वर्ष 2014 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित हो चुकी गुजरात के पाटन में स्थित रानी वाव (बावड़ी) तब और भी सुर्ख़ियों में आ गई जब वर्ष 2018 में भारतीय रिज़र्व बैंक के नए 100 रुपए के नोटों पर इसे चित्रित किया. सुमन बाजपेयी इस ऐतिहासिक धरोहर को देखने गईं. वे वहां की जानकारियों और अनुभवों को वे हमारे साथ साझा कर रही हैं.
इस बार अहमदाबाद जाना हुआ तो पहले ही सोच लिया था कि रानी की वाव देखने तो जाना ही है. जब से नए सौ के नोट पर उसकी छवि देखी थी और जाना था कि उसे 2014 में यूनेस्कोवर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल किया गया है, कौतूहलता चरम पर पहुंच गई थी. बहुत-सी बावड़ियां अब तक देख चुकी थी, पानी ही तो होता है, फिर इसमें ऐसा क्या है जो यह इतनी लोकप्रिय है? अहमदाबाद में रहने वाली मित्र ने बताया कि टैक्सी से पाटन पहुंचने में करीब तीन घंटे लगेंगे. गुजरात की गढ़वाली पूर्व राजधानी, पाटन एक ऐसा शहर है, जिसकी स्थापना 745 ईस्वी में की गई थी. तत्कालीन राजा वनराज चावड़ा द्वारा निर्मित यह पुरातन ऐतिहासिक शहर अपनी उत्कृष्ट ऐतिहासिक संपदाओं और प्राकृतिक भव्यता के लिए प्रसिद्ध है.
इन दिनों मैं अकेली ही यात्राओं पर जा रही हूं और यह यात्रा भी मैं अकेले कर रही थी. धूप बहुत तेज़ थी, पर वहां जैसे ही पहुंची तो चारों तरफ़ फैली हरियाली को देखते ही सफ़र की थकान ग़ायब हो गई. रानी की वाव में प्रवेश करने पर बिलकुल भी नहीं लगता कि किसी ग्यारहवीं सदी की इमारत को देखने जा रहे हैं. बीच में पत्थर का रास्ता बना था और दोनों ओर असीम हरियाली का विस्तार था.
सीढ़ियां भी करती हैं हैरान
मैंने अपनी मित्र की सहायता से पहले ही गाइड का प्रबंध कर लिया था. हालांकि आप वहां पहुंचने के बाद भी गाइड कर सकते हैं. मेरे गाइड, भैरोनाथ जोगी, ने ही टिकट लिया और मैं उनके पीछे-पीछे चल दी और जहां रुकी वहां से केवल सीढ़ियां ही सीढ़ियां नजर आ रही थीं. एक-एक सीढ़ी उतरती गई और वास्तुशिल्प और कलात्मकता का यह नमूना मुझे आश्चर्य में डालता गया. अचरज इस बात का था कि सीढ़ियां वास्तुशिल्प व वैज्ञानिक तथ्य का मिश्रण कर बनाई गई थीं. कम जगह पर ज्यादा सीढ़ियां बन सकें, इस बात का ध्यान रखते हुए ये सीढ़ियां ज्यामितीय आकार में बनी हुई थीं. भैरोनाथ जी ने बताया कि औरतों को सिर पर घड़ा रखकर चलने में दिक़्क़त न हो, इस बात का ख़्याल रखा गया था. वहां लगा हर पत्थर लकड़ी के टुकड़े से जुड़ा है. उस समय इंटर-लॉकिंग सिस्टम में लकड़ी के टुकड़े का ही प्रयोग किया जाता था. रास्तेभर मेरे सवाल ख़त्म ही नहीं हो रहे थे और जिज्ञासा थी कि लगातार बढ़ रही थी.
गुजराती में बावड़ी को ‘वाव’ कहते हैं. अंग्रेज़ी में इसके लिए ‘स्टेपवेल’ शब्द का प्रयोग किया जाता है. गुजरात की बावड़ियां जल संरक्षण की अनोखी मिसाल हैं. इस भव्य बावड़ी का निर्माण भीमदेव प्रथम (1022-1063 ईस्वी) की रानी उदयमती ने 11वीं शताब्दी के अंतिम भाग में अपने पति की स्मृति में कराया था. है न अनूठी बात? अपनी रानियों की स्मृति में कई राजा बहुत कुछ बनवा गए हैं, लेकिन अपने पति की स्मृति में ऐसी धरोहर किसी ने बनाई है, मुझे तो मालूम ही नहीं था. भीमदेव प्रथम अनहिलवाड़ (पाटन) के सोलंकी वंश के संस्थापक मूलराज के उत्तराधिकारियों में से एक थे. इस वाव की लम्बाई 64 मीटर, चौड़ाई 20 मीटर और गहराई 27 मीटर है. जैसे-जैसे नीचे उतरते हैं, माना जाता है कि तापमान कम हो जाता है.
