देखने में भोला है दिल का सलोना
आगरा का पेठा है बाबू चिन्नन्ना
मुस्कुराइए मत, जानती हूं गाना बिगाड़ दिया मैंने, पर सच कहूं तो कितना सूट कर रहा न आगरा का पेठा इस गाने में! कितना तो भोला और निश्च्छल-सा होता है पेठा. सफ़ेद मिठाइयों में अपनी जगह मज़बूती से बनाए हुए और रंगों के इन्द्रधनुष में अपनी जगह बनाता हुआ हमारा प्यारा पेठा…
आज पेठे की बात इसलिए क्यूंकि गर्मियां जाने को आ गई और पेठे की बात न हो तो बहुत नाइंसाफ़ी होगी. आपके बचपन में पेठे के कितने रंग घुले हैं, मैं नहीं जानती पर न जाने कितने ही बच्चे होंगे जो किसी मेहमान के आने पर एक प्लेट में पेठे के कुछ टुकड़े और पानी का ग्लास लिए दौड़े होंगे. कहा जाता है पेठा गर्मी से रहत दिलाता है इसलिए आज भी कई जगहों पर कोई धूप या गर्मी से घर में आता है तो उसे सबसे पहले पानी और पेठा दिया जाता है. अब जब ये लिख रही हूं तो एक दिलचस्प बात बताती हूं. हमारे यहां पानी देना नहीं कहा जाता, जानते हैं क्यों? क्यूंकि किसी की मृत्यु के बाद जो जल का तर्पण किया जाता है उसे पानी देना कहते हैं.
ख़ैर! बात करते हैं पेठे की. पूरे देश में आपको इसके दीवाने मिलेंगे और साथ ही मिलेंगे इसके कई फ़्लेवर भी, जैसे-पान पेठा, केसर पेठा, पेठा सैंडविच, सादा पेठा, अंगूरी पेठा और सबको बनाने की विधि अलग, सबका स्वाद अनूठा.
और जानते हैं इसे बनाया कैसे जाता है? कद्दू से, अरे हमारे पीलावाला कद्दू नहीं, इसका कद्दू भी स्पेशल आता है सफ़ेद कद्दू. जिसे छीलकर उसके टुकड़े कर लिए जाते हैं फिर इन टुकड़ों को चूने के पानी में रखा जाता है. उसके बाद फिटकरी के पानी में रखा जाता है और फिर उबाला जाता है चाशनी में …और ऐसे तैयार होता है सादा पेठा. थोड़े फेरबदल के साथ दूसरे फ़्लेवर के पेठे भी बनाए जाते हैं.पर सादे पेठे की शेल्फ़ लाइफ़ बहुत ज़्यादा होती है इसलिए सबसे ज़्यादा यही पेठा घरों में रखा जाता है, बाक़ी तो आए और 2-4 दिन में चट.
कहानी पेठे की: मासूम, छोटा-सा दिखने वाला हमारा ये पेठा इतना बच्चा है नहीं… पूरे 400 साल का इतिहास है पेठे का. अरे, आगरा का पेठा इसे यूं ही नहीं कहा जाता! आगरा की वैसे तो तीन चीज़ें बड़ी फ़ेमस थीं- ताजमहल, पेठा और पागलखाना. पर अब दो ही चीज़ें विश्वप्रसिद्ध की श्रेणी में आती हैं. पागलखाना अब शायद आगरा में है नहीं. अब ये मत कहिएगा किआपने आगरे के पागलखाने के बारे में कभी सुना ही नहीं.
अच्छा बातों में भटक जाने से पहले बता दूं कि पेठा तो ताजमहल से भी पुराना है. ताजमहल बनकर तैयार हुआ 1653 में और पेठा जी तो ताजमहल के बनते-बनते ही सबके चहेते बन गए थे.
कहा जाता है जब ताजमहल बन रहा था तो 22000 पत्थर के कारीगर वहां जी तोड़ मेहनत कर रहे थे और वो हर दिन एक जैसा खाना खा-खाकर थक गए थे. उसी वक़्त में मिठाई के रूप में पेठे का अविष्कार हुआ. ऐसा कहते हैं कि शाहजहां ने अपने कारीगरों से ऐसी मिठाई बनाने के लिए कहा था, जो ताजमहल की तरह ही धवल और निर्मल हो और जब पेठा बनकर आया तो उसने सबका दिल जीत लिया. कहा तो ये भी जाता है की मुमताज महल ने ख़ुद अपने हाथों से शाहजहां के लिए पेठा बनाया था और शाहजहां को पेठा इतना पसंद आया कि उसके बाद से वह शाही रसोई का हिस्सा बन गया.
ताजमहल तो बन गया पर उसके बाद पेठे के कारीगरों ने पेठे बनाने को ही अपनी जीविका का साधन बना लिया और उसका व्यापार करने लगे और इसे पूरे देश में फिर विदेशों में फैलाया.
यादों के झरोखे से: बचपन में हमने ज़्यादातर सादा पेठा ही खाया, वो भी इसलिए क्यूंकि हम भोपाल में थे और वहां पेठा मिल जाता था. पर मध्य प्रदेश के छोटे शहरों या गांवों में तब पेठा नहीं मिलता था तो जब भी नानी दादी के गांव जाया जाता तो पेठा ज़रूर साथ जाता. अंगूरी पेठे से हमारा परिचय काफ़ी बाद में हुआ, जब पेठे की कई वराइटीज़ बाज़ार में मिलने लगीं. और जब उससे परिचय हुआ तो समझिए वो दिल में बस गया. हमारे घर एक किराएदार रहने आए, जो आगरा के रहने वाले थे वो जब भी घर जाते कुछ अलग पेठे साथ लाते और उनके लाए वो पंछी के पेठे सच में बहुत अच्छे होते थे. अभी जब ये लिख रही हूं तो पेठा बहुत याद आ रहा है. याद करने की कोशिश कर रही हूं कि पिछली बार पेठा कब खाया था? वैसे मैं मिठाई की ख़ास शौक़ीन नहीं हूं, पर पेठा हमेशा से मेरी पसंद में शामिल रहा है… तो अब जल्दी ही पेठा ढूंढ़ा जाएगा.
आपकी भी तो पेठे से जुड़ी कुछ यादें होंगी न? कोई क़िस्सा हमें भी बताइएगा इस आईडी पर: [email protected]. अगली बार जल्द मिलेंगे, यहीं कुछ नए क़िस्सों के साथ…
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट