले को नौकरी से निकाला है? आज नहीं आया तो क्या, कल आ जाएगा. बिटिया को वापस लाने मैं कंपनी के ड्राइवर के साथ गई. रास्ते में उस ड्राइवर ने भी पूछा,“मेम साब आपका ऑटो वाला नहीं आया? आप की दरियादिली की चर्चा सभी जगह है. मेरे पुराने साहेब ने भी बताया था कि उसका ऑटो भी आपने ही दिलवाया था. उसके बच्चों की पढ़ाई की फ़ीस भी आप ही देती हैं. मेरे भी दो बच्चे हैं. आपसे मिलवाने ले कर आऊंगा.’’
मैं चुप ही रही, क्योंकि उसका सुबह का जवाब मुझे अच्छी तरह याद था. घर आने के बाद भी बिटिया अनमनी सी रही. उसके बाद यही सिलसिला पांच दिनों तक रहा. रोज़ सुबह झल्लाते हुए पति छोड़ने जाते और आते वक़्त कंपनी का ड्राइवर. ऑटो में साथ आने वाले बच्चों के पैरेंट्स के फ़ोन भी मुझे आते रहे, क्योंकि ऑटो वाले का फ़ोन स्विचऑफ़ आ रहा था.
मेरा भी पूर्व जन्म के करमों का भूत उतर रहा था. मैंने भी कई बार फ़ोन लगाया, लेकिन हर बार निराशा ही हाथ लगी. मेरे ऊपर चढ़े घमंड ने अपना चोला उतार दिया. मन में ख़्याल आया कि अगर पूर्व जन्म के करमों की वजह से मेरा जीवन इतना सुखमय है तो मैं इस जन्म में क्यों अपने करमों को ख़राब कर रही हूं. और वो भी उस व्यक्ति जिसकी आंखों की मैं दीवानी हूं. मेरे ना करने के बाद किसी ने उसे देखा ही नहीं. रोज़ बेटी मुझ पर झल्लाती कि मैंने उसके ऑटो अंकल का दिल क्यों दुखाया.
छठवें दिन मैं बिटिया के स्कूल गई और वहां आने वाले सारे ऑटो वालों से बात की, लेकिन किसी को भी उसके बारे में कुछ मालूम नहीं था. सभी मुझे आश्चर्य से देख रहे थे कि मैं उनसे उसके बारे में पूछ रही हूं. सारे ऑटो वाले मुझे एक देवी की तरह जानते थे, जो ग़रीबों के लिए कुछ भी कर सकती थी.
उनमें से एक ऑटो वाले को उसका घर मालूम था, उससे मैंने उसका पता लिया. घर में सन्नाटा था, क्योंकि वो मेरा नहीं सबका चहेता था. सबसे पहले मेरे घर आता, पेड़ों में पानी डालता, महरी के हाथ की चाय पीता, उसके बाद बिटिया को ले जाता. कई बार बेटे के साथ क्रिकेट या बैडमिंटन खेलता.
अगले दिन बिटिया के जाते ही मैं ऑटो ले उसी जगह पहुंच गई. कितना फ़र्क़ था मेरे ऑटो वाले और इस ऑटो वाले में. मुझे देखते ही इस ऑटो वाले ने बड़े ही सख़्त लहजे में पूछा,“कहां जाना है?”
मुझे ठीक से पता नहीं मालूम था इससे मेरे मल्लपल्ली बोलते ही उसने लगभग मुझे डांटते हुए कहा,“सुबह-सुबह ही बोहनी खोटी मत करो. इतना बड़ा मल्लपल्ली है वहां कहां?”
तभी मुझे याद आया, नरेश ने मुझे बताया था कि उसका घर एक मीनार की मस्जिद के पास है. मैं ज़ोर से बच्चों की तरह चिल्लाई,“एक मीनार मस्जिद के पास.’’
इस ऑटो वाले ने झल्लाते हुए कहा,“ठीक है बैठो , इतना चिल्लाने की ज़रूरत नहीं है. बहरा समझा है क्या?”
मैं तो अवाक् रह गई. जब से नरेश मेरी ज़िंदगी में आया था कभी किसी ऑटो में बैठी ही नहीं. तभी आजकल सभी कहते हैं कि बाप रे! भगवान बचाए इन ऑटो वालों से. ज़बरदस्ती मीटर घुमा-घुमा कर पैसा वसूल करते हैं. मन ही मन सोचा किसी तरह मल्लपल्ली पहुंच जाऊं. अभी सोच ही रही थी कि ज़ोर की कर्कश आवाज़,“कहां देख रही हो? सामने है मल्लपल्ली एक मीनार मस्जिद.’’
