दक्षिण की फ़िल्मों की हालिया आंधी से डमगाए बॉलिवुड को एक अदद बिग हिट की तलाश है. भूल भुलैया 2 ने पिछले दिनों हिंदी सिनेमा को थोड़ी राहत ज़रूर पहुंचाई है. पर क्या पृथ्वीराज चौहान बने अक्षय कुमार भारतीय सिनेमा के तख़्त पर बॉलिवुड को दोबारा बिठा पाने में क़ामयाब होंगे?
फ़िल्म: सम्राट पृथ्वीराज
सितारे: अक्षय कुमार, मानुषी छिल्लर, संजय दत्त, सोनू सूद, आशुतोष राणा, साक्षी तंवर, मानव विज और अन्य.
डायरेक्टर: चंद्रप्रकाश द्विवेदी
रन टाइम: 135 मिनट
रेटिंग: 2.5/5 स्टार
इतिहास को सिनेमा के पर्दे पर उतारना वैसे भी दोधारी तलवार की तरह है, पर जब आपने रिसर्च करने में आलस कर दी हो तो मामला थोड़ा और संगीन हो जाता है. कहानी में डीटेल्स वाली ख़ाली जगह को कई जांचे-परखे फ़िल्मी नुस्ख़ों की मदद से भरने की कोशिश की जाती है. चंद्रमोहन द्विवेदी की फ़िल्म सम्राट पृथ्वीराज भव्य है, इसमें शौर्य है, पराक्रम है, धर्म है, प्रेम है… मगर कहानी में ऐसी कई ख़ाली जगहें हैं, जो भरने के बाद भी ख़ाली ही लगती हैं.
फ़िल्म की कहानी वही है, जो हमने अबतक सुनी है. अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान, दिल्ली के सम्राट बनते हैं. पृथ्वीराज गजनी के सुल्तान मोहम्मद गोरी को युद्ध में हरा देते हैं, पर हारे हुए दुश्मन को जीवित छोड़ देते हैं. एक दिन वही दुश्मन उनकी दिल्ली की गद्दी और आंखें छीन लेता है. पृथ्वीराज चौहान की प्रचलित कहानी में एक प्रेम कहानी भी है. लोकगीतों में कन्नौज के राजा और अपने मौसेरे भाई जयचंद की बेटी संयोगिता से पृथ्वीराज चौहान की लवस्टोरी का भी ख़ासा ज़िक्र होता है. इन्हीं दोनों कहानियों के मेल से बनी फ़िल्म सम्राट पृथ्वीराज न इससे कुछ ज़्यादा दिखाती है और न कम.
रिलीज़ के पहले अक्षय कुमार के लुक और पृथ्वीराज चौहान के तौर पर उनकी कास्टिंग पर काफ़ी सवाल उठाए गए थे. बेशक़ लुक वाइज़ वे हाउसफ़ुल 4 के बाला (प्लस हेयर) दिखते हैं, पर उतने भी बुरे नहीं लगते और उनकी ऐक्टिंग भी ठीक-ठाक ही है. वे अपनी ओर से पूरा प्रयास करते हैं, पर कहीं न कहीं बतौर पृथ्वीराज फीके ही रहते हैं. वहीं संयोगिता की भूमिका में बॉलिवुड डेब्यू कर रहीं पूर्व मिस वर्ल्ड मानुषी छिल्लर ज़रा भी प्रभावित नहीं करतीं. उनके चेहरे के एक्सप्रेशन्स बेहद फ़्लैट हैं. उन्हें अपनी ऐक्टिंग स्किल पर काफ़ी काम करने की ज़रूरत है. आशुतोष राणा (जयचंद), संजय दत्त (काका कन) और मानव विज (मोहम्मद गोरी) अपनी-अपनी भूमिकाओं में औसत ही कहलाएंगे. पृथ्वीराज के साथी कवि चंद बरदाई की भूमिका में सोनू सूद कुछ हद तक प्रभावित करते हैं, पर उनके पात्र का कैरेक्टराइज़ेशन और बेहतर हो सकता था.
मिथकों की चाशनी में पगी ऐतिहासिक फ़िल्में आमतौर पर अपने दमदार डायलॉग्स की वजह से याद रह जाती हैं, लेकिन सम्राट पृथ्वीराज में याद रह जाने जैसे डायलॉग्स नहीं है. धर्म, स्त्री-पुरुष समानता, वीरता से जुड़े कुछ डायलॉग्स हैं, पर वे भी अगले सीन तक याद नहीं रह पाते. गीत-संगीत के मामले में भी कुछ ख़ास नहीं है. फ़िल्म का पहला हिस्सा काफ़ी बिखरा हुआ है. युद्ध के सीन ज़रूर अच्छे से फ़िल्माए गए हैं, पर उनमें भी कुछ ऐसा नहीं है, जो आपने बाहुबली, बाजीराव मस्तानी और यहां तक कि पानीपत में न देखा हो.
कहानी के ट्रीटमेंट में निर्देशक ने इतिहास और दंतकथाओं के बीच फ़र्क़ करने की ज़रूरत नहीं समझी है. चाणक्य जैसा सीरियल बनानेवाले चंद्रप्रकाश द्विवेदी की रिसर्च टीम का आलस साफ़ नज़र आता है. ज़्यादातर प्रसंग उन्होंने पृथ्वीराज रासो से लिए हैं. अगर हम सिनेमाई छूट से सहमत होते हैं तो भी कहानी में वह कसाव नहीं है, जिससे दर्शक बंधे रहें. तमाम भव्यता के बावजूद इस बुनियादी कमी के चलते कहानी रोचक होते-होते सतही रह गई है.
कहने को तो दिल्ली के तख्त पर बैठनेवाले आख़िरी हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान (हालांकि कई इतिहासकार हेमू को दिल्ली का शासक रहा आख़िरी हिंदू सम्राट मानते हैं) पर बनी इस फ़िल्म में वह सबकुछ है, जिससे दर्शक सिनेमाघरों आ सकते हैं, पर इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे दर्शक सिनेमाघर से अपने घर तक ले जा पाएं. रही बात दक्षिण की आंधी को रोक पाने की तो इसके लिए बॉलिवुड को कमर ही नहीं, कहानियां और स्क्रिप्ट भी कसनी होगी. हम कह सकते हैं, इस मामले में भी चूक गए चौहान (चंद्रप्रकाश द्विवेदी).