जयंती रंगनाथन हिंदी पत्रकारिता और लेखन का बेहद जाना-पहचाना चेहरा हैं. उन्हें पत्रकारिता का लंबा अनुभव है. वे कहानियां लिखती हैं, हर जॉनर की- वे बाल कहानियां लिखती हैं, रोमैंस, हॉरर, लस्टी हर तरह की कहानियां लिखती हैं. वे उपन्यासकार हैं, पॉडकास्ट करती हैं और ऑडियो स्टोरीज़ भी लिखती हैं और यह सबकुछ बावजूद इसके कि वे हिंदुस्तान में एग्ज़ेक्यूटिव एडिटर हैं. हिंदी माह के दौरान ओए अफ़लातून की ख़ास पेशकश हिंदी वाले लोग में शिल्पा शर्मा ने उनसे जाना कि वे हिंदी को लेकर कितनी आशा से भरी हुई हैं.
अपने पत्रकारिता के इस लंबे काल में जयंती रंगनाथन ने हर तरह की पत्रकारिता की धर्मयुग से लेकर सोनी टीवी तक और महिला पत्रिका वनिता की संपादक से लेकर अब हिंदुस्तान की एग्ज़ेक्यूटिव एडिटर तक. इसी तरह लेखन में भी उन्होंने हर विधा में काम किया, हर तकनीक को अपनाते हुए और प्रयोगों को लेकर बेहद उत्साहित रहते हुए. तीस दिनों के भीतर 30 अलग-अलग लेखकों से फ़ेसबुक पर हिंदी का एक पूरा उपन्यास ‘30 शेड्स ऑफ़ बेला’ लिखवा ले जाने का श्रेय उन्हें और उनके सम्पादन कौशल को जाता है. इसी तरह लॉक डाउन के दौरान उन्होंने मातृभारती पर एक और कहानी श्रृंखला ‘मूड्स ऑफ़ लॉकडाउन’ का भी सह-संपादन किया. ऐसे में उनसे बात करना तो ज़रूरी था, ताकि जान सकें कि अपने कामकाज के दौरान उन्होंने हिंदी को किस तरह बदलता हुआ देखा.
जयंती जी पहला सवाल ये कि हिन्दी में लेखन को आपने चुना या लेखन ने आपको? यहां मेरा मंतव्य आपके लेखन की शुरुआत को जानना है.
मेरे ख़्याल से लेखन ने मुझे चुना. अब बात शुरू से शुरू करती हूं. मेरे अप्पा भिलाई स्टील प्लांट में काम करते थे. वहां का माहौल बेहद कॉस्मोपॉलिटिन था. दक्षिण भारतीय होते हुए भी अम्मा और अप्पा अच्छी हिंदी बोलते थे. घर में हर तरह की और ढेर सारी पत्रिकाएं आती थी. अप्पा-अम्मा दोनों पढ़ने के शौक़ीन थे. हम चारों भाई-बहनों को भी पढ़ने के लिए एन्करेज करते थे. मैं उस समय दस साल की रही होऊंगी. गर्मी की छुट्टियां थीं. अप्पा का एक्सीडेंट हो गया था और वो उसके बाद जब तक रहे, इन्वेलिड रहे. सो हम कहीं जा नहीं पाते थे. अम्मा ने हम बच्चों को समय बिताने के लिए कई सारे उपाय बताए. उनमें से एक था कि हर कोई अपनी मैगज़ीन बनाए और अपनी पसंद के हिसाब से कहानी, कविता या कुछ भी लिखे. पहले दिन शाम तक मेरे भाई ने एक कविता लिखी और मैंने एक कहानी. मैंने वो कहानी सबको पढ़कर सुनाई. अप्पा ने बहुत तारीफ़ की. इसके बाद सिलसिला चल निकला. ‘छह महीने की चाबी’ मेरी पहली कहानी थी. उसी दौरान मैंने एक कहानी लिखी थी ‘धांसू के आंसू’. अप्पा के कहने पर मैंने लोटपोट में भेजी. कहानी छप गई और 45 रुपए का पारिश्रमिक भी मनिऑर्डर से मिला. इस तरह से मैं बच्चों की कहानियां लिखने लगी. मेरी कहानी पराग, मेला, लोटपोट, नंदन और लोकल अख़बारों में छपतीं. मेरे लिए वो एक स्ट्रेस बस्टर था. कभी सोचा नहीं था कि लेखन करियर बन सकता है. मैं बीकॉम और एमकॉम करके बैंकर बनने की तैयारी कर रही थी. भिलाई से मुंबई आने के बाद बैंक की नौकरी मिली भी, पर मौक़ा मिला जर्नलिस्ट बनने का, तो वो नौकरी छोड़ कर टाइम्स ऑफ़ इंडिया की प्रतिष्ठित पत्रिका धर्मयुग में बतौर पत्रकार जुड़ गई.
पत्रकारिता में आप किस तरह आगे बढ़ती रहीं?आपने लंबे समय तक अलग-अलग जगहों पर काम किया: धर्मयुग, सोनी टीवी, वनिता की आप संपादक रहीं और अब हिंदुस्तान में वरिष्ठ संपादक हैं… तो हिन्दी में पत्रकारिता का अनुभव कैसा रहा?
