सभी की ज़िंदगी में उतार-चढ़ाव आते हैं और आरती व रोहित रुसिया के जीवन में भी ऐसा हुआ. पर उससे अलग और सकारात्मक ये हुआ कि अपने हिस्से की चुनौतियों से जूझने के साथ-साथ उन्होंने अपने शहर छिंदवाड़ा में आशा (ऐड ऐंड सर्वाइवल ऑफ़ हैंडीक्राफ़्ट आर्टिज़न) की नींव रखी और अब वे अपने साथ-साथ 30 लोगों को रोज़गार देते हुए उनके लिए भी उनके जीवन की चुनौतियों से जूझने में मददगार हैं.
रोहित के परिवार का पुश्तैनी काम छीपा कला का ही था, लेकिन एक दौर ऐसा आया कि पूरे के पूरे गांव के लोगों ने, जिनका पुश्तैनी काम यही था, यह काम बंद कर दिया. केवल रोहित के चाचा दुर्गाप्रसाद जी ने यह काम जारी रखा. यह बात 90’ के दशक की है. लोगों ने यह काम बंद इसलिए किया कि इस काम में मेहनत ज़्यादा और आमदनी बहुत कम थी. लोगों का सिन्थैटिक कपड़ों के प्रति आकर्षण बढ़ रहा था और छीपा डिज़ाइन के महंगे कपड़े इस दौड़ में अपनी जगह नहीं बना पा रहे थे. वहीं सावनेर में कोल-फ़ील्ड भी आ गया था. नौकरी कर के लोग ज़्यादा कमा सकते थे इसलिए नई पीढ़ी ब्लॉक प्रिंटिंग की इस ‘छीपा कला’ को अपनाने में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं ले रही थी. फिर रोहित कैसे इस कला को पुनर्जीवित करने आगे आए, यह और इसके अलावा कई और बातें हमने रोहित से पूछीं. यहां पेश हैं इस बातचीत के अंश…
छीपा कला को पुनर्जीवित करने का विचार आने से पहले की आपकी कहानी क्या है?
वर्ष 1990-91 के दौरान मैं नागपुर के पास काटोल में फ़ार्मेसी की पढ़ाई कर रहा था. उस दौरान चाचाजी के यहां आना-जाना होता था तो मैंने उनसे शौक़िया तौर पर ब्लॉक प्रिंटिंग का काम सीख लिया था. तब बिल्कुल नहीं सोचा था कि आगे इस तरह का कोई काम करूंगा. पढ़ाई के बाद नौकरी करना ज़रूरी था, क्योंकि मेरे एक छोटे भाई को एक गंभीर बीमारी हो गई थी, जिसके इलाज के लिए पैसों की सख़्त ज़रूरत थी. मेरे पिता, घरवालों और हमारी लाख कोशिशों के बाद भी हम उसे बचा नहीं सके और इलाज कराते-कराते आर्थिक हालात ऐसे हो गए थे कि मैं नौकरी नहीं छोड़ सकता था. फिर मां की तबियत ख़राब रहने लगी तो हम छिंदवाड़ा आ गए. वहां मैंने दवाई की एक रिटेल शॉप खोली और आयुर्वेदिक दवाइयों की एक फ़र्म खोली. जिसमें हमारे पास 40 लोगों का स्टाफ़ था. मैंने उसे एस्टेबलिश करने के लिए बहुत मेहनत की और काम भी अच्छा चल रहा था कि इसी बीच वर्ष 2011-12 में मेरे पिता की तबियत बहुत ख़राब रहने लगी और हम सभी घरवालों का ध्यान इस ओर ज़्यादा लगा रहा. इस बीच हमारी कंपनी को लॉस होने लगा, टीम टूटने जैसी हो रही थी. तो मैंने और ज़्यादा मेहनत शुरू कर दी. इस बीच पिता का देहांत हुआ और मुझे भी पैरैलिसिस का अटैक आ गया. हमारा परिवार बहुत कठिन दौर से गुज़र रहा था. इस बीमारी के दौर में जब ठहरने का अवसर मिला मैं सोच रहा था कि ठीक होने पर कुछ ऐसा करूंगा, जो सबके लिए हो और जिससे मुझे भी संतुष्टि मिले.
तो आशा की शुरुआत कैसे हुई और क्या कुछ कठिनाइयां आईं आपको छीपा कला को पुनर्जीवित करने में?
