कामयाब कौन नहीं होना चाहता? बतौर एक व्यक्ति कामयाब होने के लिए केवल उस व्यक्ति को कोशिश करनी होती है, लेकिन बतौर एक देश कामयाब होने के लिए देश के हर नागरिक को अपनी भूमिका निभानी होती है. क्या हम बतौर नागरिक अपनी भूमिका निभा रहे हैं? इसी सवाल का जवाब ढूंढ़ते हुए जनता को रुचिकर अंदाज़ में आईना दिखा रही हैं भावना प्रकाश.
मुझे एक दिन ‘आज़ाद’ की भटकती आत्मा मिल गई. नाम तो सुना होगा आपने! हां, हां, वही आजाद जिसे मीडिया वालों ने अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए हीरो बनाया, मगर जब वो सच में हीरोगिरी करने लगा तो सारा मीडिया उसके विरुद्ध खड़ा हो गया. मगर मुहब्बत की तरह क्रांति की आग भी ज़माने की आंधियों से कब बुझती है? उसके सिर पर शहादत का भूत सवार था सो वो शहीद हो गया. मगर जाते-जाते ये संदेश दे गया कि जागो और संगठित हो जाओ. शहीद था इसलिए स्वर्ग गया. वहां आराम से रहते-रहते जाने दिमाग़ में क्या फ़ितूर सवार हुआ कि सोचा चलो अपने जगाए हुए लोगों का सुख-चैन देख आऊं.
यहां आया तो देखा कि जनता पहले की ही तरह दुखी है. वो बेचारा फिर संत्रस्त हो गया. सड़क किनारे दुखी बैठा था कि हमसे टक्कर हो गई. हमने पूछा कौन हो भाई तो उसने कहा क्रांतिदूत. हमने पूछा क्या चाहते हो तो उसने कहा जनता को जगाना चाहता हूं, ताकत बांटना चाहता हूं. हम हैरान! ये कैसा क्रांतिदूत है जो बटोरने के बजाय बांटने की बात करता है. कोई ओरिजनल एंटीक पीस लगता है.
हमारा दिल तो बल्लियों उछलने लगा. हम तो समझे थे कि हमारी प्रजाति लुप्त ही हो गई, लेकिन अपनी प्रजाति का जीव देखते ही क्रांति की सोई हुई चिंगारी जाग उठी. हमको भी सबको जगाना बहुत पसंद था पर अपनी तो कोई सुनता ही न था. हम कहते- पॉलीथिन में कूड़ा मत फेंको, गाय खाएगी तो मर जाएगी. लेकिन लोग नहीं सुनते थे, उसको सुविधा पसंद है. हम कहते- चलो पब्लिक प्लेस पर लाउडस्पीकर लगाने वाले को मना कर आएं. पा लोग नहीं मानते थे, उन्हें बखेड़ा पसंद नहीं.
तो हमने आज़ाद के लिए भीड़ जुटानी शुरू कर दी. सोए लोगों को जगाया और ऊंघते लोगों में चुस्ती फूंकी. मगर ये क्या? एक तरफ़ के लोगों को जगाते तो दूसरी तरफ़ के सो जाते. मुश्क़िलें आईं पर धीरे-धीरे हमारी मेहनत रंग लाने लगी. जैसे-जैसे भीड़ बढ़ती जाती हमारा हौसला भी बच्चे की कल्पनाशक्ति की तरह फैलता जाता.
आज़ाद की जयजयकार हो रही थी और मेरा दिल इस ख़्वाब में खोया था कि जागृति अब आई तो तब आई. मगर जागृति लाना इतना ही आसान होता तो बेचारे बुद्ध राज-पाट छोड़ कर दर-दर क्यों भटकते? गांधी ठिठुरते जाड़े में एक धोती पहने सूत क्यों कातते? सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस इतनी यातनाएं क्यों सहते? जागृति लाना इतना आसान होता तो हमारा आज़ाद मरने के लिए इतनी मेहनत क्यों करता? सो जागृति से पहले ही सुषुप्ति आ गई.
हुआ ये कि हमारे मंच पर जाने कहां से एक बाबा टपक पड़े. भगवा वस्त्र, खिचड़ी दाढ़ी-मूंछ में वो बिल्कुल ऋषि-मुनि का अवतार लग रहे थे. बेचारे अहिंसक आज़ाद ने बोलने की बहुतेरी कोशिश की पर बाबा की ओजपूर्ण वाणी के आगे उसकी एक न चली. उन्होंने आज़ाद को परे धकेला और माइक अपने हाथ में ले लिया.
“मित्रों जल्द ही सबके दिन फिरने वाले हैं. आखिर घूरे के भी दिन बदलते हैं, फिर आप तो इन्सान हैं. कलियुग के कारण हम इतने दुख सहते रहे. अब उसके अत्याचारों से जनता को बचाने के लिए जल्द ही भगवान विष्णु का नया अवतरण होने वाला है. उनके पास सुपरमैन की सारी शक्तियां होंगी. वो जादू से सारी समस्याएं हल करेंगे रामराज्य की स्थापना होगी.” बाबाजी की आशावादी और ओजस्वी वाणी सुनकर भीड़ में उत्साह की लहर दौड़ गई. लोग जयजयकार करने लगे. बाबाजी ने कहा कि अब आप चढ़ावा चढ़ाइए और घर जाकर सुख के दिनो के सपनों में खो जाइए.
