शिव आदि ईश्वर कहे जाते हैं. आज सोमवार है, जो प्रथम पूज्य होने के कारण इनके पूजन का दिन कहा गया. कल हरियाली तीज का त्यौहार था, जो भारत के कई प्रांतों में धूमधाम से मनाया जाता है. कहते हैं श्रावण मास की तृतीया के दिन शिव और पार्वती का पुनर्मिलन हुआ था. तभी से ये सुहागनों का सर्वप्रिय त्यौहार बन गया. और आने वाले कल अर्थात् श्रावण मास की पंचमी के दिन नागपंचमी है, जो शिवजी के अद्भुत पशु-प्रेम का प्रतीक है और नागों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध त्यौहार है. कांवड़ यात्रा तो पूरे श्रावण मास में चल ही रही है. तो अपने सर्वपूज्य आदि देव को याद करने और उनके जीवन से जुड़े प्रतीकार्थों को समझने का आज से अच्छा दिन तो हो ही नहीं सकता.
शिव-शंभू, भोलेनाथ, बम-बम भोले, महादेव… अपने प्रिय ईश्वर को दिए गए कितने ही श्रद्धामयी और स्नेहसिक्त नाम मिट्टी की सोंधी सुगंध के साथ श्रावण माह की हवा में घुल जाते हैं. सब तरफ़ शिव जी की धूम रहती है. कुछ लोग व्रत रखते हैं तो कुछ लोग रुद्राभिषेक करवाते हैं.
कांवड़ यात्रा भी इस माह में मनाया जाने वाला विशेष पर्व है. श्रावण माह के साथ शिव-भक्त एक यात्रा आरंभ करते हैं. ये लोग एक सजी हुई पालकी में एक स्थान विशेष से गंगाजल लेकर निकलते हैं. श्रद्धापूर्वक यात्रा के कष्ट सहन करते हुए किसी विशेष शिवलिंग तक ले जाकर उस पर जल अर्पण करते हैं. ये यात्री कांवड़िया के नाम से प्रसिद्ध हैं. आज के परिवेश में अन्य धार्मिक कर्मकांडों की तरह कांवड़ यात्रा की लोकप्रियता भी बढ़ती जा रही है. पर क्या हम जानते हैं कि कांवड़ यात्रा का प्रतीकार्थ क्या है?
सुमित्रानंदन पंत की एक प्रसिद्ध कविता है: कुटिल कंकड़ों की कर्कश रज, घिस-घिसकर सारे तन में…चढ़ा जा रहा हूं ऊपर अब मैं परिपूरित गौरव लेकर…
इस कविता में एक घड़ा है, जो कुंए में गिरते समय घबराया सा है पर जल भरने के बाद उसकी चेतना ऊर्ध्वगामी होती है. उसे अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव होता है. ये कविता हमारे पौराणिक ग्रंथों में घट और जल के संबंध को आधार बनाकर लिखी गई एक सरल और सुबोध रचना है. हमारे पुराणो में घट अर्थात् घड़े को हमारे नश्वर शरीर और उसमें स्थित जल को ब्रह्म तत्त्व या स्नेह का प्रतीक माना गया है. लगभग सभी संत कवियों ने अपने पदों में इन प्रतीकार्थों की पुष्टि की है.
कांवड़ के अर्थ को लेकर भाषाविदों की मान्यताएं हैं कि ये शब्द कावर का अपभ्रंश है. कावर शब्द को मनीषियों ने अनेकों तरह से व्याख्यायित किया है, जिनमें से एक समीचीन लगने वाला अर्थ उद्धृत कर रही हूं – ‘क’ अर्थात् आनंद, ‘आ’ अर्थात् पूर्णरूप से और ‘वर’ अर्थात् वरण करना या धारण करना. और भी बहुत से अर्थों का सार देखें तो पाएंगे कि इस नश्वर शरीर में स्थित अपने हृदय, मन, और बुद्धि को संपूर्ण मानवता के प्रति स्नेह,आनंद से परिपूर्ण करके उसमें परमपिता परमेश्वर की स्थापना को‘कावर’ कहते हैं और ऐसा करने में सफल होने वाले को‘कांवड़िया’.