इस बीच मेरी पत्नी आरती ने इच्छा ज़ाहिर की कि वो ख़ुद का कुछ काम करना चाहती हैं. मेरी मां इस बात से इतनी ख़ुश हुईं कि उन्होंने अपने पास रखे पैसे उसे दे दिए और कहा,‘‘चलो कुछ शुरू करते हैं.‘‘ मेरी पत्नी ने एक स्टोर खोला, जिसमें वे बाहर से सामान लाकर बेचा करती थीं. वर्ष 2013 में जब मैं थोड़ा ठीक हुआ तो मैंने आरती से कहा,‘‘बाहर से कुछ ला कर बेचने की ज़रूरत नहीं, हम अपना प्रोडक्ट ख़ुद बनाएंगे.’’ तब तक मैं छीपा आर्ट को पुनर्जीवित करने का मन बना चुका था.
अब दिक़्क़त ये थी कि मैंने छीपा आर्ट का काम केवल शौक़िया सीखा था, लेकिन इसमें कुशलता के लिए बहुत अभ्यास की ज़रूरत होती है. चाचा की उम्र हो गई थी तो उन्होंने यह काम बंद कर दिया था. हमारे पास बहुत ब्लॉक्स भी मौजूद नहीं थे. पहले तो हमने अपने घर में मौजूद ब्लॉक्स ढूंढ़े. फिर लगा केवल इनसे बात नहीं बन पाएगी तो हम गांव (सावनेर) गए. वहां जाकर लोगों के घरों से ब्लॉक्स मांगे. हमारे पास 200-250 साल पुराने लगभग 20 ब्लॉक्स इकट्ठे हो गए. पहले जिस गांव में लगभग 2000 लोग इस काम को करते थे, हमारे मनाने पर भी दोबारा यह काम शुरू करने के लिए कोई भी राज़ी नहीं हुआ. लोगों का मानना था कि कलाकार होना प्रतिष्ठा वाला काम नहीं है.
फिर घर का एक टेबल लेकर मैंने और मेरी पत्नी ने ही इस काम को शुरू किया. फिर लगा कि इसे बना तो लेंगे, पर बेचेंगे कैसे? तब लगा प्रिंट और स्टिचिंग दोनों की ही यूनिट लगाने से काम बढ़ेगा, पर आसान भी होगा. इसके लिए हमने एटीडीसी (ऐपरल ट्रेनिंग ऐंड डिज़ाइन) से संपर्क किया. वहां के लोगों मदद की और ऐसी ग्रामीण आदिवासी महिलाओं को हमसे जोड़ा, जिन्होंने सिलाई का प्रशिक्षण लिया था. हमने स्थानीय गोंड आदिवासी महिलाओं को भी इस मुहिम से जोड़ा.
अब अगली परेशानी ये थी कि ब्लॉक प्रिंटिंग का काम सिखाने में समय भी लगता है और इसमें कई बार कपड़ा सही प्रिंट न हो तो ड्रेसेस बनाने के काम कर नहीं रहता. ऐसे कपड़ों से हम थैले या दूसरी इसी तरह की चीज़ें बना लेते थे, ताकि नुक़सान न हो.
आपने इसकी मार्केटिंग कैसे की? क्योंकि किसी चीज़ को बनाना एक बात है और उसे बाज़ार में उतारकर खपाना अलग भी है और कठिन भी.
हमारे पास मार्केटिंग के लिए बहुत बजट नहीं था. अत: जो लोग हमसे कपड़े लेकर जाते थे, हम उनसे कहते थे कि यदि आपको ये पसंद आ रहे हैं तो कम से कम अपने दो तीन जानने वालों को इसके बारे में बताएं. कविता, साहित्य और संगीत की तरफ़ रुझान होने से सोशल मीडिया पर जो मेरे दोस्त थे, उनके ज़रिए भी लोगों तक हमारे काम की बात पहुंची. सच पूछिए तो जान-पहचान के लोग और तकनीक ने हमारे पहचान बनाने में भूमिका निभाई. वर्ष 2015 में हमने अपनी यूनिट के साथ ही अपना एक आउटलेट शुरू किया और हमारे पहले ख़रीददार बने जानेमाने कवि विष्णु खरे. इसके साथ ही आशा की अपनी वेबसाइट है, जहां से लोग हमें ऑर्डर कर सकते हैं.