आनंद-विभोर और उत्साहित भीड़ चढ़ावा चढ़ाकर अपने घरों को लौटने लगी. हम सबको रोकने का निष्फल प्रयास करते ही रह गए और लोग थे कि घरों में पहुंचकर रजाइयों में दुबक कर सपनों में खो चुके थे.
मैंने मायूस नजरों से आज़ाद की ओर देखा. वो बिल्कुल भी मायूस नहीं था. कहने लगा कि हम फिर से प्रयास करेंगे और जब तक सफल न हो जाएं, करते रहेंगे.
मेरे मन में फिर उत्साह की लहर दौड़ गई. इस बार हमने जागते हुए, वाद-विवाद करते हुए लोगों की भीड़ इकट्ठी की. जैसे-जेसे भीड़ बढ़ती जाती हमारा उत्साह मई की सुबह की धूप सा फैलता जाता. हमें लगा कि इस बार तो जागृति अब आई तो तब आई. मगर जागृति लाना इतना आसान होता तो ‘ईदगाह’ लिखने वाले प्रेमचंद को अपने अंतिम दिनों में ‘कफ़न’ क्यों लिखना पड़ता? सुकरात को ज़हर क्यों पीना पड़ता? सो जागृति से पहले ही एक बार फिर सुषुप्ति आ गई.
हुआ ये कि हमारे मंच पर फिर से आज़ाद को परे धकेल कर एक बुद्धिजीवी आ गया. “तुम लोगों की अक्ल को क्या हो गया है? ये आज़ाद खुद तो मरेगा ही तुमको भी ले डूबेगा. देखा नहीं तुमने विभिन्न चैनलों पर कि दुर्व्यवस्था से टकराने वालों का क्या होता है?” उसने जनता को डांटना शुरू किया. बेचारी जनता सहम गई. तब उसने जनता को बिल्कुल बच्चों की तरह बड़े प्यार से समझाया. “देखो, हम हैं न! हम भले ख़ुद बच्चों के पार्क की हैंगिंग रॉड पर नहीं लटक सकते, पर एवरेस्ट चढ़ने वाले को बता सकते हैं कि कैसे चढ़ो. ख़ुद भले ही एक बल्ला घुमाने से कन्धा दर्द हो जाए पर क्रिकेट के कप्तान की सारी गलतियां बता सकते हैं. बेचारा अभिमन्यु फालतू में मारा गया. एक मौक़ा दिया होता तो सात महारथियों से अकेले, निःहत्थे लड़कर जीत कर बाहर निकलने की ऑन-लाइन गाइडेंस देने वाले कम से कम लाख बुद्धिजीवी तो मिल ही जाते. हम ईमानदार बुद्धिमान इतने सालों से यही तो कर रहे हैं. पहले समस्या को समझा है, धीरज धरा है फिर समझा है, सर घूम गया, तब भी समझते गए, ज़िंदगी बीत गई तब समझ कर सबको समझाया है कि कुछ समझ नहीं आया. कभी टीवी के शो में तो कभी गपशप में इतनी समझदारी बांटी कि सिस्टम को बदलना मुश्क़िल नहीं नामुमकिन है. तरीक़ा ही नहीं है जी कोई. हम इतना ज्ञान बांटते हैं, पर आज़ाद हैं कि समझते ही नहीं. तुम्हारे आज़ादों की आड़ी-तिरछी कोशिशें हमें शर्मसार करती हैं. जाओ अपने घर जाकर सुरक्षित बंद हो जाओ. तुम्हें जोखिम उठाने की ज़रूरत नहीं है. हम हैं न? एक बार फिर से समझेंगे, फिर से समझकर तब तुमको समझाएंगे कि कुछ समझ नहीं आया. बड़ी उलझी डोर है, तुम्हारे बस की नहीं.‘‘ उत्साहित भीड़ इस बार बुद्धिजीवी की जयजयकार करने लगी. हम समझाते ही रह गए और उनके समझ में आ गया कि उनकी भलाई घर में बंद हो जाने में है. बाक़ी समस्याओं को सुलझाने के लिए बुद्धिजीवी है न!
हमारी बस्ती का आलम ये था कि आधे लोग रजाइयों में दुबक कर सो रहे थे. वो बाबा के अवतरित महापुरुष द्वारा उनके घर में सोने के भंडार भरे जाने का सपना देख रहे थे. जो जग रहे थे वो चाय के साथ गपशप कर रहे थे कि वैसे तो व्यवस्था को बदलना नामुमकिन है पर हो सकता है कि बुद्धिजीवी कुछ कर ले. और मैं और आज़ाद मंच की सीढ़ियों पर बैठे दिल समझाने को गा रहे थे- हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब, एक दिन…
फ़ोटो: फ्रीपिक