वेब सीरीज़ जुबली एक काल्पनिक पीरियड ड्रामा है, जो आपको वर्ष 1947 के दौर में ले जाएगा. जयंती रंगनाथन कहती हैं कि अगर आप हिंदी फ़िल्मों के रसिया हैं और हिंदी गाने आपके डीएनए में हैं तो फौरन से पेश्तर इस सीरीज़ को देख डालिए. इसे कहते हैं वर्ड ऑफ़ माउथ पब्लिसिटी और इस तरह की पब्लिसिटी से इस बात पर यक़ी भी होता है कि अगर कोई चीज़ अच्छी है तो अपनी जगह खुद पा जाती है.
वेब सीरीज़: जुबली
कुल एपिसोड: 5 (अब तक रिलीज़ हुए)
प्लैफ़ॉर्म: ऐमाज़ॉन प्राइम
सितारे: प्रोसेनजीत चटर्जी, अदिति राव हैदरी, अपारशक्ति खुराना, वामिका गैबी और अन्य
निर्देशक: विक्रम मोटवानी
यहां मैं बात कर रही हूं, हाल में रिलीज़ हुई वेब सीरीज़ जुबली की. जिसकी कहानी शुरू होती है साल 1947 से. ये वो समय था, जब देश आज़ाद होने की राह पर था और हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में हलचल मची हुई थी. अगर आप हिंदी फ़िल्मों के जानकार हैं तो आप बॉम्बे टॉकीज़ के कर्ताधर्ता हिमांशु रॉय और उनकी सुपर स्टार पत्नी देविका रानी के नाम से भी परिचित होंगे. इस टॉकीज़ ने न जाने कितने सितारे बनाए और सुपर हिट फ़िल्में दीं.
मेरे पसंदीदा निर्देशक विक्रमादित्य मोटवानी ने कहानी में थोड़ा फेरबदल किया है. हिमांशु रॉय तो देश की आजादी के पहले ही निकल लिए थे. पर जुबली में रॉय टाकीज है, जिसका मालिक है श्रीकांत रॉय (प्रोसेनजित). उनकी पत्नी सुमित्रा (अदिति राव हैदरी) नामी सितारा है. उन्हें तलाश है अपने अगले सुपर स्टार मदन कुमार की. लखनऊ के विख्यात थिएटर आर्टिस्ट जमशेद ख़ान (नंदीश सिंह सिंधु) का स्क्रीन टेस्ट देख कर वे तय कर चुके हैं कि यही उनका अगला हीरो होगा और उसका नाम होगा मदन कुमार. क्योंकि ख़ान नाम के साथ कोई हीरो नहीं बन सकता (ये उस समय की बात थी, उन्हें आने वाले समय का अंदाज़ा नहीं था कि हिंदी फ़िल्मों पर किस तरह ख़ान राज करेंगे).
इस ख़ूबसूरत और आशिक मिज़ाज कहानी के बैक्ग्राउंड में है हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा, दंगे, रेफ्यूजी कैंप, आज़ादी के बाद आंखों में कुछ करने का सपना लिए बेख़ौफ़ और बिखरा हुआ युवा. बॉम्बे नगरी के बनने की कहानियां और फ़िल्मों और फ़िल्मों गानों की वो हक़ीक़त जो हम बहुत बाद में जान पाए. हम जब बच्चे थे तब रेडियो सिलोन बहुत लोकप्रिय हुआ करता था. ख़ासकर बुधवार को बिनाका गीतमाला बिना नागा सुनते. विविध भारती में बहुत बाद में हिंदी गाने बजने लगे. विविध भारती की लोकप्रियता के चलते रेडियो सिलोन अपने आप पीछे हट गया. ये कहानियां इस सीरीज़ में नज़र आती हैं. वो भी बेहद ख़ूबसूरती से पिरोई हुई. सीरीज़ के कई किरदार आपको जाने-पहचाने लगेंगे.
अब आते हैं कहानी पर. रॉय अपने सबसे ख़ास सिपहसालार बिनोद दास को लखनऊ भेजता है ख़ान और अपनी पत्नी सुमित्रा को लाने. जिनके बीच धुआंधार अफ़ेयर चल रहा है. सुमित्रा अपने पति और बॉम्बे में जीता-जागता करियर छोड़ ख़ान के साथ करांची जा कर नई दुनिया शुरू करने को राजी हो जाती है. दास का इरादा कुछ और ही है. दास की दबी महात्वाकांक्षा है ख़ुद मदन कुमार बनने की.
इस भूमिका में अपारशक्ति खुराना को देख पहले मुझे लगा ग़लत कास्टिंग हुई है. पर दो एपिसोड के बाद वो एकदम सही लगने लगा. अपने समय का थोड़ा भीरू, थोड़ा कमीना और बहुत मेहनती और चालाक बंदा. करांची में थिएटर ग्रुप चलाने वाले नारायण (अरुण गोविल) और उनका बेटा जय खन्ना (सिद्धांत गुप्ता )भी सीरीज़ के अहम किरदार हैं. जय का खिलंदड़ापन शुरू से मुझे लुभा गया. इसके बाद रेफ्यूजी बन कर बॉम्बे आना, दास की मदद से रॉय स्टुडियो के कैंटीन में नौकर बनना और लखनऊ की तवायफ़ नीलोफर से इश्क करना, जय के कई सारे शेड्स हैं.
जय फ़िल्म निर्देशक बनना चाहता है और उसमें हीरो की भूमिका में लेना चाहता है मदन कुमार को. बहुत बड़ा दांव है यह सबके लिए. यहां इस सीरीज़ का इंटरवल हो जाता है. पहले पांच एपिसोड के बाद अगले पांच एपिसोड 12 अप्रैल को रिलीज़ होने वाले हैं. मुझे पता है इस शनिवार को पूरे दिन मैं बिंज वॉच करूंगी.
इस सीरीज़ को देखते हुए मैं जैसे समय के रथ पर बैठ कर सालों पहले पहुंच गई. सेट, संगीत, स्टार कास्ट, कहानी और संवाद के कहने ही क्या? सीरीज़ में अगर कहीं झोल आता है या रफ़्तार सुस्त पड़ती है तो लगता है यह भी कहानी की मांग है. अरुण गोविल को अर्से बाद देखना सुखद रहा. अच्छा लग रहा है, बहुत दिनों बाद एक संतुष्ट करने वाली सीरीज़ देख कर. अगर आप हिंदी फ़िल्मों के रसिया हैं, हिंदी गाने आपके डीएनए में हैं तो यह सीरीज़ क़तई मिस मत कीजिए.
फ़ोटो: गूगल