हर क्षेत्र का अपना ज़ायका होता है. जब बात खाने-खिलाने के लिए मशहूर मध्यप्रदेश के मालवा इलाक़े की हो तो यहां के ज़ायकों का क्या कहना. सर्दियों में मालवा का दिल आता है जिमीकंद प्रजाति के कंद गराड़ू पर. इस बार हमारी अपनी फ़ूडगुरु कनुप्रिया गुप्ता हमें गराड़ू की स्वाद-यात्रा पर ले चल रही हैं.
ठंड जब मौसम में हो और हर तरफ़ मीठे की बातें हो तो नमकीन के शौक़ीन लोग मुस्कुराकर कहते हैं,“भाई साहब ये मौसम बस आपको ख़ुश करने नहीं आता, इसका कनेक्शन हमसे भी है.’’ आख़िर यही तो मौसम है जब मंगोड़ों के लिए दाल गलाई जाती है, कड़ाहों में गर्मागर्म आलूबड़े और समोसे तले जाते हैं और तले जाते हैं गराड़ू….हां गराड़ू इन्हीं की तो हम बात करने वाले हैं आज, क्योंकि ठंड के मौसम में गराड़ू खाने का जो मज़ा है वो वही समझ सकता है जिसने इनका स्वाद लिया हो…
मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में जैसे ही ठंड दस्तक देती है लोग गराड़ू के आने का इंतज़ार करने लगते हैं, हालांकि आजकल ये पूरे साल मिल जाता है पर इसकी फसल और इसे खाने का सही सीज़न दोनों ही अक्टूबर से मार्च के बीच होता है, जब मौसम में हल्की गुलाबी या बहुत तेज़ ठंड होती है, क्योंकि ये जिमीकंद प्रजाति का कंद है और शरीर को गर्मी प्रदान करता है इसलिए इसे खाने के लिए ठंड का मौसम सबसे मुफ़ीद वक़्त होता है.
गराड़ू की दुनिया
आप कहेंगे अब किसी कंद की क्या ही दुनिया होगी, पर सच ये है खाने की हर चीज़ की अपनी एक दुनिया होती है. गराड़ू की दुनिया इसलिए भी अलग है, क्योंकि ये हर जगह खाया नहीं जाता, कहा तो यहां तक जाता है की इसकी गर्म तासीर की वजह इसे हर कोई पचा भी नहीं सकता. वैसे गराड़ू मुख्य रूप से अफ़्रीका और एशिया में उगाया जाता रहा है. ये कंद की ही प्रजाति है. ये भूरा और बेहद कड़क चमड़ी वाला होता है और अंदर हल्का बैंगनी रंग लिए होता है. छिलका उतारकर पकाने के बाद ये नर्म हो जाता है. अफ़्रीका में लगभग ऐसा ही या कहा जाए तो यही कंद अलग ढंग से पकाया जाता है. वहां इसे उबालकर मसल लिया जाता है और मछली के तीखे सूप के साथ इसे खाया जाता है, जबकि भारत में यह मालवा में उगाया जाता है और इसे तेल में तलकर तेज़ मिर्च मसाले डालकर खाया जाता है. इसकी खेती कठिन खेतियों में से एक मानी जाती है, विशेष तरह की जलवायु इसके लिए ज़रूरी मानी जाती है और जलवायु परिवर्तन से इसके स्वाद में फ़र्क़ आता है. इसीलिए इसे मालवा के भी एक क्षेत्र विशेष में ही मुख्य रूप से उगाया जाता है.
कैसे बनाएं गराड़ू?
यूट्यूब पर आपको कई वीडियो मिलेंगे जो कहेंगे की गराड़ू को पहले हल्का उबाला जाता है फिर तला जाता है. आमतौर पर कंद के साथ यही किया जाता है इसलिए लोगों को ये सही भी लगता है. पर आप अगर सच में रतलाम, इंदौर वाले गराड़ू के मुरीद हैं तो ऐसा कभी मत करिए. सबसे पहले तो गरारी छीलने से पहले हाथ में थोड़ा तेल लगा लीजिए. फिर उन्हें अच्छे से छीलकर साफ़ कर लीजिए. अब इनके मोटे पर गोल पीस काट लीजिए और मीडियम आंच पर तेल में लगभग 75% जितना तल लीजिए. अब उन्हें बाहर निकालकर इनके छोटे-छोटे लगभग एक इंच मोटे पीस करिए और गर्म तेल में थोड़े कड़क होने तक तलिए. अब आपके गराड़ू तैयार हैं. इनपर गराड़ू मसाला डालकर खाइए.
गराड़ू मसाला नहीं है तो क्या करें?
हां ये बहुत बड़ा प्रश्न है, क्योंकि गराड़ू मसाला मालवा के अलावा आसानी से मिलता नहीं. तो ऐसा करिए की एक कटोरी में थोड़ा काला नमक, काली मिर्च पाउडर, अमचूर, जीरा पाउडर, सादा नमक और लाल मिर्च मिलाइए और इन्हें गर्मागर्म गराड़ू पर डालकर अच्छे से मिला दीजिए और अब नींबू रस डालकर गराड़ू का स्वाद लीजिए. याद रखिए लाल मिर्च आपके रोज़ाना स्वाद से थोड़ी ज़्यादा डालिए क्योंकि गराड़ू खाने का असली मज़ा तभी है जब जीभ जले और आंखों से पानी आ जाए:)
गराड़ू की यादें
सर्दियों की रातों में गराड़ू बहुत याद आता रहा है. इंदौर, रतलाम जैसे मध्यप्रदेश के शहरों में लोग ठेलों के आगे लम्बी लाइन लगाकर गराड़ू खाते हैं. जितनी ज़्यादा सर्दी, उतनी ज़्यादा गराड़ू की ख़पत वाला हाल होता है. इन्हें लोग इतना गर्मागर्म खाते हैं कि गराड़ू ने कड़ाही छोड़ी की सीधे प्लेट में और बस फिर सीधे मुंह में 🙂
अब रोज़ रोज बाहर खाने भी नहीं जा सकते तो इसे घरों में बहुतायत में बनाया जाता है…
आप ठंड के मौसम में मालवा गए और गराड़ू नहीं खाए तो समझिए कुछ अधूरा छोड़ आए हैं…
तो जब भी मौक़ा मिले ये स्वाद ज़रूर लीजिएगा और अभी दीजिए इजाज़त जल्द ही फिर मिलेंगे. हां, अगर आपको कुछ कहना है, पूछना है तो [email protected] पर लिख भेजिए. आप नीचे कमेंट बॉक्स में भी अपने मन की बात लिख सकते हैं.