दुनिया के हर समाज में ‘सेक्स’ को गंदा माना जाता है, ये हम नहीं कह रहे हैं, बल्कि यह हार्वड के एक साइकोलॉजिस्ट का कथन है. यदि सेक्स इतना ही बुरा है तो इस प्रक्रिया के दौरान आख़िर संतुष्टि या आनंद की वजह से हम और ख़ासतौर पर महिलाएं आवाज़ें क्यों निकालती हैं? इस बात की तह तक हमें ले जा रहे हैं वीवॉक्स के संस्थापक संगीत सेबैस्टियन.
यदि आपने कभी किसी महिला के साथ प्यार (सेक्स!) किया होगा तो आप मेरी इस बात को पूरी तरह समझ पाएंगे. भारतीय घरों में सेक्शुअल इंटरकोर्स के दौरान आप चाहे कितने भी सेल्फ़ कॉन्शस क्यों न रहें, लेकिन बिस्तर पर पुरुषों से अधिक महिलाओं की आवाज़ें सुनाई देती हैं.
क्या यह बात आपको अजीब नहीं लगती? क्योंकि जब बात सेक्स की होती है तो हमें बताया जाता है कि पुरुषों के भीतर इसकी चाहत महिलाओं से ज़्यादा होती है. इस बात को लेकर कई वैज्ञानिक भी उलझन में हैं!
हार्वर्ड के साइकोलॉजिस्ट स्टीवन पिंकर ने दावा किया था कि ‘‘सभी समाजों में सेक्स को ‘गंदा’ माना जाता है. इसे निजता में अंजाम दिया जाता है…’’ तो पिंकर के लॉजिक के हिसाब से महिलाओं को तो सेक्स के दौरान आइडियली अपना मुंह बंद ही रखना चाहिए, बजाय इसके वे तो काफ़ी आवाज़ें निकालती हैं, जिससे पड़ोसियों और उनके पेट कुत्तों का ध्यान इस ओर आकर्षित होता है.
तो आख़िर ये ‘शर्मीली’ महिलाएं जो ‘एक ही विवाह’ करने वाली प्रजाति की हैं और जिनके लिए सेक्स केवल एक पत्नी का कर्तव्य है, उनका दायित्व है, भला वे ख़ुद पर ध्यान क्यों देंगी? वो भी तब, जबकि वे किसी ‘गंदी’ और निजी प्रक्रिया का हिस्सा हैं?
इस सवाल का जवाब हमें प्रकृति के और भी क़रीब ला सकता है!
उन्नीस सौ नब्बे के दशक में मानव व्यवहार के विकास का अध्ययन करते समय ब्रिटिश वैज्ञानिक स्टुअर्ट सेम्पल ने ध्यान दिया कि इस धरती पर मौजूद कई प्रजातियों में, जिनमें हमारे पूर्वज यानी बंदर भी शामिल हैं, मादाएं संभोग के ठीक पहले, इस प्रक्रिया के दौरान या फिर उसके तुरंत बाद आवाज़ करती हैं. वे ऐसा इस उद्देश्य के साथ करती हैं, ताकि आसपास मौजूद अन्य नरों को उकसा सकें. दूसरे शब्दों में कहें तो यह आवाज़ उन्हें इस प्रक्रिया में शामिल होने का आमंत्रण होता है. सेम्पल ने जो बात जानी, वह कोई असाधारण खोज नहीं थी.
वैज्ञानिक स्टुअर्ट सेम्पल के जन्म से भी बहुत पहले चौथी शताब्दी के सेक्सोलॉजिस्ट, फ़िलॉसफ़र वात्स्यायन ने इसी से मिलती-जुलती बात कामसूत्र में लिखी थी. वात्स्यायन ने अपनी किताब में एक पूरा लेख इस बात पर केंद्रित किया था कि कैसे कोई महिला अपने मूड और कल्पना के मुताबिक़, आवाज़ का चुनाव कर सकती थी, बिल्कुल वैसे ही, जैसे आज वो किसी दुकान से कॉस्मेटिक ब्रैंड का चुनाव करती है.
प्राचीन भारत में संभोग के दौरान इन आवाज़ों के लिए-कबूतर, कोयल, हरे कबूतर, तोते, बुलबुल, बतख या हंस में से किसी एक आवाज़ का चुनाव किया जा सकता था. (अब यह पूछना तो बनता है ना कि क्या चौथी शताब्दी में भारती की महिलाएं पार्ट-टाइम पक्षी-विज्ञानी का काम भी किया करती थीं?)
इस विषय पर अपना स्वतंत्र काम कर रही शिकागो यूनिवर्सिटी की रिसर्चर गौरी प्रधान ने भी पाया कि संभोग में महिलाओं की संलिप्तता, जितनी अधिक होगी, यह आवाज़ भी उतनी ही अधिक होगी.
तो आख़िर पिंकर की ओर से सेक्स के लिए यह दावा कैसे आया कि सेक्स को ‘‘सभी समाजों में’’ गंदा माना जाता है?
यूं लगता है कि पिंकर ‘सेक्स’ को ले कर जिस चीज़ से परिचित थे वह शायद पश्चिम देशों में मौजूद क्रिश्चन इरोटोफ़ोबिया था, जो बाद में उपनिवेशवाद और मिशनरियों के ज़रिए पूरी दुनिया पर एक तरह से आरोपित कर दिया गया. वे लोग जो क्रिश्चनिटी से इतर अन्य आदर्शों पर भरोसा करते थे, उनकी सोच को सौम्यता से कुचल दिया गया और वो भी केवल पोप के आदेश पर, जिसकी जड़ें जीवविज्ञान, व्यवहार के विकास या फिर सांस्कृतिक परंपराओं में निहित तो बिल्कुल ही नहीं थीं.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट