हमारे देश की जाने कितनी प्रतिशत मासूम आबादी केवल शिक्षा का माध्यम मातृभाषा में न होने के कारण अपने अनमोल बचपन का अधिकतर हिस्सा रट्टाफ़िकेशन में लगा देती है. जो बातें एक बार मातृभाषा में समझ-समझकर पढ़ने से स्वतः ही याद हो जाती हैं और वाक्य निर्माण पर अधिकार आने के साथ ही इनसान उन्हें आराम से लिख सकता है, वे बच्चों को रटनी पड़ती हैं. मनोवैज्ञानिक भी इस बात को प्रमाणित करते हैं कि मातृभाषा में पढ़ने से बौद्धिक के साथ-साथ भावनात्मक विकास भी बेहतर होता है. तो देसी भाषाओं का, हर क्षेत्र की मातृभाषा का अस्तित्व, बच्चों की स्कूली पढ़ाई को उनकी मातृभाषा में करवा कर बचाए रखा जा सकता है. यह करने पर भाषा को बचाने की अलग से कोई कवायद करने की ज़रूरत भी नहीं रह जाएगी. इस बारे में पढ़ें यह नज़रिया…
बात उन दिनों की है जब मैं शिक्षण व्यवसाय में थी. मैं कक्षा आठ की कक्षा-अध्यापिका थी, जब एक बार एक योजना के तहत कुछ ऐसे बच्चों पर, जिन्हें हमारे अधिक ध्यान की ज़रूरत थी, कक्षा अध्यापिका और विषय अध्यापिकाओं द्वारा मिलकर काम करने की योजना बनी. विषय अध्यापिकाओं ने अपने विषय के तथाकथित कमज़ोर बच्चों के नाम मुझे दिए तो मुझे वो नाम पढ़कर बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि वे सभी मेरी कक्षा के होनहार छात्र थे.
ख़ैर! मैंने काम शुरू किया. योजनानुसार मैं ज़ीरो पीरियड में उन बच्चों को लेकर बैठी. बाक़ी बच्चे किसी आने वाली क्रियात्मक गतिविधि की तैयारी कर रहे थे. पहला हफ़्ता विज्ञान के नाम था. मैंने अपनी आदतानुसार और प्रधानाध्यापिका के निर्देशानुसार भी सबसे पहले उन बच्चों को विश्वास में लेकर जानना चाहा कि उन्हें समस्या कहां आ रही है. वे ठीक से बता नहीं सके, मगर विषय अध्यापिकाओं के बनाए अभ्यास-कार्य अपने सामने करने को कहने के साथ ही पर्त-दर-पर्त उनकी दिक़्क़तें खुलती गईं. मैंने उन्हें उस अभ्यास-कार्य में लिखे प्रश्न समझाए फिर उनके उत्तर पूछे. उन बच्चों ने मेरे कितने भी घुमावदार तरीक़ों से पूछे गए प्रश्नों का सही उत्तर दे दिया. उन पांच में से कोई एक भी बच्चा ऐसा नहीं था, जो उस पाठ का कोई एक भी उत्तर न दे पाया हो.
तब मैंने उन्हें वही जवाब लिखने को कहा पर आधे घंटे बाद जब अभ्यास-कार्य जमा करने का समय आया तो अधिकांश बच्चों की शीट्स लगभग ख़ाली थीं. मेरे प्यार से कारण पूछने पर आश्चर्यजनक खुलासा हुआ. मैं हिंदी अध्यापिका थी और आदतानुसार मैंने अंग्रेज़ी में बनी उन शीट्स का मतलब भी उन्हें हिंदी में समझाया था और उन्होंने अपने मौखिक जवाब भी हिंदी में ही दिए थे. बड़ी मुश्क़िल से वे सकुचाते हुए बोले,‘‘मैम, हमें आता तो सब कुछ है पर हम अंगेज़ी में अपने उत्तर को वाक्यों में ढाल नहीं पाते. गणित में तो ‘वर्ड-प्रॉब्लम्स’ अंग्रे़जी में समझ में ही नहीं आतीं. चूंकि ये एक ‘रेपुटेड’ पब्लिक स्कूल था इसलिए हिंदी के अलावा और किसी कक्षा में हिंदी में बात करना सख़्त मना था, इसलिए उनकी विषय अध्यापिकाओं को ये तक नहीं पता था कि बच्चों को समस्या उनके विषय में नहीं, विषय के मातृभाषा में न होने के कारण है.
हमारे देश की जाने कितनी प्रतिशत मासूम आबादी केवल शिक्षा का माध्यम मातृभाषा में न होने के कारण अपने अनमोल बचपन का अधिकतर हिस्सा रट्टाफ़िकेशन में लगा देती है. जो बातें एक बार मातृभाषा में समझ-समझकर पढ़ने से स्वतः ही याद हो जाती हैं और वाक्य निर्माण पर अधिकार आने के साथ ही इनसान उन्हें आराम से लिख सकता है, वे बच्चों को रटनी पड़ती हैं. और जब वो किसी तरह व्यावहारिक आवश्यकता को समझकर अंग्रेज़ी को आत्मसात कर लेते हैं तो उनसे कहा जाता है कि सरकारी कामकाज हिंदी में करें. अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े बच्चे के लिए हिंदी में काम करना हमेशा एक मुसीबत ही रहेगी और हिंदी माध्यम से पढ़े बच्चे को हिंदी में काम करने को कहने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.