अनूठी दुनिया वास्तुशिल्प की
वाव में स्तंभयुक्त बहुमंजिला मंडप, कुआं और अतिरिक्त पानी इकट्ठा करने हेतु एक बड़ा कुंड भी बना हुआ है. पूर्व–पश्चिम दिशा में निर्मित इस वाव का कुआं पश्चिमी छोर पर स्थित है. वाव की दीवारों और स्तंभों पर हुई नक्काशी और मूर्तियों को देख प्राचीन वास्तुकला और कारीगरों का अद्भुत कौशल एक पल को तो सिहरा गया. साथ ही हर मंज़िल पर अहाते जैसा स्थान है, जहां यात्री आकर ठहरा करते थे. कुल मिलाकर ऐसे सात अहाते हैं. यहां बने स्तंभ पांच तत्व से निर्मित हैं, यानी जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि. सारी इमारत बलुआ पत्थर यानी सैंडस्टोन से बनी है, क्योंकि इस पत्थर में कटाव करना आसान होता है.
बेजोड़ हैं मूर्तियां
रानी की वाव भूमिगत जल संसाधन और जल संग्रह प्रणाली का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जो भारतीय महाद्वीप में बहुत लोकप्रिय रही है. यह जल संग्रह की तकनीक, बारीक़ियों और अनुपातों की अत्यंत सुंदर कला क्षमता की जटिलता को दर्शाती है. जल की पवित्रता और इसके महत्व को समझाने के लिए इसे औंधे यानी उल्टे मंदिर के रूप में डिजाइन किया गया था. वाव की दीवारों और स्तंभों पर सैकड़ों नक्काशियां की गई हैं. सात तलों में विभाजित इस सीढ़ीदार कुएं में नक्काशी की गई इस बावड़ी को एक मंदिर भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसमें करीब 700 मूर्तियां हैं. जिनमें से अधिकांश विष्णु, शिव, विष्णु के दस अवतारों की हैं. साथ ही एक हज़ार से अधिक छोटी मूर्तियां हैं. बावड़ी में नागकन्या और योगिनी जैसी सुंदर अप्सराओं की कलाकृतियां भी बनी हुई हैं. इसका चौथा तल सबसे गहरा है जो एक 9.5 मीटर से 9.4 मीटर के आयताकार टैंक तक जाता है.
सात मंजिला इस बावड़ी में पांच निकास द्वार हैं. इस वाव का निर्माण मारू-गुर्जरा वास्तुशिल्प शैली में बहुत ही नायाब व योजनाबद्ध ढंग से किया गया है. यहां दीवारों पर जो जालियों जैसे डिजाइन बने हैं, वे यहां की पटोला साड़ियों में भी देखने को मिलते हैं. कटाव व नक्काशी यहां की स्थापत्य कला में काफ़ी समान है.
कुछ मूर्तियां प्राकृतिक चिकित्सा को भी दर्शाती हैं. हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं और उन चक्रों के माध्यम से यह पता लगाया जाता था कि बीमारी कहां है. इसके लिए प्रेशर पॉइंट्स की जांच की जाती थी और यही बात मूर्तियों में भी देखी जा सकती है. रानी उदयमती को आध्यित्मक ज्ञान था और वह यह भी चाहती थीं कि लोग इस चिकित्सा से अवगत हों. लोगों को लगता है कि ये नृत्य की भंगिमाएं हैं, लेकिन वे चिकित्सा के चक्र पर केंद्रित मूर्तियां हैं. पौराणिकता व सौंदर्य दोनों का मिश्रण हैं ये मूर्तियां.
कहा जाता है कि इस वाव में 30 किलो मीटर लंबी रहस्यमई सुरंग भी निकलती है, जो पाटन के पास स्थित सिद्धपुर में जाकर खुलती है. यह भी कहा जाता है कि इस ख़ुफ़िया रास्ते का इस्तेमाल राजा और उसका परिवार युद्ध के वक़्त करते थे.
वहां से लौटते समय रानी के वाव का वास्तुशिल्प, दीवारों पर बनी मूर्तियां और उस समय का दृश्य ही दिलो-दिमाग़ पर हावी रहा. अतीत में बनी एक-एक इमारत इतिहास के पन्ने तो पलटती ही है, साथ ही बार-बार भारतीय कला और कारीगरी के अद्भुत सौंदर्य से परिचित करा यह एहसास कराती है कि समृद्धि हर रूप में हमारे देश को पल्लवित और पोषित करती रही. वाव की सीढ़ियां बरबस ही मुझे उनके पास लौटने का आमंत्रण देती प्रतीत हो रही थीं.
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