कोविड-19 की दूसरी लहर हमारे देश के हर हिस्से में कहर ढा रही है, लोग असहाय से अपने क़रीबियों को लेकर अस्पतालों का चक्कर लगा रहे हैं. बेड्स, ऑक्सिजन, दवाइयां, प्लाज़्मा आदि की आवश्यकताओं के लिए भटक रहे हैं, ऐसे में सोशल मीडिया ने लोगों को थोड़ी राहत दी है. क्योंकि कई लोग इसके ज़रिए पैन इंडिया लेवल पर लोगों की मदद कर रहे हैं, उन तक सही सूचनाएं पहुंचा रहे हैं. अपने जॉब, घर के काम के साथ-साथ ये कुछ लोग, जो दिन-रात सत्यापित सूचनाएं लोगों तक पहुंचाने में लगे हैं, हमारी स्व-स्फूर्त कोरोना योद्धा सीरज़ में हम आपकी इन कोरोना योद्धाओं से मुलाक़ात करवाएंगे.
वे केंद्र सरकार में अनुवादक हैं, लेखिका हैं और लखनऊ में रहती हैं. वे पोलियो सर्वाइवर हैं और व्हीलचेयर डिपेंडेंट भी. वे अविवाहित हैं और ख़ुद ही अपने जीवन को मैनेज करती हैं. जब कोरोना की दूसरी लहर ने अपना कहर बरपाना शुरू किया था, तब कंचन सिंह चौहान ख़ुद भी कोरोना की चपेट में थीं. उस समय न तो अस्पताल तैयार थे, न प्रशासन. लोगों में अफ़रा-तफ़री का माहौल था, जो कई तरह की क़िल्लतों के साथ आज भी जारी है. पर तभी कंचन ने निर्णय ले लिया था कि उन्हें लोगों की मदद करनी है. वे उन्हीं लोगों में से हैं, जो सोच रहे थे कि हम मदद कैसे कर सकते हैं? अभूतपूर्व समस्या और मदद का कोई अनुभव नहीं, बावजूद इसके वे सबकुछ छोड़कर फ़ेसबुक, वॉट्सऐप और ट्विटर के ज़रिए लोगों की मदद के लिए वे कैसे आगे आईं, इस बारे में हमने उनसे बातचीत की. हमारी यह बातचीत संक्षिप्त रूप में आप भी पढ़िए.
आपने कैसे तय किया कि अब आपको हेल्प करना ही है, वो भी जब आप ख़ुद कोविड से ग्रस्त थीं?
चूंकि मैं व्हीलचेयर डिपेंडेंट हूं, मैंने अपनी मदद के लिए कुछ अटेंडेंट्स रख रखे थे. लेकिन जब मैं कोरोना पॉज़िटिव हुई तो मुझे उन्हें हटाना पड़ा. मैं ख़ुद ही अपने सारे काम कर रही थी और बहुत कमज़ोर भी हो गई थी. पानी गर्म करना, अपने कमरे की झाड़ू-बुहारी और कम से कम अपने खाने के चार बर्तन धोना ये काम तो था ही. इस बीच मेरे अपने जीजाजी भी कोरोना संक्रमित हो गए और उनका ऑक्सिन लेवल काफ़ी नीचे चला गया. वो 16 अप्रैल का दिन था, उस पूरे दिन मैं अपने जान-पहचान के लोगों को फ़ोन लगाती रही. लेखिका होने के कारण मेरा सर्कल बड़ा है, पर फिर भी उनको अस्पताल में एक बेड दिलवाने के लिए मुझे बहुत मशक़्क़त के बाद एक ऐसा अस्पताल मिला, जिसपर बहुत भरोसा नहीं था मुझे. उनकी स्थिति आज भी गंभीर है, लंग्स डैमेज हो गए हैं. हम उनके जीवन को लेकर रोज़ एक लड़ाई लड़ रहे हैं. हालांकि अब उन्हें बेहतर हॉस्पिटल मिल गया है. इस तरह निजी रूप से मैंने कोविड को महसूस किया.