इस प्रकार सच्चा कांवड़िया वो है, जो सभी प्राणियों के प्रति स्नेह से परिपूर्ण है. आज कावड़ियों द्वारा पाले जा रहे कठिन नियम केवल उन अनुशासनो का बिगड़ा हुआ रूप हैं, जो चेतना को ऊर्ध्वमुखी बनाने के लिए आवश्यक हैं. इस प्रथा के आरंभ में बने नियम केवल इतने थे कि कांवड़िया को संपूर्ण प्रकृति के प्रति प्रेम-युक्त तथा संवेदनशील होना चाहिए. उसका मन इतना पवित्र होना चाहिए कि उसमें किसी के लिए भी क्रोध या अपशब्द का कोई स्थान न हो. उसके शरीर को इतना सुदृढ़ होना चाहिए कि वो कंधे पर अपनी अनमोल प्राकृतिक संपदा– ‘जल’ के संरक्षण का दायित्व ले सके. इसलिए उसके जीवन में आचार-विचार या खानपान की किसी अशुद्धता के लिए कोई जगह नहीं है. आज रास्तों में जब कांवड़ियों द्वारा अपने शरीर को बिन कारण तरह-तरह के कष्ट देने या किसी प्रकार की बाधा होने या ग़लती से छू लिए जाने पर विवाद खड़ा होने की घटनाएं दिखती हैं तो इन त्यौहारों के प्रतीकार्थ को समझने-समझाने की आवश्यकता शिद्दत से महसूस होती है.
कांवड़ के लिए विशिष्ट स्थान का गंगा–जल ही क्यों? इतिहासविदों के अनुसार सर्वप्रथम जहां गंगा समुद्र में विलय होती है,उस स्थान से गोमुख तक कांवड़ यात्रा शुरू हुई. इसी से पता चलता है कि हमारे पूर्वज हमारी जल संपदा के संरक्षण के लिए कितने जागरूक थे. उनका मानना था कि जब हमें गंगा के अंत से गंगाजल लेकर ईश्वर को अर्पित करना होगा या यों कहें कि उन्हें प्रमाण देना होगा कि हमने इसे अशुद्ध नहीं होने दिया है तो हम उसे अंत तक शुद्ध रखने के सामूहिक प्रयास करेंगे, क्योंकि ईश्वर को कोई अशुद्ध वस्तु तो अर्पित की नहीं जाती. यदि हम सच्चे अर्थों में अपने सनातन धर्म को समझते तो हमारे जल संसाधनों की इतनी दुर्दशा होने से बहुत पहले से ही लामबंद होकर उनकी रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हो गए होते. किंतु दुर्भाग्य ये है कि हम किसी भी त्यौहार के बनने का कारण जाने बिना सिर्फ प्रथाएं निभाते रहते हैं.
शिवजी पर चढ़ाया क्यों जाता है गंगाजल? हमारे पुराणों की अंतर्कथाओं के अनुसार समुद्र मंथन से निकले अनमोल रत्नों को तो देव और असुरों ने बांट लिया, लेकिन जब विष निकला तो उसे पीने शिवजी आगे आए. किंतु प्रकृति के भयंकर हलाहल के पान के कारण वो दग्ध होने लगे या कह सकते हैं कि उनके भक्तों को ऐसा लगा कि वो ताप में हैं. इसलिए उनके समाधिस्थ होकर बैठने पर उन्हें शीतल करने के लिए उनके भक्तों ने उनपर तापशायिनी गंगा का जल उड़ेलना शुरू किया और वही से कांवड़ प्रथा की शुरुआत हुई.
अब आते हैं इस त्यौहार के असली उद्देश्य और प्रतीकार्थ पर जल को शिवजी पर चढ़ाने के प्रतीकार्थ को समझने के लिए हमें शिवजी और उनकी विषपान की अंतर्कथा के प्रतीकार्थ को समझना होगा.
हम सब जानते हैं कि महान वैज्ञानिक गैलीलियो को सिर्फ़ इसलिए मौत की सज़ा दी गई थी, क्योंकि उसने सूर्य द्वारा धरती की परिक्रमा किए जाने की प्रचलित घारणा का विरोध करते हुए धरती द्वारा सूर्य की परिक्रमा किए जाने की अवधारणा दी थी.
