चना जोर गरम बाबू मैं लाई मजेदार
चना जोर गरम …
यह गाना तो आपने भी सुना होगा, है ना? कभी हेमा मालिनी फ़िल्म में इस गाने के साथ चना जोर गरम बेचने आई थीं और आज मैं आप लोगों को इसकी कहानी सुनाने आई हूं.
मनोज कुमार ने केवल देशभक्ति वाली फ़िल्मों में काम करके लोगों के मन में देश के लिए ही प्रेम नहीं भरा, बल्कि उनकी बनाई एक फ़िल्म क्रांति के इस गाने ने देशभर के लोगों के मन में काले चने से बने चना जोर गरम के लिए भी भावनाएं बढ़ा दी थीं, जो अब तक भी हिलोरे मारती हैं.
एक वक़्त था जब मोहल्लों में बच्चे चना जोर गरम बेचने वालों का इंतज़ार करते थे. हाथों में लकड़ी की डलिया, उसमें चना जोर गरम के साथ निम्बू हरी मिर्च और तरह-तरह के मसाले सजाकर जब ये फेरीवाले गाना गाते हुए इन्हें बेचते तो आसपास बच्चों का जमावड़ा लग जाता था. पुराने लोग याद करते थे कि जब ये लोग आते तो सिर्फ़ एक गाना नहीं गाते थे कई तरह तरह के गाने गाते, क़िस्से भी सुनाया करते थे. तो उस दौर में जब मनोरंजन के तकनीकी साधन कम थे और आम लोगों की पहुंच में भी नहीं थे, तब ये लोग चलता-फिरता मनोरंजन हुआ करते थे. बच्चे तो बच्चे बड़े बूढ़े सब इनके आसपास इकट्ठे होकर चना जोर गरम खाते और इस मनोरंजन के भागी बनते थे
वक़्त बदल गया ये फेरी वाले दिखने कम हो गए, पर अभी भी इन्हें चना जोर गरम बेचते देखा जा सकता है. अब यही चना ठेलों, छोटी पाल या लोहे के पतरे की दुकानों से होते हुए बड़े मॉल स्टोर्स में भी पहुंच गया है. बड़ी-बड़ी नमकीन और स्नैक्स बनाने वाली कम्पनियां चना जोर गरम को अपनी वराइटी में शामिल कर चुकी हैं.
कहानी चना जोर गरम वाली: काला चना अपने आप में सबसे अलग है. दुनिया के सभी देशों में सामान्य रूप से काबुली चना या सफ़ेद चना खाया जाता है, पर भारत में शुरुआत से काला चना ही प्रचलन में था. पुराने, 7500 वर्ष पहले के ग्रंथों में भी इस काले चने का उल्लेख मिलता है. अब बात करें चना जोर गरम की तो ये इसी काले चने से बनाया जाता है. माना जाता है कि सबसे पहले इसका प्रचलन बंगाल में था. वहीं से होता हुआ ये बिहार उत्तरप्रदेश के रास्ते से पूरे देश में फैला. और अब तो पूरे उत्तर भारत में चना जोर गरम के चाहने वाले मिले जाएंगे.
कहते हैं स्वतंत्रता संग्राम में भी इस चना जोर गरम ने अपनी अहम् भूमिका निभाई है, क्योंकि इन्हें बेचने वाले ये फेरीवाले संदेशवाहक के रूप में काम किया करते थे. अपने गानों और लच्छेदार बातों के बीच ये गुप्त संदेश भी एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा देते थे.
एक-एक चने को बनाने में लगती थी मेहनत: अब तो समय बदल गया है, चना जोर गरम मशीनों से बनाया जाने लगा है, पर पहले चना जोर को बनाने में बहुत मेहनत लगती थी. दो रात तक चने को अच्छे से गलाया जाता था फिर दो-तीन चने लेकर उन्हें दबाया जाता था. जब सभी चने दब जाते तो इन दबे हुए चनों को तला जाता था. उसके बाद प्याज़, नींबू व तरह-तरह के मसाले मिलकर इसे खाया जाता था. खाने में गर्म और और जोरदार हुआ करते थे शायद यही कारण रहा होगा की बहुत जोर (दबाव) लगाकर बनाए गए, जोरदार (ज़बर्दस्त) स्वाद वाले इन चनों के नाम में ही जोर शब्द जुड़ गया.
छूट रही है यह परंपरा: आज आप किसी भी चना जोर गरम वाले के पास जाकर कहेंगे की वो चना जोर गरम वाला गाना सुनाओ तो वो आपके ऊपर हंसने लगेगा. अगर ये नहीं भी हुआ तो कम से कम ये कह देगा कि कौन सा गाना? इसके स्वाद के साथ कितने ही लोगों की यादें जुड़ी रहीं हैं, उनके बचपन का मनोरंजन, उनकी ट्रेन की यात्रों का मज़ा भी. अब चना तो कहीं नहीं गया और यह बात भी अपनी जगह सही है कि काला चना गलाकर खाया जाए तो भीगे हुए बादाम खाने से भी ज़्यादा फ़ायदा करता है, पर ये बात उतनी ही सच है कि भोजन से जुड़ी कई चीज़ें लुप्त होती चली जा रही हैं. फेरीवाले कम हो रहे हैं, वो माहौल भी कम हो रहा है.
यादें: हम छोटे थे तो मेलों-ठेलों पर मिलने वाला चना जोर गरम बड़े शौक़ से खाते थे. ये छोटी-छोटी चीज़ें हमारे लिए आकर्षण हुआ करती थीं. फिर हमारे चना जोर गरम पैकेट में आने लगे; गुड़िया के बाल/ बुढ़िया के बाल कॉटन कैंडी बनकर बॉक्स में मिलने लगे. इस बात से मुझे याद आया कि तीन दिन पहले मेरे बेटे ने कहा मम्मी इस बार मुझे कॉटन कैन्डी दिलाना न. और मेरे मुंह से अचानक निकला,‘‘बहुत शुगर होती है बेटा ये सब नहीं खाते,’’ और फिर मुझे मेरा बचपन याद आ गया. फिर लगा कि हम सच में बड़े अजीब हो गए हैं…
ट्रेन में जब भी चने वाला आता था हम उनको देखकर लालच करने लगते थे. हमारे बच्चे पता नहीं वो सब कब महसूस कर पाएंगे या हम कभी उन्हें वो बचपन न दे पाएं शायद. ज़माना बदल गया, जगहें बदल गईं, थोड़े हम भी बदल गए, थोड़े हमारे बच्चे भी वैसे नहीं जैसे हम हुआ करते थे. आप भी अपनी यादें हम तक पहुंचाइएगा: [email protected] पर.
अगली बार फिर मिलेंगे, खानपान से जुड़ी ऐसी ही बातों के साथ…
फ़ोटो: गूगल