मुझे लगा कि जब मैं कोविड से ठीक हो जाऊंगी तो लोगों को मदद करूंगी. जब मेरी रिपोर्ट आई तो पता चला कि इन्फ़ेक्शन बढ़ा हुआ है और इसे ठीक होने में महीनाभर लग जाएगा. इधर देश में भी मरीज़ों की संख्या बढ़ रही थी. लोग बदहवास थे. तो मुझे लगा मैं इतना रुकी तो बहुत कुछ हाथ से चला जाएगा. उसी दिन मैंने अपने घर के क़रीबी लोगों का एक ग्रुप बनाया और उनसे कहा कि मैं अच्छी हूं और अब लोगों की मदद करना चाहती हूं. इसलिए मैं अब आप लोगों से बात नहीं करूंगी. इस ग्रुप पर कुशल समाचार भेजती रहूंगी. क्योंकि मुझे वैसे भी कोविड के चलते बात कम करने को कहा गया था. फिर मैंने दोस्तों से कहा कि मुझे उन ग्रुप्स से जोड़ दो, जो मदद कर रहे हैं.
कैसे किया आपने यह काम?
मैंने सोचा था कि मैं और कुछ नहीं कर सकती तो लेटे-लेटे नंबर वेरिफ़िकेशन का काम तो कर ही सकती हूं, लेकिन इसके बाद मदद के लिए मैं भारतभर के जाने-अनजाने लोगों से जुड़ती चली गई. और घर पर बैठे-बैठे अब ग्रुप्स और चेन्स के ज़रिए लोगों की मदद कर पा रही हूं. अब हमारे पास लखनऊ में युवा स्वयंसेवियों की एक अच्छी टीम हो गई है. राष्ट्रीय स्तर पर टीम बन गई है. दीपक, कबीर लखनऊ से हैं और सरगम जो उरई की हैं, उन्होंने मुझे कई ग्रुप्स से जोड़ा. सही सूचनाएं मिल रही हैं तो अब मैं दिनभर लगी रहती हूं मदद के काम में. केवल दो-तीन घंटे की नींद लेती हूं, अपने घर को मैनेज करने में लगने वाले समय को थोड़ा कम किया, ताकि मदद के लिए समय निकाल सकूं.
अब मुझे पता हो गया है कि मदद के लिए किस डॉक्टर से बात करूं. अब मुझे लोग मदद के लिए भी कॉल करते हैं और हमारी टीम से जुड़ने के लिए भी. लखनऊ से रूबी, श्लोक, ओजस, अमन, ज़फ़र और भी बहुत से नाम लेना चाहती हूं, ये युवा बच्चे रातभर काम करते हैं. कहां सिलेंडर मिल रहा है, उसे कहां पहुंचाना है जैसे काम फ़ील्ड पर उतरकर कर रहे हैं. मैं तो घर से कर रही हूं, लेकिन ये टीम तो ग्राउंड पर काम कर रही है. जिनके घर में जांच करवाने के लिए लोग उपलब्ध नहीं हैं, वहां जा कर ये बच्चे मरीज़ को अपने साथ ले जाकर जांच भी करवा देते हैं. खाना पहुंचा देते हैं. हॉस्पिटल्स तक जा कर उपलब्ध बेड्स की सही संख्या पूछ कर आते हैं, क्योंकि पोर्टल पर सही अपडेट्स नहीं मिलते. तभी तो हम लोगों की मदद कर पाते हैं. मेरी एक पुरानी फ्रेंड जो डॉक्टर हैं, प्रतिभा सचान, वो मुझसे जुड़ी तो उन्होंने कहा कि मुझसे मदद मांगने वाले जो लोग ऑक्सिजन का ख़र्च नहीं उठा पाएंगे, वो उनके लिए मदद करेंगी. अब मेरे पास ऐसी छोटी-सी टीम है, जिसकी बदौलत मैं लखनऊ में लोगों की मदद कर सकती हूं.