मनोवैज्ञानिक भी इस बात को प्रमाणित करते हैं कि मातृभाषा में पढ़ने से बौद्धिक के साथ-साथ भावनात्मक विकास भी बेहतर होता है. बहुत से देशों में पढ़ाई का माध्य उनकी राष्ट्र भाषा है, पर अंग्रेज़ी एक विषय की तरह पढ़ाई जाती है और वहां के लोगों की अंग्रेज़ी बहुत अच्छी होती है. दूसरे देशों की शिक्षण पद्धतियों के अध्ययन के तहत एक प्रोगाम में जर्मन की एक अध्यापिका ने बताया था कि उनके यहां जब बच्चा नर्सरी में आता है तो उसे बिल्कुल इंगलिश नहीं आती. वहां मीडिया की भाषा भी जर्मन है. और वो किस तरह उसे स्कूल छोड़ने तक इंग्लिश में निपुण कर देते हैं. यही हमारे देश में भी किया जा सकता है.
जहां तक हिंदी को अंग्रेज़ी के विकल्प के रूप में सरकारी कामकाज के लिए इस्तेमाल किए जाने की कवायद है; सैद्धांतिक रूप से तो ये विचार बहुत अच्छा मालूम होता है. एक राष्ट्र, एक राष्ट्रभाषा का सिद्धांत एक व्यापक और समर्थ कहे जाने वाले राष्ट्र का गौरव हो सकता है. लेकिन उसका एक व्यावहारिक पक्ष भी है. भारत अलग-अलग प्रकार के सुंदर फूलों से भरे गुलदस्ते की तरह है. इसकी विविधता में ही इसका सौंदर्य है. भारत की सभी भाषाएं समृद्ध और गौरवशाली हैं. लगभग सभी भाषाओं में सुंदर और प्रेरणादाई साहित्य मौजूद है और सभी अपनी मातृभाषा का सम्मान करते हैं और अपने साहित्य को सहेजना और गौरव दिलाना चाहते हैं, जो कहीं से भी ग़लत नहीं है.
राजकाज की भाषा अथवा शिक्षण की भाषा उनकी भाषा के अतिरिक्त किसी भी भाषा को बना देने से उन्हें लगता है कि उनकी भाषा मरने लगेगी. ये डर उनके मन में असुरक्षा की भावना पैदा करता है. इसलिए अंग्रेज़ी का विकल्प खोजने का विचार तो स्वागतयोग्य है पर उसका विकल्प यदि हिंदी के बजाए हर क्षेत्र की मातृभाषाओं को चुना जाए तो ये लोगों को सहज स्वीकार्य होगा. उनकी भाषा को सम्मान, विकास के अवसर और उसके अधिकार देकर ही अहिंदी भाषी भारतीयों में हिंदी के प्रति सम्मान पैदा किया जा सकता है और हिंदी उन पर थोपी नहीं जाएगी, ये आश्वासन देकर ही उनके मन में हिंदी के प्रति नफ़रत ख़त्म की जा सकती है. उसके बाद ये अनुरोध किया जा सकता है कि अहिंदी भाषी हिंदी को और हिंदी भाषी किसी एक अन्य भारतीय भाषा को सिर्फ़ बोलने समझने की कुशलताएं देने का लक्ष्य लेकर अपने पाठ्यक्रम में शामिल करें. ताकि सम्पूर्ण राष्ट्र में एक भाषा ऐसी हो; जिसे लेकर कहा जा सके कि वो सबको आती है.
दूसरी तरफ़ एक विदेशी भाषा को कामकाज की भाषा बनाए जाने पर आपत्ति भी सम्मान योग्य लगती है. इतनी समृद्ध भाषाएं होते हुए हम आख़िर एक विदेशी भाषा पर निर्भर क्यों रहें? तो इस विकल्प पर विचार किया जा सकता है कि हर क्षेत्र में कम से कम पढ़ाई का माध्यम उस क्षेत्र की मातृभाषा ही हो. हो सके तो सरकारी कामकाज के लिए, उच्च शिक्षाओं की प्रवेश परीक्षा और उच्च शिक्षा के लिए भी प्रादेशिक भाषा को के इस्तेमाल को सम्मान की दृष्टि से देखा जाए.
हिंदी के विकास के लिए समय-समय पर अटपटे प्रयत्नों की बाढ़ सी आती रहती है. लेकिन एक हिंदी शिक्षिका के रूप में अपने अनुभवों से एक दृष्टिकोण बना है कि यदि केवल हिंदी भाषी क्षेत्रों में शिक्षा का माध्यम हिंदी कर दिया जाए तो हिंदी को और किसी सम्मेलन या प्रचार की ज़रूरत नहीं है. ये इतनी समृद्ध भाषा है कि अपना प्रचार खुद कर लेगी. यही नहीं लाखों बच्चे अपनी संस्कृति से दूर होने या स्वयं को अभिव्यक्त न कर पाने के कारण पनपने वाली मानसिक विकृतियों से भी बच जाएंगे.
वैसे भी भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है. भाषा मनुष्य के लिए है, मनुष्य भाषा के लिए नहीं. इसलिए किसी भी भाषा के प्रचार-प्रसार का अपना कोई महत्त्व नहीं है. ये मनुष्य की आत्माभिव्यक्ति का माध्यम बन सके, लोग इसके प्रयोग में हीनता न समझें, इसके लिए इतना ही गौरव बहुत है. जब अधिक लोग अपनी मातृभाषा के माध्यम से पढ़ेंगे तो उसी में ही आत्माभिव्यक्ति करेंगे. तो उनमें से बहुत से ऐसे होंगे जिनका रुझान साहित्य में होगा. वे अपनी मातृभाषा का साहित्य स्वेच्छा से पढ़ेंगे और सहेजेंगे साथ ही रचेंगे भी. तो भाषा का विकास तो स्वतः ही हो जाएगा. हिंदी ही नहीं, किसी भी मातृभाषा के साथ यही बात लागू होती है.
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