कहते हैं फ़ैसले लेते समय शांत दिमाग़ का होना बहुत ज़रूरी है. पर हमारे अपने लेखक-चिकित्सक डॉ अबरार मुल्तानी की मानें तो ज़्यादातर लोग फ़ैसले तब लेते हैं जब वे डरे हुए होते हैं और उनका दिमाग़ अशांत होता है. आख़िर डर और फ़ैसलों का कनेक्शन क्या है? इस सवाल की मनोवैज्ञानिक पड़ताल करते हुए डॉ अबरार मुल्तानी सकारात्मक समाधान भी सुझाते हैं.
हमारे दो तरह के डर होते हैं: एक वह डर, जो हम ख़ुद अपने अनुभव के द्वारा अर्जित करते हैं और दूसरे वे, जो हमारे जींस में बसे होते हैं. ये एक जनरेशन से दूसरी जनरेशन में ट्रांसफ़र होते हैं. इन्हें हम प्रिमिटिव डर भी कह सकते हैं. हमारे परदादा-दादियों, नाना-नानियों ने जिन डरों का सामना किया, वे हमारे जींस में आ गए और पीढ़ी दर पीढ़ी हमें मिलते रहे.
मैं कुछ दिन पहले एक प्रैंक वीडियो देख रहा था, जिसमें ट्रेन का इंतज़ार कर रहे एक व्यक्ति के पीछे उसके कपड़ों में एक बिल्कुल असली दिखने वाले नक़ली सांप को बांध दिया गया था और जब उसे बताया जाता है कि देखो, तुम्हारे पीछे सांप है, तो वह बिना कुछ सोचे-समझे रेलवे प्लैटफ़ॉर्म से ट्रेन की पटरियों की तरफ़ दौड़ लगा देता है. लोग उसे समझाते हैं कि यह सांप नकली है तुम इधर आओ, उधर से ट्रेन आने वाली है, तुम्हारा ऐक्सीडेंट हो सकता है.
इस वीडियो में जो सोचने वाली बात है वह यह कि व्यक्ति एक छोटे ख़तरे से बचने के लिए एक जानलेवा ख़तरे की तरफ़ बिना सोचे-समझे क्यों भागने लगा? यह संभव था कि सांप नकली हो, यह भी संभव था कि सांप ज़हरीला न हो, यह भी संभव था कि यदि सांप उसे डस भी ले तो उसका उपचार संभव है, इन सबके बावजूद वह व्यक्ति ज़्यादा बड़े ख़तरे की तरफ़ भाग जाता है, जिसमें उसकी मृत्यु निश्चित थी.
इसमें यह बात हमें ग़ौर करना चाहिए कि यह व्यक्ति अपने प्रिमिटिव डर को अपने जींस में लिए हुए था और यह डर हज़ारों-लाखों साल से इंसानों के अंदर पीढ़ी दर पीढ़ी ट्रांसफर हो रहा है. इसके बरअक्स हम देखें तो ट्रेनों को आए हुए अभी कुछ ही साल हुए हैं (100 से 150 साल). ऐसे में लाखों साल पुराने डर से 100 साल पहले उत्पन्न हुआ डर हार जाता है. जब सांप हम पर फुफकारता है तो हम नए डरों को नज़र-अंदाज़ करते हुए पुराने डर पर प्रतिक्रिया करने लगते हैं.
इसे हम एक और उदाहरण से समझते हैं और वह यह है कि हम मनुष्य जब से क़बीलों में रहने लगे थे, तब उनकी आपसी लड़ाई से मनुष्यों की मृत्यु बहुत क्रूर तरीक़े से और ज़्यादा मात्रा में होती थी.
कुछ शोधों के मुताबिक आदिम काल में आपसी लड़ाई-रंजिशों के चलते कुल मृत्युओं का 15 से 30 प्रतिशत भाग इन लड़ाइयों से होता था. तो इन युद्धों और लड़ाइयों का डर हमारा प्रिमिटिव डर कहलाएगा. क्योंकि इस डर का इतिहास हज़ारों साल पुराना है और यह भी हमारे जींस में हमारे परदादा-दादी और परनाना-नानियों से आया है. ऐसे में हम आपसी लड़ाई को ज़्यादा महत्व देते हैं और उनके अनुसार कई महत्वपूर्ण फ़ैसले लेते हैं, जैसे-हमें कहां रहना है, कैसे लोगों के साथ रहना है, किन्हें मित्र बनाना और किनसे पर्याप्त दूरी रखना है, हमें हमारा लीडर कौन-सा चुनना है आदि बातें हमारा यह प्रिमिटिव डर ही तय करता है. जबकि अगर हम देखें तो आज के ज़माने में मनुष्य की आपसी लड़ाइयों से मृत्यु कम होती है और उससे कई गुना ज़्यादा मौतें वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और मिलावटी खाद्य पदार्थों से हो रही हैं. अब यदि कोई नेता इनके ख़िलाफ़ मुहिम चलाए और आपसे कहे कि यदि आप उसे वोट करें तो वह आपको प्रदूषण और मिलावटी खानपान से मुक्ति दिलवा देगा और दूसरा नेता कहे कि वह आपको दूसरे मनुष्यों के समूहों से सुरक्षा देगा, दंगे-फ़सादों से बचाएगा और आपको दूसरों के मुक़ाबले ज़्यादा सम्मान दिलवाएगा तो आपका प्रिमिटिव डर इस दूसरे नेता को चुनने के लिए ज़्यादा प्रेरित करेगा क्योंकि हमारे पुराने डर अभी-अभी आए प्रदूषण और मिलावट वाले डर से जीत जाएंगे.
मेरा लिखने का मक़सद यह है कि हमें हमारे डरों को टटोलते रहना चाहिए. हमें देखना चाहिए कि हमारे डर कहीं हमारे फ़ैसलों को प्रभावित तो नहीं कर रहे हैं और क्या वाक़ई वे डर वास्तविक हैं, क्या वाक़ई वे महत्त्वपूर्ण हैं?
अगर नहीं हैं तो फिर उनसे अपने फ़ैसलों को प्रभावित न होने दें. कार्ल युंग ने कहा था कि,‘‘हम मनुष्यों का पहला कर्त्तव्य अपने डरों को हराना है.’’