कहानियां कहां नहीं हैं? आप थोड़ा-सा ध्यान देंगे तो पता चलेगा हर जगह ये कहानियां बिखरी हुई हैं, बस हमारी आंखें ही हैं जो इन्हें देख नहीं पातीं और कई बार शायद हम ही इतनी जल्दी में होते हैं कि देखकर भी इन्हें अनदेखा कर देते हैं. क्या आपने कभी सोचा है हमारे हर दिन में घटी हर चीज़ एक कहानी, क़िस्सा ही तो है, बातें हैं जो हवाओं में जज़्ब हो जाती हैं, ये हवाएं कहीं दूर जाकर वो कहानियां कह देती होंगी और ऐसे लोग जो हमें जानते भी नहीं, वो भी हमारी कहानी सुन लेते होंगे
कई बार अनजाने ही दो लोगों की कहानियां लगभग एक जैसी हो भी सकती हैं, लेकिन मुझे लगता है कि खाना एकमात्र ऐसी चीज़ है जो दो लोगों के हाथ का बना एक जैसा बिल्कुल नहीं हो सकता. कुछ तो फ़र्क़ होगा ही, चाहे तोले भर का हो… पर फ़र्क़ तो होगा ही. और बस यही फ़र्क़ हमें नौस्तेल्जिया देता है, हर इंसान के हाथ के एक स्वाद होता है और यही स्वाद का अंतर किसी खाने को हमारे लिए विशेष बनाता है.
आज हम बात करेंगे अमृतसरी छोले कुलचे की, जो हर उस शहर में, उस देश में आपको मिल जाएगा, जहां भारतीय रहते हैं. यूं देखा जाए तो ये आलू परांठे का ही एक रूप लगता है, पर मिलता-जुलता लगने के बावजूद इनके स्वाद में काफ़ी अंतर है और ये अंतर आलू के मसाले के कारण नहीं है, बल्कि ऊपरी कवर और बनाने के तरीक़े में अंतर के कारण आता है.
अमृतसरी कुलचों को अमृतसरी कुलचा कहा ही इसलिए जाता है, क्योंकि माना जाता है कि इनका जन्म अमृतसर में हुआ और कुलचा नाम होने के बावजूद ये कुलचे और नान का मिश्रण होता है. कुछ लोग इसे कुलचे की जगह नान से प्रेरित भी मानते हैं.
अमृतसरी कुलचे की ख़ासियत ये है कि इसका आटा गूंधते समय सोडा के साथ-साथ ढेर सारा मक्खन भी मैदे/आटे में डाला जाता है और इसे सात परत का बनाया जाता है. कुलचे को हाथ से तोड़ते और खाते समय ये परतें आसानी से देखी जा सकती हैं.और इन कुलचों के अन्दर भरा जाता है पंजाबी मसलों के साथ मिलाए गए आलुओं का भरावन, जिसका स्वाद अमृतसरी छोले और प्याज़ के छल्लों के साथ बेमिसाल होता है!
कहानी कुलचे की: कुलचे खाने में जितने लज़्ज़तदार होते हैं, उनकी कहानी भी उतनी है लच्छेदार है. कुलचा भारत का एकमात्र ऐसा फ़ूडआइटम है, जो किसी राज्य के झंडे पर अपनी जगह बना चुका है और वो राज्य था हैदराबाद. हैदराबाद के भारत में सम्मिलित होने से पहले तक यहां के झंडे पर कुलचा का चिन्ह था, हालांकि ये सादा कुलचा था, पर इसे अमृतसरी कुलचे का पूर्वज तो कहा ही जा सकता है.
यही कुलचा जब अमृतसर पहुंचा तो मसालेदार खाने के शौक़ीन और स्वाद के पक्के अमृतसरियों ने इसे सादा खाने की जगह इसमें आलू का भरावन भर दिया और उसके बनाने के तरीके में कुछ और परिवर्तन भी किए गए इसे कुछ नान की तरह बनाया जाने लगा और यहां आकर कुलचा बन गया-अमृतसरी कुलचा.
अमृतसरी कुलचे के साथ साथ जो छोले खाए जाते हैं वो भी आम छोले से अलग होते हैं. इसमें खड़े मसाले भूनकर तैयार किए गए पंजाबी मसालों का बड़ा सुन्दर तालमेल होता है. साथ ही, खड़े आंवले से लाया हुआ कालापन और खटाई भी इन छोलों की
विशेषता है.
कैसे बनाया जाता है कुलचा: इसकी कई तरह की रेसिपी आपको इन्टरनेट पर मिल जाएगी, पर मुख्य बात यह है कि इसे मैदे में बेकिंग सोडा, बेकिंग पाउडर दही और मक्खन डालकर आटा गूंधा जाता है और फिर बार-बार मक्खन लगाकर सात परतें बनाई जाती हैं. इसकी लोई तोड़कर इसे हाथ से दबाया जाता और भरवान भरकर दबा-दबाकर हाथ से ही बनाया जाता है. वैसे तो इसे हलके हाथ से बेलन से बेल भी सकते हैं, पर हाथ दबाकर बनाए हुए कुलचे का स्वाद और टेक्स्चर अलग ही आता है. इसे तंदूर या तवे पर चिपकाकर सेका जा सकता है. सिकने के बाद इसपर ढेर सारा मक्खन लगाया जाता है और छोले, अचार व प्याज़ के छल्लों के साथ सर्व किया जाता है.
क़िस्सा कुलचों का:अमृतसरी कुलचों से मेरा प्रेम बहुत पुराना है. जब हम भोपाल में थे तो एक सरदारजी अंकल कुलचों की थड़ी लगाते थे. उनका सारा परिवार शाम के वक़्त छोले-कुलचे बनाता, बेचता था और वो कुलचे इतने पतले और इतने स्वादिष्ट होते थे की हम हर थोड़े दिन में किसी न किसी बहाने से पापा को वहां जाने के लिए राज़ी कर लेते और बड़े मज़े से ये कुलचे खाए जाते.
एक और बात तब की है, जब मैं प्रेग्नेंट थी. मुझे जाने कितनी बार वो छोले-कुलचे याद आते, पर मुंबई में आसपास वैसे छोले कुलचे नहीं मिलते थे. फिर अचानक एक दारजी ने छोले कुलचे की छोटी-सी दुकान लगाई. अब वो सात परत वाले कुलचे तो नहीं बनाते थे, पर फिर भी कुछ न मिलने से कुछ तो मिलना भला, बस वही वाला हाल था. मैं कभी-कभी वहां से छोल-कुलचे ले आती थी, पर समस्या ये हुई बेहद गर्मी का मौसम था और भरी गर्मी में प्रेगनेंसी में भटकना ठीक नहीं था. और छोले-कुलचे खाने की याद अचानक ही आती थी… बस, फिर क्या था मैंने अपने घर में तवे पर कुलचे सेकना शुरू किए. ट्रायल ऐंड एरर चलता रहा, जो आज भी चल रहा है. पर अच्छा ये हुआ कि इसकी कोशिश की, कम से कम जब कहीं न मिल पाए तो ख़ुद बनाकर खा लिया जाए और ये बात आज यहां दूर देश में बैठकर बहुत काम आ रही है. और हां, ये बताना तो रह ही गया कि अब मेरा बेटा, बिल्कुल मेरी तरह कुलचों का दीवाना है.
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