बचपन में मैंने दूरदर्शन पर एक कवि के ज़रिए ये बात सुनी थी कि कमाल की बात ये है कि मां के हाथ का खाना सभी को अच्छा लगता है, मुझे मेरी मां के हाथ का खाना पसंद है, जबकि मेरे बच्चों को उनकी मां के हाथ का खाना पसंद है. है ना बेहद सटीक और कमाल की बात? तो आख़िर हम सब को अपनी मां के हाथ का खाना (जबकि हमारी मांएं अलग-अलग हैं) क्यों पसंद आता है? आइए, कुछ रिसर्च और कुछ अवलोकनों पर नज़र डाल कर यह जान लेते हैं.
आप किसी भी व्यक्ति (तरुण/तरुणी, युवक/युवती, महिला/पुरुष या बुज़ुर्ग) से यह सवाल पूछें कि आपको किसके हाथ का खाना सबसे ज़्यादा पसंद है तो भले ही कुछ और नाम शामिल करें, लेकिन इस सूची में उनकी मां ज़रूर शामिल होंगी. तो क्या कभी आपने सोचा है कि हमें हमारी मांओं के हाथ का खाना इतना पसंद क्यों आता है? इस बारे में जब मैंने इंटरनेट खंगाला तो इससे जुड़े दो-तीन शोधों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया. तो आइए, इन पर नज़र डाल लेते हैं.
समय लेकर और स्नेह के साथ पकाया गया भोजन स्वादिष्ट लगता है
ब्रिटेन की फ्रोज़न फ़ूड फ़र्म बर्ड्स आई ने एक स्टडी करवाई थी. इस शोध के नतीजे कहते हैं कि शोध में भाग लेने वाला 58% लोगों ने उस भोजन को ज़्यादा तृप्तिदायक पाया, जिसे धीमी आंच पर समय लेकर और स्नेह के साथ पकाया गया था.
इस अध्ययन के लिए एक जैसे मेनू वाले क्रिस्मस डिनर की तैयार की गई और लोगों को दो समूहों में बांट दिया गया. एक ग्रुप के लिए शेफ़्स ने बड़े मेहनत और स्नेह से, समय लेकर भोजन तैयार किया और बहुत प्रेम के साथ उन्हें भोजन परोसा गया. जबकि दूसरे ग्रुप के लोगों के लिए, वही मेनू कम समय लेकर तैयार किया गया और उन्हें उतने स्नेह के साथ डिनर ऑफ़र नहीं किया गया. दोनों समूहों से जब खाने के स्वाद के बारे में पूछा गया तो पहले ग्रुप के लोगों ने खाने को बेहद स्वादिष्ट और तृप्तिदायक बताया, जबकि दूसरे समूह के लोगों को खाना ज़्यादा स्वादिष्ट नहीं लगा.
अब इस पृष्ठभूमि के मद्देनज़र यदि आप मां के हाथ के खाने को देखों तो मांएं हमेशा ही धीमी आंच पर, धीरे-धीरे पका हुआ भोजन ही हमें परोसती हैं. यही नहीं, खाना पकाते हुए वे इस भावना से भरी होती हैं कि यह भोजन घर के सदस्यों के लिए पकाया जा रहा है तो स्वादिष्ट बनना चाहिए. इन बातों का असर भी मां के हाथ के पकाए खाने पर पड़ता ही है.
भोजन की सजावट उसे और स्वादभरा बनाती है
द गार्डियन में छपे इस आलेख के मुताबिक़, यदि खाना आकर्षक दिखाई देता है तो वह स्वादिष्ट लगता ही है. ऑक्स्फ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर चाल्स स्पेन्स की अगुआई में की गई इस स्टडी में सामने आया है कि यदि परोसे गए भोजन की सजावट सुंदर हो तो वह ज़्यादा रिच दिखाई देता है और खाने में ज़्यादा टेस्टी लगता है. यहां सजाने के लिए की गई मेहनत भोजन को बेहतर स्वाद देती पाई गई.
अब आप पूछेंगे कि इस बात का मां के हाथ के खाने से क्या लेना देना? तो जनाब जब हमारी मांएं हमें प्लेट में खाना परोस कर देती हैं तो आप ध्यान दीजिएगा कि वे बड़े करीने से यह काम करती हैं तो ज़ाहिर है कि उनके हाथ का खाना हमें लज़ीज़ लगना ही हुआ.
पका-पकाया मिल जाए तो भोजन ज़्यादा स्वादभरा लगता है
अब इस मामले में आज के कामकाजी पति-पत्नियों की बात करें तो ऑस्ट्रेलिया में हुए एक शोध में पतियों का कहना है कि कामकाजी होने के कारण हमें अपनी पत्नियों का खाना पकाने में हाथ बंटाना पड़ता है, जबकि हमारी मांएं कामकाज नहीं थी तो वे रुच कर खाना पकाया करती थीं, जिसमें शायद इसलिए भी स्वाद आता था कि हमें कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती थी. पत्नियों के कामकाजी होने की वजह से भोजन पकाने के लिए बहुत ज़्यादा समय नहीं मिल पाता अत: कई बार खाना धीमी आंच पर नहीं पकाया जा सकता तो यह भी एक वजह है कि हमें अपनी मां के हाथ का खाना ज़्यादा पसंद आता हो.
इस शोध से तो यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि मां के हाथ का खाना हमें इसलिए स्वादिष्ट लगता है, क्योंकि वह धीमी आंच पर और स्नेहभरे मन के साथ पकाया गया होता था.
मां के हाथ से बने खाने के बारे में यह ख़ास अवलोकन
जानेमाने गांधीवादी व समाजसेवी हिमांशु कुमार ने मां के हाथ से बने खाने के बारे में अपने अवलोकन को ये शब्द दिए हैं:
‘‘हम सब अपनी मां के हाथ से बने खाने के स्वाद को याद करते हैं. मैंने इस बात के कारण की खोज करने का विचार किया. अपनी पत्नी को बेटियों के लिए खाना बनाते हुए ध्यान से देखा. जब वह सब्ज़ी ख़रीदती है तो ध्यान से ख़रीदती है कि मेरी बेटियों को कौन सी सब्ज़ी पसंद है.
‘‘अब इस बात पर क्या ईर्ष्या करना कि हमारी पसंद अब दोयम दर्जे पर रख दी गई है? प्रकृति नई पौध पर ज़्यादा ध्यान देने के लिए मां को प्रेरित करती है इसलिए मां बच्चे की पसंद पर ज़्यादा ध्यान देने लगती है.
’’जब सब्ज़ी काटी जाती है तो मां बच्चों की पसंद को ध्यान में रख कर सब्ज़ी काटती है. मुझसे अक्सर कहा जाता है कि आपने ये क्या सब्ज़ी काट दी है बच्चे इसे नहीं खाएंगे, छोड़ देंगे. फिर जब सब्ज़ी बनने लगती है तो सारे मसाले बच्चों की पसंद को ख़्याल में रख कर डाले जाते हैं. हर प्रक्रिया में मां के मन में और हाथ में बच्चे की पसंद का ही ख़्याल छाया हुआ था.
‘‘अब जो खाना बनेगा वह बच्चों को तो पसंद आएगा ही. अब समझ में आ गया कि मेरी मां के हाथ के खाने का स्वाद अब क्यों नहीं मिलता? क्योंकि वो तो सिर्फ़ मां के हाथ के खाने में ही मिल सकता है.
इस पोस्ट को महिलाओं के अधिकारों से न जोड़ा जाए, क्योंकि इसके बाद बर्तन मांजने का काम मैं ही करता हूं.’’