क्या आपने इस बात पर ग़ौर किया है कि एक भाषा की मृत्यु हो जाने या उसके खो जाने से से उस भाषा से जुड़ा पारंपरिक ज्ञान भी ख़त्म हो जाता है? लोक भाषाओं और बोलियों के खो जाने का नुक़सान यदि आप समझते हैं कि केवल उस भाषा के लोगों को होने वाला है तो आप ग़लत हैं. दरअसल, एक बोली या भाषा के खो जाने से सारा मानव समाज उस बोली या भाषा से जुड़े पारंपरिक ज्ञान को खो देता है. किसी भाषा के लुप्त होने से होने वाले असर से हमें गहराई से रूबरू करवा रहे हैं डॉक्टर दीपक आचार्य, ताकि आप और हम स्थानीय बोलियों की अहमियत समझें और उन्हें बोलने वालों की क़द्र करते हुए उन्हें बचाने की कोशिश कर सकें.
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क्या आपको पता है, दुनियाभर की 6000 बोलियों में से आधे से ज़्यादा ख़त्म हो चुकी हैं? वजह ये है कि अब उन बोलियों और स्थानीय भाषा को कोई आम बोलचाल में लाता ही नहीं है, अनेक लोकभाषाओं या बोलियों की मौत हो चुकी है. एक भाषा की मृत्यु हो जाने या उसके खो जाने से उस भाषा से जुड़ा पारंपरिक ज्ञान भी ख़त्म हो जाता है. लोक भाषाओं और बोलियों के खो जाने का नुक़सान सिर्फ़ उस बोली को बोलने वाले आदिवासियों को ही नहीं होने वाला, बल्कि सारा मानव समाज एक बोली के खो जाने से उस बोली या भाषा से जुड़े पारंपरिक ज्ञान को खो देता है. आज भी दुनियाभर के तमाम संग्राहलयों में क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों से जुड़े अनेक दस्तावेज़ धूल खा रहें है और ना जाने कितनी दुलर्भ जानकारियां को समेटे ये दस्तावेज़ अब सिवाय नाम के कुछ नहीं.
मेरे एक ब्राज़ीलियन मित्र हैं जॉनाथन. स्थानीय लोक संस्कृति और लोक गीतों पर पिछले दो दशक से शोध कर रहे हैं. एक बार मेरी उनसे चर्चा हो रही थी, बायोलॉजिकल इंडिकेटर्स को लेकर. हमारे आसपास, हमारी प्रकृति, जीव जंतुओं और हवा, पानी और आकाश में कुछ ऐसी सांकेतिक घटनाएं होती हैं, जिनके ज़रिए कई विषयों पर सटीक अनुमान लगा लिया जाता है. इन घटनाओं को बायोलॉजिकल इंडिकेटर्स कहते हैं. उदाहरण के तौर पर, जब अमलतास के पेड़ पर पहली बार फूल दिखाई देते हैं, तो आदिवासी इसे एक संकेत की तरह डिकोड करते हैं: वे मानते हैं कि उस दिन से ठीक 45 दिन बाद बारिश होगी. जॉनाथन ने बताया कि ब्राज़ील की ऐसी एक विलुप्तप्राय: जनजाति से प्राप्त जानकारियों से जुड़े कुछ दस्तावेज़ों पर उसने सालों तक शोध किया और पाया गया कि ये आदिवासी समुद्री तूफ़ान आने की जानकारी 48 घंटे पहले ही कर दिया करते थे और ठीक इसी जानकारी को आधार मानकर आधुनिक विज्ञान की मदद से ऐसे संयंत्र बनाए गए, जो प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी समय से पहले दे देते हैं.
ब्राज़ील ही क्यों, अंडमान निकोबार द्वीप समूह के आदिवासी भी तितलियों के मूवमेंट के आधार पर मौसमी आपदा की सूचना प्राप्त कर लेते हैं. इस ज्ञान को एकत्र करने के लिए ज़रूरी है कि जानकारी एकत्र करने वाले को स्थानीय बोली की समझ हो. पारंपरिक ज्ञान को सटीकता से डॉक्यूमेंट करना, उस ज्ञान से समाज के बड़े हिस्से का भला करना ही पारंपरिक ज्ञान का सम्मान है. और मज़े की बात ये है कि पारंपरिक ज्ञान का असल कलेवर स्थानीय बोलचाल में ही दिखाई देखा है.