मैंने भी ग़ुस्सा दिखाते हुए कहा,“ठीक है उतर रही हूं. चिल्ला क्यों रहे हो?”
उसने फिर उसी ऐंठन में जवाब दिया,“तुम्हारे से तुम्हारी भाषा में बात कर रहा हूं. ज़्यादा भाव नहीं दिखाने का, पैसे दो और अपने रास्ते जाओ.’’
मैं भी उलझने के मूड में नहीं थी. उसे एक सौ पचास के बदले दो सौ का नोट दिए, बाक़ी पैसे लिए बिना आगे बढ़ गई. वो ऑटो वाला फिर चिल्लाया,“बाक़ी पैसे तो लेते जाओ.”
बिना उसकी ओर ध्यान दिए सीधे एक मीनार मस्जिद के सामने खड़ी हो गई. आने-जाने वाले मुझे घूर-घूर कर देख रहे थे क्योंकि आमतौर पर मस्जिद में औरतें नहीं जाती हैं. तभी मस्जिद आते हुए मुझे अब्दुल ऑटो वाला मिल गया. उसने भी अपने दोस्त नरेश को पांच दिनों से देखा नहीं था. उसे मेरे और नरेश के बीच घटे वाक़ये का कोई अंदाज़ा ना था. इससे मुझे नरेश का घर ढूंढ़ते देख वो ख़ुशी से खिल उठा और कहने लगा,“आपके जैसी ख़ातून तो सिर्फ़ जन्नत में सुनी है. ख़ुदा आपके जैसा दिल सबको दे. ऑटो वाला पांच दिन नहीं आया तो आप उससे मिलने आ गईं. अल्लाह आपको अच्छी सेहत दे.’’
उसने मुझे नरेश की गली तक पहुंचा दिया और ख़ुदा हाफ़िज कहता हुआ निकल गया, उसकी सवारी का टाइम जो था. नरेश की गली के सामने ही एक पान ठेले की बेंच पर एक मैला कुचैला, दाढ़ी बढ़ा, पहचाना-सा चेहरा दिखा. वो लगातार नीचे देख रहा था. एक पल को लगा ये तो नरेश है. मैंने आवाज़ लगाई,‘‘नरेश,’’ लेकिन वहां से कोई जवाब नहीं था.
हे, प्रभु मैंने क्या कर दिया मुझसे बात करने वाली आंखों में मेरी पहचान तक बाक़ी नहीं है. पान ठेले वाले की आंखों में मुझे देख चमक आ गई और वो ख़ुशी के मारे चिल्लाया,“शैला मेमसाब.’’
मैंने आश्चर्य से पूछा,“तुम कैसे मुझे और मेरा नाम जानते हो?”
उसने जो जवाब दिया उससे मैं असमान में अपने पूर्व जन्म के कर्मों पर इठलाने वाली महिला सीधे ज़मीन पर आ गिरी. उसने कहा,“आपको कौन नहीं जानता! काश… दुनिया का हर इंसान आपके जैसा बन जाता. आपने हमारे जिगरी दोस्त को जीना सिखाया है. इसके बच्चे हमारे बच्चों के लिए रोल मॉडल हैं. इसके घर में आपकी तस्वीर लगी है. ये लोग हमारी शैला मेमसाब कहते कहते थकते नहीं हैं. इस बार बस्ती की गणेश पूजा में आपको चीफ़ गेस्ट बुलाने का प्लान है.’’
फिर वो अचानक ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा,“ये पिछले पांच दिनों से यहां ऐसे ही पड़ा है. अपने घर भी नहीं जाता. किसी को कुछ बताता नहीं. इसके घर पर भी इसी तरह का मातम छाया हुआ है. मेरे यार को बचा लीजिए मेम साब. हमको तो कुछ बोलता नहीं, शायद आपको बताओ दे.’’
मुझे तो जैसे काटो तो ख़ून नहीं. पान ठेले वाले ने एक लड़का मेरे साथ कर दिया. नरेश तो टस से मस नहीं हुआ. उसकी आंखें मुझे पहचानने से पूरी तरह इंकार कर रही थीं. उसके घर जब मैं पहुंची तो घर के अन्दर पहली दीवार पर मेरी बड़ी-सी तस्वीर टंगी थी. पास जाने पर पाया ये तो पोट्रेट था. मुझे देख उसकी पत्नी रोते हुए मेरे पैरों पर गिर गई. उसने जो मुझे बताया सुन कर मैं फटी की फटी रह गई. ऑटो वाला कभी मेरे सिवाय किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता था. मेरा दर्जा उसके घर में मां की तरह था. हमेशा सबसे कहता-मैंने अपनी मां को नहीं देखा, लेकिन वो होती तो ज़रूर शैला मेम साब जैसे होती.’’