पहले हम बाहर से कपड़ा मंगवाते थे और उस पर ब्लॉक प्रिंटिंग कर उससे कुर्ते व अन्य कपड़े बनवाते थे. फिर हमने इसे कस्टमाइज़ करना शुरू किया. इससे लोगों का रुझान और बढ़ा. पर एक बार जब मैं गांव गया तो देखा कि एक बुनकर जिसके हाथ में फ्रेक्चर है, वो उस टूटे हाथ के साथ आजीविका के लिए बुनकरी का काम कर रहा है. तब मैंने तय किया कि अब हम अपने कपड़े बाहर से न ख़रीदकर इन बुनकरों से ही ख़रीदेंगे या अपनी तरह के कपड़े बनवाएंगे. इसके बाद हमने बुनकरों को भी अपनी यूनिट से जोड़ा.
ये सच है कि हमारे कपड़े थोड़े महंगे होते हैं, पर हमारे ग्राहक, जिन्हें मैं ग्राहक न कह कर कला प्रेमी यानी आर्ट लवर कहता हूं, वे जानते हैं कि इसके पीछे कितनी मेहनत है और एक बार इस तरह के कपड़े को पहनने के बाद आपको और कुछ अच्छा भी नहीं लगता. तो जो आर्ट लवर हमसे एक बार जुड़ता है, वो ख़ुद तो जुड़ा ही रहता है और दूसरों को भी जोड़ता है.
कोरोना ने हर उद्योग पर नकारात्मक असर डाला है. आप भी इसे अछूते नहीं रहे होंगे. कैसा रहा काम इस कठिन समय में?
हां, बिल्कुल कोरोना ने हमारे काम पर असर डाला. पहले हमारे साथ जो 30 लोग सीधे-सीधे जुड़े हुए थे, उसमें से अब केवल 12 ही बचे हैं. बाक़ी लोगों ने अपने-अपने घर लौटना मुनासिब समझा. बिक्री पर भी असर पड़ा. लेकिन पिछले तीन सालों से हम अपने उत्पादों में कला संबंधी विविधताएं ला रहे थे, क्योंकि कला जब अलग-अलग रूपों में सामने आती है तो उसका विस्तार होता है. इसके तहत हमने गोंडवाना के गोदना कला, जिसे टैटू आर्ट के नाम से जाना जाता है, उसे भी कपड़ों पर उतारा, जिससे डिज़ाइन्स में रोचकता आई और गोदना की कला को भी पुनर्जीवन मिला. इसी तरह हमने ब्रैंड छिंदवाड़ा खड़ा किया, जिसमें छिंदवाड़ा ज़िले के बुनकर, छिंदवाड़ा की पारंपरिक कला, छिंदवाड़ा के ही मोटिफ़्स का इस्तेमाल किया है. इसके तहत हमने छिंदवाड़ा के पास देवगढ़ किले की बावड़ियों को कपड़ों पर प्रिंट किया. तो ये विविधताएं कला का विस्तार भी कर रही हैं और हमारे आर्ट लवर्स की संख्या का भी.
हाल ही में हमने हिंदुस्तान के जानेमाने कलाकारों अनुप्रिया, अपराजिता शर्मा और रतलाम के महावीर वर्मा के स्केचेज़ को कपड़ों पर उतारने का काम किया है. इस तरह नए प्रयोग करते हुए हम इस कला को आधुनिक और पुरातन मेलजोल से पुनर्जीवित कर रहे हैं.
क्या आप हमारे पाठकों को इस तरह की समाप्त होती कला के पुनर्जीवन को लेकर कोई संदेश देना चाहते हैं?
जी हां. मैं कहना चाहता हूं कि कई कलाएं यूं भी समाप्ति की ओर हैं और कई लोग बड़े जतन से इन्हें बचाने की कोशिश कर रहे हैं. यूं भी सरकार के पास कलाकारों के लिए कोई ठोस नीति नहीं है. इस महामारी के दौर में हम कलाकारों को बहुत नुक़सान हुआ है. तो मैं बस ये कहना चाहता हूं कि आप आर्ट लवर्स हमें सपोर्ट करें. हमें पैसे नहीं चाहिए, लेकिन हमारे प्रोडक्ट्स को ख़रीदकर और यदि अच्छे लगें तो उनके बारे में और लोगों को बताकर हमें सहयोग करें. बस, यही गुज़ारिश है.
छीपा कला के ये प्रोडक्ट्स आप आशा की वेबसाइट पर जा कर ऑर्डर कर सकते हैं.
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