कुछ ऐसी ही नवीन और अलग अवधारणाएं थीं हमारी पौराणिक कथाओं के आदि ईश्वर शिव-शंभू की. तन पर भस्म, गले में सर्पों की माला,तीन नेत्र,सिर पर उलझी जटाएं और जटा में गंगा और चंद्रमा. कैलाश की बर्फ़ीली ठंडक में सिर्फ़ अधोवस्त्र पहने. कुल मिलाकर सती के पिता राजा दक्ष के शब्दों में‘अजीब/विचित्र’. कभी सोचा है कि हमारे भोलेनाथ इतने अजीब क्यों हैं?
आदि गुरु भी कहे जाने वाले शिव जी आदि पर्यावरणविद् भी थे. उन्होंने तब लोगों को ‘ईकोलॉजी’या पारिस्थिकीय समझाने का प्रयास किया, जब भूमि और प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे. इसलिए उनके संरक्षण की महत्ता समझ पाना साधारण और अनपढ़ मानव की बुद्धि से परे था. किंतु शिवजी की दूरदर्शिता ने मानव के अंध लोभ को पढ़ लिया था. वो समझ गए थे कि विवेक और संतोष के क्षरण तथा लोभ और अहंकार के विकास के साथ मानव नाम की विधाता की सबसे सुंदर रचना विध्वंसकारी होती जाएगी. और उसकी विवेकहीन प्रगति का नतीजा लाखों निर्दोष प्राणियों और सात्विक एवं सृजनशील प्रकृति को भुगतना पड़ेगा. इसीलिए उन्होंने पर्यावरण की रक्षा के उपाय ढूंढ़ने शुरू किए.
केवल प्राणिमात्र ही नहीं, सम्पूर्ण प्रकृति के प्रति दयालु और संवेदनशील आशुतोष के अनुयाइयों की बढ़ती संख्या अहंकारी तथा तामसिक वृत्तियों के लोगो को,शोषकों को कब पसंद आने वाली थी? तो प्रकृति के अनुचित दोहन करने वाली विलासी सत्ताओं और प्रकृति की रक्षा के प्रति संकल्प-बद्ध शिव के बीच संघर्ष तो बढ़ना ही था. तो बढ़ते विरोध के बीच हमारे लोकपाल ने अशिक्षित जनता या अपने अनुयायियों को प्रकृति की हर वस्तु के उपयोगी होने का गुर बताने का नायाब तरीक़ा खोजा. उन्होंने प्रकृति की अप्रिय या भयानक लगने वाली, परंतु उपयोगी वस्तुओं को अपने साथ रखना, अपने व्यक्तित्व का अंग बनाना आरंभ किया. उनकी अर्धांगिनी, उनकी पत्नी पार्वती जी ने उन्हें समझा और इसमें उनका सदा सहयोग किया.
फिर वो दिन आया जब प्रकृति की अतल गहराइयों में छिपे ‘अमृत’ अर्थात् प्राकृतिक संसाधनों रूपी समृद्धि की तलाश में देवता कहे जाने वाली राजसी सभ्यता और असुर कहे जाने वाले तामसिक वृति के लोग स्वार्थवश एक हो गए और प्राकृतिक संसाधनों अनुचित और अनियोजित दोहन पर उतर आए; जैसा कि आज हो रहा है. उनके कृत्य वो मंथन बन गए, जिससे हमारी धरती मां आर्तनाद कर उठी. तब शिव ने आगे बढ़कर अंधाधुंध दोहन का विरोध करने के लिए संघर्ष किया. आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो तथाकथित ‘विकास’ का विरोध किया और शोषकों और उनके नासमझ अनुयायियों के विरोध के भयंकर और विशाल हलाहल का पान किया.
इतिहास गवाह है कि विश्व भर में कहीं भी किसी भी नई अवधारणा लाने वाले को समाज का प्रचुर विरोध सहना पड़ा है. सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों का विरोध करने वाले तमाम समाज सुधारकों को आजीवन कांटों की नोंकों पर चलना पड़ता है. उनके जीवन में घोला गया ये विष ही उन्हें ‘शिव’ बनाता है.