कैसे अनुभव हुए आपको इस दौरान?
शुरुआत में तो पता ही नहीं था कि हम कैसे मदद करें? लेकिन अब पता है कि कहां से क्या मिल सकता है, कैसे मदद कर पाऊंगी. मदद करते हुए कई अच्छे और कई कड़वे अनुभव हुए. पलभर को बुरा लगता है, लेकिन फिर लगता है कि ये भी तो परेशान हैं और परेशानी में ही ऐसा कह रहे हैं. पैन्डेमिक का हाहाकार चारों ओर है ऐसे में ख़ुद को संयत करके रखना सभी के लिए मुश्क़िल है, मरीज़ के अटेंडेंट्स के लिए थोड़ा ज़्यादा मुश्क़िल है. एक केस आया था, जिसमें मरीज़ की उम्र 45 के क़रीब होगी. उनकी पत्नी का फ़ोन आने के बाद मैंने रातभर जाग कर बार-बार अस्पताल के डॉक्टर (सीएमओ) से बात की, लेकिन वहां वेंटिलेटर बेड ख़ाली नहीं था. उन्होंने कहा कि बिस्तर ख़ाली होते ही बताएंगे, क्योंकि मरीज़ के दो छोटे बच्चे हैं और वे इस ज़रूरत को समझते हैं. लेकिन सच यह है कि एक मरीज़ को हटाकर दूसरे मरीज़ को वेंटिलेटर पर तो नहीं रखा जा सकता. केस इलाहाबाद का था. लेकिन दुर्भाग्य से सुबह पांच बजे, जिनके लिए मैं बेड की कोशिश कर रही थी, उनकी मृत्यु हो गई. जब मैंने सुबह उन्हें फ़ोन किया तो अटेंडेंट ने मुझे ढेर सारे अपशब्द कहे. मुझे पता है, जब कोई किसी अपने को खोता है तो उसकी मनोदशा बहुत अलग होती है, क्योंकि मैं अपने परिवार में बहुत लोगों को खो चुकी हूं, समझती हूं. एक मौत आपके घर की हालत बिगाड़ देती है. मुझे बहुत दुख हुआ कि चाहकर भी मदद नहीं हो पाई, पर ऐसे अनुभवों के बाद लगता है कि शायद किसी दूसरे की मदद कर पाऊं ये सोचकर दोबारा काम पर लग जाती हूं.
क्या कहेंगी मदद मांगनेवालों को, ताकि उन तक मदद जल्दी पहुंच सके?
लोगों से यही कहना है कि स्पष्ट जानकारी दें. कई बार लोग समस्या बता देते हैं, नंबर दे देते हैं, लेकिन जब हम तहक़ीक़ात कर के उन्हें फ़ोन करते हैं तो वे फ़ोन ही नहीं उठाते. हम उन्हें सहायता मुहैय्या कराने के लिए अपनी ऊर्जा लगाते हैं. हमारे पास भी सीमित ही ऊर्जा है. यदि हमसे मांगने के बाद आपको कहीं और से मदद मिल गई है तो इस बारे में भी बता दीजिए, ताकि हम अपनी ऊर्जा को किसी दूसरे ज़रूरतमंद पर लगा सकें और वह लाभान्वित हो सके. हम लोग इस काम के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं, बस आचानक ज़रूरत आन पड़ी तो इसमें जुट गए हैं. आप ऐसे व्यक्ति का नंबर दें, जो फ़ोन पर क्विक रेस्पॉन्स दे सके. साथ ही आपको क्या चाहिए, इसका सही आकलन करें और वही मांगें. इस समय मरीज़ ज़्यादा हैं और संसाधन कम तो मदद लेने वालों की इतनी ज़िम्मेदारी तो बनती है कि वे वही मांगे, जो उन्हें सचमुच चाहिए.
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