सामने रखा पोट्रेट भी उसी ने बनाया था. मैं तो शर्म से पानी-पानी हो रही थी. उसके बाद उसकी पत्नी उर्मिला ने जो बात बताई, मेरे तो पैरों के नीचे से मानो ज़मीन ही खिसक गई. मेरे मना करने पर नरेश मायूस हो गया था और उसकी दोनों आंखें लाल और सूजी हुईं थीं. उसने लड़की को साफ़-साफ़ कह दिया कि अब उसकी पढ़ाई बंद. ऐसा कहते-कहते भी रो रहा था और एक ही नाम जपे जा रहा था मेमसाब…उसने घर में किसी से बात ही नहीं की. बस बोलता जाता अब बच्चे भी ऑटो या टैक्सी चलाएंगे. मेम साब में ऐसा क्यों किया…?’’
लेकिन लड़की तो पढ़ाई के लिए कुछ भी कर गुज़रने को तैयार थी. उसने अपने घर के पास रहने वाली लड़की की मदद से एक रात एक अमीर शेख़ के साथ गुज़ारने का प्रस्ताव मान लिया. बदले में वो अमीर शेख़ उसे पंद्रह हज़ार रुपए देता. घर वालों को बिना बताए चुपचाप वो अपनी सहेली के साथ वहां गई ज़रूर लेकिन उसकी बदक़िस्मती और या कहिए ऑटोड्राइवर की बुलंद क़िस्मत से उसी समय वहां पुलिस की रेड पड़ गई. ग़नीमत लड़की की इज़्ज़त बच गई लेकिन ऑटो वाला किसी की मुंह दिखाने के लायक़ ना रहा, क्योंकि बात तो आग की तरह मोहल्ले में फैल गई. इसके बाद उसकी पत्नी ने एक ज़बरदस्त बात कही,“शैला मेमसाब पैसा नहीं है मेरे पति के पास लेकिन इज़्ज़त, स्वाभिमान ऊपर वाले ने ठूंस-ठूंस के दिया है. जब यहां तक पहुंचाने वाली मेमसाब ने साथ छोड़ दिया तो जग से क्या शिकायत.”
मैं तो अपने किए पर शर्म से डूबे जा रही थी. बाप रे इस जन्म में इतना कुकर्म कर अगले जन्म के लिए कोई पुण्य नहीं छोड़ रही थी मैं. मैं तुरंत ऑटो वाले नरेश के पास गई. अभी भी वैसे ही ऊपर शून्य में देख रहा था. मेरे पुकारने पर भी वो शून्य में ही रहा, मुझे देखकर चहकने वाली आंखों में मेरी पहचान भी बाक़ी नहीं थी. मैंने घर वालों को बिना बताए उन सब को अपने घर के आउट हाउस में लाने का निर्णय लिया. जैसे ही दूसरे ऑटो में नरेश का परिवार घर पहुंचा, बिटिया और महरी दोनों चहकने लगे.
बिटिया ने अपने पूरे छः दिनों का अनुभव अपने ऑटो अंकल को बताया लेकिन उसके अंकल तो बुत्त बने बैठे थे मानो लकड़ी के बने हो. पति ने आश्चर्य से पूछा,“माजरा क्या है? कल तक तो दस हज़ार रुपए भी नहीं दे रही थी और आज घर पर ही उठा लाई.”
मैं पहले ही की तरह पति पर चिल्लाई,“आप बीच में ना बोलें.”
बेटा, बेटी और पति तीनों एक-दूसरे को कनखियों से देख मुस्कुराने लगे थे.
उस घटना को पूरे पांच साल बीत गए. नरेश यानी ऑटो वाला पति की कंपनी में ड्राइवर है. उसकी बीवी मुझे घर के कामों में मदद करती है. उसकी बेटी एमएससी कर लड़कियों के स्कूल में पढ़ाने लगी है. बेटे को इस साल इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन दिलाया है. इतना सब कुछ होने के बाद भी ऑटोवाले की आंखों की चमक पूरी तरह से ग़ायब है, उसमें मेरी कोई पहचान बाक़ी नहीं है. मुझे इंतज़ार है उस दिन का जब ये आंखें मुझसे फिर से बातें करेंगी.

Illustration: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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