मध्यप्रदेश के पातालकोट जैसे समृद्ध आदिवासी इलाकों में तो पारंपरिक ज्ञान समाज का मूल हिस्सा है. लेकिन, ना सिर्फ़ पातालकोट, बल्कि दुनियाभर में आज विकास के नाम पर जो दौड़ लगाई जा रही है, उससे इस बात का पूरा डर है कि अनेक जनजातियों के बीच चला आ रहा पारंपरिक ज्ञान विकास की चपेट में आकर कहीं खो ना जाए. पातालकोट में जब एडवेंचर टूरिज़्म की ऐक्टिविटीज़ शुरू की गई थीं, मैंने इसका पुरजोर विरोध भी किया था. सरकारी महकमे में लोग दीपक आचार्य को विकास विरोधी भी मानने लगे थे. मैं विकास का विरोधी नहीं हूं. मैं मानता हूं विकास होना ज़रूरी है, लेकिन विकास होने से पहले ये भी तो तय हो कि विकास किसका होना है और किस हद तक होना है? अब तक आदिवासियों का विकास होने के बजाए उनका शोषण हुआ है या रूपान्तरण होता आया है. विकास के एवज में लोक संस्कृति प्रभावित हुई, बाहरी चकाचौंध ने स्थानीय युवाओं को शहरों की तरफ़ आकर्षित किया है और आहिस्ता-आहिस्ता स्थानीय भाषाओं और बोलियों में बदलाव भी आता गया.
जॉनाथन पेनन आइलैंड का भी अक्सर ज़िक्र करते रहते हैं. इस आइलैंड से तो स्थानीय बोली पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी है, वहां अब सब फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलते हैं. जॉनाथन ने आदिवासियों से जुड़े कुछ ऑडियो क्लिप्स और डॉक्युमेंट्स जुगाड़ भी लिए, लेकिन इसे डिकोड करेगा भी तो कौन? किसी को वो भाषा आती ही नहीं. इस आइलैंड के लिए सरकार ने टूरिज़्म प्रोजेक्ट्स चलाए, बाहरी एजेंसीज़ ने मोटेल्स और रिसॉर्ट्स खोले, ये सोचकर कि स्थानीय लोगों को व्यवसाय के अवसर मिलेंगे, लेकिन हुआ इसके विपरीत. स्थानीय युवा आइलैंड से बाहर पलायन कर गए और आहिस्ता-आहिस्ता ये आइलैंड बाहरी लोगों का ठिकाना बन गया.
विकास बेशक़ हो, लेकिन आदिवासियों का रूपांतरण ना हो. उनकी संस्कृति, संस्कारों, रहन-सहन, खान-पान, ज्ञान और स्थानीय भाषा या बोली को बचाने की क़वायद सबसे पहले हो, ताकि आने वाली पीढ़ी भी इनके ज्ञान से सीखे, समझे और अमल करे. और इस पूरी प्रक्रिया में यह तय किया जाए कि स्थानीय भाषाएं, बोलियां ज़िंदा रहे, वे लुप्त न होने पाएं.
अब जब भी आपके सामने स्थानीय बोली या भाषा बोलता हुआ कोई व्यक्ति दिखाई दे तो उसके बोलचाल को सम्मान दें. ये कतई न समझें कि वो देहाती है, वो पिछड़ा है. यदि आप की सोच कुछ ऐसी ही है तो यकीन मानिए कि आप में बदलाव की अथक गुंजाइश है. मेरी बात में कुछ लॉजिक समझ आए तो प्लीज़ इस पोस्ट को साझा ज़रूर करें, हम तथाकथित विकसित समाज के लोगों को इसे एक बार पढ़ना जरूर चाहिए. आपके बच्चे या आपको अंग्रेजी नहीं आती है? कोई बात नहीं, गर्व करें कि आपको अपनी मातृभाषा आती है, गर्व करें कि आपको आपके क्षेत्र की बोली समझ पड़ती है. भाषाएं बचें, बोलियां बचें, देश का ज्ञान बचे, संस्कार और सभ्यता बचे. यही सीखा है मैंने अपनी जंगल लैबोरेटरी से.
(तस्वीर में दिख रहा बच्चा पातालकोट के भारिया जनजाति का है, पातालकोट घाटी के बहुत बड़े हिस्से में बच्चे आज भी अपनी स्थानीय बोली बोलते हैं)
फ़ोटो: डॉक्टर दीपक आचार्य