शुरुआती कहानी तो आपको बता ही दी. मेरे लिए यह बहुत गर्व की बात थी कि बचपन ने बड़े होने तक जिस पत्रिका को चाव और गौरव के साथ पढ़ती थी, मैं उसमें काम कर रही हूं. जब धर्मयुग जॉइन किया, मैं बीस साल की थी. मुझे धर्मवीर भारती जी के साथ काम करने का भी मौक़ा मिला. हमारे समय में धर्मयुग कार्यालय में रोज़ ही एक से एक दिग्गज साहित्यकार आते थे. उन सबको पास से जानने का भी मौक़ा मिला. वो पत्रकारिता के अलग दिन थे. इस क्षेत्र में लड़कियां बहुत कम थीं. लेकिन धर्मयुग में भी मुझे अलग-अलग जॉनर में काम करने के अवसर मिले. नब्बे के दशक की शुरुआत में जब टीवी की दुनिया दस्तक देने लगी तो मैंने भी वहां हाथ आजमाने की सोची. मैंने तीन साल तक सोनी टेलिविज़न में बतौर आइडियेशन मैनेजर काम किया. उसके बाद मुझे दिल्ली में महिलाओं की पत्रिका वनिता में संपादक बनने का ऑफ़र मिला. मैं मुंबई छोड़ कर दिल्ली आ गई. वनिता के बाद कुछ सालों तक अमर उजाला में रही और अब हिंदुस्तान अख़बार में एग्ज़ेक्यूटिव एडिटर हूं. पत्रकारिता का मेरा अनुभव बेहद उम्दा रहा. पहले ही दिन से यह एहसास हो गया कि इस क्षेत्र में अगर अपनी जगह बनानी है तो अपने समकक्ष पुरुषों से दोगुना काम करना होगा. सिर्फ़ और सिर्फ़ काम से ही आप अपने आपको साबित कर सकते हैं. मेरे सीनियर्स अच्छे थे. आज भी मैं उनको अपना गुरु मानती हूं. किसी ने मेरे लेखन को मांझा तो किसी ने मेरे नज़रिए को तो किसी ने मेरी जिंदगी में इंद्रधनुषी रंग भरे. मुझे लगता था मैं वो काम कर रही हूं जो मेरा शौक़ रहा है. इसलिए इतने सालों बाद भी मैं अपनी नौकरी या काम से नहीं ऊबी. हां, पिछले तीन दशकों में पत्रकारिता का स्वरूप बदला है. समय के अनुसार और पाठकों की रुचि के हिसाब से हमें बदलना पड़ा. पर एक बात मैं ज़रूर कहूंगी कि आज का पाठक पहले की अपेक्षा ज़्यादा जागरूक और समझदार है.
कहानियां लिखना आपने कब शुरू किया? अब तो आपकी कई किताबें आ चुकी हैं, जिनमें कहानी संग्रह, उपन्यास, मैमोइर सभी शामिल हैं, लेकिन आपकी पहली किताब प्रकाशित होनेवाले पल को हमारे साथ साझा करें.
बचपन से जो शुरू किया तो कहानी लिखना मैंने कभी छोड़ा ही नहीं. धर्मयुग में लेख लिखने के साथ-साथ मैं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए कहानियां लिखती थी. दिल्ली आने के बाद हंस और कथादेश में लिखना शुरू किया. यहीं से उपन्यास लिखने की राह बनी. मेरा पहला उपन्यास ‘आसपास से गुजरते हुए’ 2001 में राजकमल प्रकाशन से आया. उस समय मैं वनिता पत्रिका में बतौर संपादक काम कर रही थी. वर्ष 1998 में मैं मुंबई से दिल्ली शिफ़्ट हुई. अकेली रहती थी. बहुत मज़ेदार ज़िंदगी थी. अपने घर को मैंने ख़ूब सजा कर रखा था- हरियाली, झूला, एथनिक लैंप और बड़े वाले म्यूज़िक सिस्टम पर बजती गज़लें. अपना मुंबई का छोटा-सा फ़्लैट बेचकर मैंने दिल्ली एनसीआर में एक फ़्लैट लिया था.
उस दिन मैं अपने घर में कालीन पर बैठ कर जगजीत सिंह की गज़लें सुन रही थी, टेराकोटा के साइड टेबल पर लाल रंग के कांच के गिलास में फ्रेश लाइम सोडा रखा था. कमरे में लैंप की हल्की सुनहरी रोशनी में मैं आंखें बंद किए बैठी थी. हाथ में थी मेरे पहले उपन्यास की पहली प्रति. वो वक़्त मेरे लिए अभूतपूर्व था. और क्या चाहिए ज़िंदगी में किसी को? अपना घर, अपने तरीक़े से सजा-संवरा घर, अपने लिए ख़ूब सारा स्पेस, अपने प्रिय गज़लकार को सुनते हुए अपना पसंदीदा पेय पीना और आपका पहला उपन्यास. यूं लगा जैसे मेरी ज़िंदगी उस दिन बन गई. लगा किअभी मर भी जाऊं तो कोई गिला नहीं, कोई शिकायत नहीं. वो परिपूर्ण होने वाली फ़ीलिंग फिर कभी नहीं आई.