अब आते हैं कांवड़ में शिवजी पर जल चढ़ाने के प्रतीकार्थ पर किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए अगुआई या नेतृत्व करने करने वाले प्रतिभाशील व्यक्ति का महत्त्व तो है ही,उसके अनुयायियों का महत्त्व भी कम नहीं है. बिना एक बड़े संगठन के कोई भी सत्कार्य पूर्ण नहीं हो सकता है. उदाहरणों से समझें तो राजा राम मोहन राय के आह्वान पर हज़ारों युवकों ने विधवाओं से विवाह किया. गांधीजी के आह्वान पर एक विशाल वर्ग उनके आंदोलनों में हिस्सा लेने खड़ा हो गया.
तो प्रकृति की रक्षा के अपने कल्याणकारी संकल्पों को पूर्ण करने के संघर्ष में जब कभी शिवजी सत्ताओं और मूढ़ सामान्य मानवों के आरोपों के तप्त-व्यथित हुए या यों कहें कि उनके अनुयायियों को तप्त-व्यथित लगे तो उन्होंने अपने प्रेम और श्रद्धा से उन्हें सांत्वना दी और उनके सत्कार्यों को आगे बढ़ाने का, प्रकृति,मुख्यतः जल संसाधनों को शुद्ध और सुरक्षित रखने का वचन दिया,संकल्प लिया, सहयोग किया.
ये प्रेम-पूर्ण सहयोग ही शिवजी पर जल चढ़ाना है. विरोध करने अथवा उपहास सहने वाले लोगों को प्रेमपूर्वक सत्य का मर्म और प्रकृति संरक्षण की आवश्यकता समझाने का कार्य वही कर सकता था जिसने शिवत्व को अपने नश्वर शरीर या घट में धारण किया हो.
तो जिस व्यक्ति में सत्य की अलख जग गई है और वो संपूर्ण प्रकृति की रक्षा के लिए संकल्पबद्ध है, इसके लिए कर्मरत है, हर प्रकार का उत्सर्ग करने को तैयार है और अगुआई का जोखिम उठाता है वो शिव है. और उसकी व्यथा को समझने वाले, उसके सत्कार्य में यथासंभव किंचित धन और श्रम से सहयोग अर्पण करने वाले और स्नेह-श्रद्धा पगी सहमति से उनका मनोबल बढाने तथा उसकी व्यथा शांत करने का प्रयास करने वाले उसके अनुयायी हैं– कांवड़िया.
सावन में क्यों? भारतीय जलवायु में श्रावण या देसी भाषा में सावन साल का सबसे मधुर महीना है. जब आकाश में मेघ तपती जलती हुई धरती के लिए राहत की सांस लाते हैं. जब मेघों के स्पंदन से वसुधा प्रेम में सराबोर हो महक उठती है. नवकोपलों से धरती का सिंगार पूरा होता है और धरती के सारे आभूषण– उसके पेड़-पौधे धुल-पुछ कर नए जैसे हो जाते हैं. मोर और ऐसे ही अनेक जीव-जंतु ख़ुशी से नाचने-गाने लगते हैं और धरती दिल खोलकर मुस्कुराती है.
कहा जाता है कि इस माह शिव जी को प्रसन्न करना सबसे आसान है. यह भी कहा जाता है कि शिव जी का इसी माह में पार्वती जी से पुनर्मिलन हुआ था. पर क्या आपने कभी विचार किया है कि शिव-पार्वती के पुनर्मिलन और सावन के इस मधुर संबंध के और क्या मायने हो सकते हैं? ये मायने आदि-पुरुष शिव और नारी की आदि स्वरूप प्रकृति के प्रतीकार्थ में छिपे हैं. सावन ही वो माह है जब सबसे आसानी से अंकुर फूटते हैं. नए वृक्षों को रोपने का, प्रकृति का शृंगार करने का सर्वोत्तम समय. ‘पुरुष’ का अर्थ है पौरुष अर्थात श्रम करने वाला और प्रकृति है उस श्रम को धारण कर फल प्रदान करने वाली शक्ति. इसे सबसे आसानी से सावन में पुष्पित पल्लवित किया जा सकता है. तो अपने पौरुष से प्रकृति के खोए रूप के सिंगार का इससे अच्छा समय और कौन सा हो सकता है?
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट