भोजनान्ते पिबेत् तक्रं, दिनांते च पिबेत् पय:।
निशांते पिबेत् वारि: दोषो जायते कदाचन:।।
भोजन के बाद छाछ पीने वाला, सुबह उठकर पानी पीने वाला और रात के समय दूध पीने वाला व्यक्ति सभी प्रकार की व्याधियों से मुक्त रहता है और यह बात आयुर्वेद के अनुसार पूरी तरह से सच है!
यूं कहा जाता है कितना भी भारी खाना खाया गया हो, खाने के बाद छाछ पी लें तो वह आसानी पच जाता है. गर्मी में शरीर को ठंडक देनेवाली, स्वाद में बेमिसाल और स्वास्थ्य के लिए लाभदायक छाछ का सेवन सिर्फ़ भारत में ही नहीं, बल्कि हर उस देश में प्रचलित है, जहां दूध या मक्खन का उत्पादन और उपयोग होता रहा है.
घरों में, बाज़ारों में, होटल में, रेस्तरां में, ढाबे में, देश में, विदेश में मिलने वाली यह छाछ हर दिल अजीज़ है! कोई इसे मठा कहता है, कोई ताक और कोई बटरमिल्क. कोई इसे मसलों के साथ बनता है, कोई सादा पीना पसंद करता है, कोई इसमें पुदीना और हरी मिर्च डालता है तो कोई सिर्फ़ नमक या शक्कर. कोई इसे ऐसे ही पीने के काम में लेता है तो कोई इससे कढ़ी या रायता बना लेता है या बेकिंग या कुकिंग के दूसरे काम में लेता है. छाछ, दूध-दही खानेवाले लोगों के घर में किसी न किसी रूप में उपयोग में लाई जाती है.
केवल भारतीय घरों में नहीं विदेशों में भी इसे ब्रेड बनाने या कई तरह सलाद बनाने और कई बार सूप बनाने में उपयोग में लाया जाता है. पुराने समय में जब बेस ग्रेवी के लिए टमाटर का उपयोग प्रारंभ नहीं किया गया था, भोजन को खटाई देने के लिए छाछ या दही का ही प्रयोग किया जाता था. ये इतने लम्बे समय से भोजन का हिस्सा है कि इसकी अलग से पहचान नहीं मिलती, पर इसके बिना भोजन या खानपान का एक बहुत ज़रूरी कोना अधूरा रह जाएगा.
कहानी छाछ की: कहानियां तो हर व्यंजन की हैं. कोई खट्टी तो कोई मीठी, कोई तीखी तो कोई खारी पर छाछ की कहानी बिल्कुल अलग है… अब आप पूछेंगे क्यों? और मुझे बताना ही होगा, क्योंकि मैं कहानियां सुनाने ही तो आती हूं. तो इस कहानी में अलग ये है कि हम-आप आज जो छाछ देखते, पीते हैं, पुराने ज़माने में ये ऐसी होती ही नहीं थी? कन्फ़्यूज़ कर रही हूं आपको? अच्छा बताती हूं, बटरमिल्क यानी छाछ, जैसा कि मैंने पहले भी बताया सभी दूध उत्पादक देशों में सदियों से बनाई जाती रही है और ये कैसे बनाई जाती थी? ये बनाई जाती थी दही में से मक्खन निकालकर. मतलब खट्टे दही में ठंडा पानी डाला जाता था और उसे अच्छे से माथा जाता था. इस मथने की प्रक्रिया में दही में से मक्खन अलग हो जाता था, जिसे एक तरफ़ निकाल लिया जाता था और और जो पतला पानी जैसा बच जाता था वो होती थी छाछ. ये ज़्यादातर दूध उत्पादकों के घरों में बनती थी, पर जैसे-जैसे इसकी लोकप्रियता बढ़ी, इसकी मांग बढ़ने लगी तो छाछ कमर्शल रूप से बनाई जाने लगी. लगभग वर्ष 1920 के आसपास छाछ का आज वाला रूप सामने आया, जिसमें दही को पानी मिलाकर पतला किया जाता है. मतलब आज वाली छाछ दही का ही पनीला रूप है. इन दोनों छाछ में एक अंतर है और वो ये है कि पुरानी वाली छाछ में वसा (फ़ैट) की मात्रा काफ़ी कम होती थी, क्योंकि उसमें से मक्खन निकाल लिया जाता था, पर नई वाली छाछ दही घोटकर बनाई जाती है तो उसमें दही वाले सारे अवयव मौजूद होते हैं. हालांकि अब भी कुछ घरों में पहले की ही तरह से छाछ बनाई जाती है, पर सामान्य तौर पर अब छाछ का अर्थ पतला दही ही है और ये भी उतना ही गुणकारी है.
क़िस्सा छाछ का: मेरे पास छाछ के कई क़िस्से हैं. मेरे बचपन की यादों में छाछ का भी डेरा है, वो ऐसे कि हमारे नानाजी के काफ़ी खेत थे और गाय, भैसें भी थीं तो घर का दूध-दही बहुत होता था और उस दही से निकला जाता था मक्खन और घी. दोनों हाथ से दही मथते तो मैंने किसी को नहीं देखा, क्योंकि जब मैं छोटी थी तब भी छाछ बनाने की एक मशीन हुआ करती थी, जिसमें दही डाला जाता था और मक्खन निकाला जाता था. इस मक्खन से घी बनाया जाता था, जिसके बनने में पूरे घर में अजीब-सी महक फैल जाती थी. इसी के साथ निकलती थी ढेर सारी छाछ, जिसे लेने के लिए आसपास के घरों से संदेसा पहले ही आ जाता. अब चूंकि ये छाछ हर दूसरे दिन बनती और कई जान-पहचान वालों के यहां भेजी जाती तो कभी-कभी ये बड़ी कोफ़्त का काम होता कि “ज़रा फलने के यहां जग भरकर, पतीली भरकर छाछ दे आना,’’ पर नानाजी ढेर सारी छाछ बनाते और कभी किसी को मना नहीं करते.
दूसरा क़िस्सा भी बड़ा मज़ेदार है. मैं बचपन से दही नहीं खाती थी. यहां तक कि कोई मेरे सामने बैठकर दही खता तो भी मैं खाना नहीं खा सकती थी. पर जब गर्भवती हुई तो डॉक्टर ने कहा-दही खाओ. अब मैं डॉक्टर से कहूं कि डॉक्टर मैं दही तो न खा सकूंगी. तो लंबी चली बातचीत के बाद ये निष्कर्ष निकाला गया कि मैं बाज़ार से लाकर छाछ पिऊं (हालांकि डॉक्टर इसके पक्ष में कम थीं. वो चाहती थीं मैं घर के दही से छाछ बनाऊं, पर वो मुझसे होता नहीं था!). तो ऐसे धीरे धीरे मैंने छाछ दवाई की तरह पीना शुरू किया और अब तो ये हाल है कि पूरे साल लगभग रोज़ ही हम छाछ पीते हैं और मेरा बेटा भी छाछ बड़े चाव से पीता है.
आपके भी कुछ क़िस्से होंगे छाछ से जुड़े हुए, किसी ढाबे की छाछ का क़िस्सा या साइकल पर छाछ बेचते किसी अंकल का क़िस्सा… हमें लिख भेजिएगा न इस आई डी पर: [email protected]
अगली बार फिर आऊंगी ऐसे ही क़िस्सों और किसी व्यंजन की कहानी के साथ.
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