आप कहानियां लिखती हैं, उपन्यास लिखती हैं, स्क्रिप्ट लिखती हैं और ऑडियो स्टोरीज़ भी लिखती हैं. फिर बच्चों के लिए लिखती हैं, लव स्टोरीज़ लिखती हैं, हॉरर लिखती हैं, लस्टी स्टोरीज़ भी लिखती हैं और सब कमाल का लिखती हैं तो आप लेखन में इतनी विविधता कैसे ला पाईं? क्या ये आपके लिए आसान रहा?
मेरे लिए इतने सारे जॉनर में लिखना कभी मुश्क़िल नहीं रहा, बल्कि मैं चाहती ही हूं कि मैं अपने लिखे को ना दोहराऊं. मजा आता है जब एक दिन पॉडकास्ट, अगले दिन बच्चों के लिए, तीसरे दिन हॉरर और चौथे दिन रोमैंटिक लिखना पड़े. ये विविधता मुझे ताक़त देती है. मैं ऑफ़िस के काम के साथ-साथ लेखन मैनेज करती हूं. क्रिएटिव लेखन मेरा स्ट्रस बस्टर है. ये लिखती हूं इसलिए ऑफ़िस का काम बेधड़क दस घंटे कर पाती हूं. या ऑफ़िस का काम इसलिए मज़े से कर पाती हूं, क्योंकि मुझे लेखन करने का वक़्त और मौक़ा मिलता है.
जो लोग लेखन, ख़ासतौर पर हिन्दी लेखन के क्षेत्र में आना चाहते हैं, उन्हें आप क्या कहेंगी? क्या आपको लगता है कि केवल हिन्दी में लेखन को ही करियर बनाकर कोई लेखक अपनी आजीविका चला सकता है? यदि हां तो कैसे, यदि नहीं तो क्यों?
अभी तक तो यह नहीं लग रहा कि कोई लेखक वो भी हिंदी का लिख कर ठीकठाक सी ज़िंदगी गुज़ार पाएगा. पर हां, अगर आप कमर्शल और प्रोफ़ेशनल राइटर बन जाएं, पॉडकास्ट, ऑडियो बुक्स, टीवी, वेब वगैरह के लिए लिखें तो ठीकठाक नहीं, अच्छी ज़िंदगी गुज़ार सकते हैं. पर प्रोफ़ेशनल राइटिंग के अपने कायदे-क़ानून हैं. आपको चैनल या प्रोड्यूसर के हिसाब से फेर-बदल करना पड़ता है. पर इसमें अगर आप ट्यून्ड हो जाएं तो अच्छे पैसे कमा सकते हैं. इसके अलावा अगर आप उपन्यास कहानियां वगैरह लिखते हैं तो ज़ाहिर सी बात है कि इससे कोई कमाई नहीं होती. आप नौकरी करते हुए स्वांत: सुखाय के लिए लिखिए. यह बात किसी भी भाषा पर फ़िट बैठती है.
इतने सालों में आपने हिन्दी को कितना बदलता हुआ देखा? उसके पाठकों में कितना बदलाव आया? लेखकों में क्या बदलाव आए? और ये बदलाव आपको कितने सकारात्मक लगते हैं?
ये सवाल बहुत अहम् है. मैं हमेशा ही इस बारे में बात करने को उत्सुक रहती हूं. मुझे मीडिया में आए तीन दशक से ज़्यादा हो गए हैं. आज की स्थिति पहले से कहीं बेहतर है. कई मौक़े हैं, हिंदी का बाज़ार लगातार बढ़ रहा है. पहले सिर्फ़ प्रिंट मीडिया हुआ करता था. अब इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ-साथ ऑन लाइन मीडिया है. आप कहीं नौकरी नहीं करते, तब भी सोशल मीडिया से जुड़कर आप बहुत कुछ कर सकते हैं. फ़ेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम आदि आजकल आमदनी बढ़ाने का एक अच्छा स्त्रोत साबित हो रहे हैं. हिंदी के पाठक बदले हैं प्रिंट के भी और साहित्य के भी. नए पाठक नए ज़माने के हैं तो उनको नए जार्गन और नई भाषा भी चाहिए. अच्छी बात यह है कि पिछले कुछ सालों से नई उम्र के कई लेखक बहुत उम्दा लिख रहे हैं. इनकी वजह से हिंदी को लाखों नए पाठक मिले हैं. यह बहुत ही अच्छा संकेत है. मेरा मानना है कि किसी भी भाषा को बहुत बांधकर नहीं रखना चाहिए. ख़ासकर लेखन को. जैसे हर तरह के लेखन के पाठक हैं, उसी तरह हर जॉनर पर लिखा भी जाना चाहिए. मैं नए रास्ते बनते और खुलते देख रही हूं. हिंदी के लिए यह दौर वाक़ई बहुत सकारात्मक और रौशनियों से भरा है.