भारतीय रेलवे पूरे देश को जोड़ता है ये तो आप जानते ही हैं, पर इसकी एक ख़ासियत और बताइए? अब आप सोचेंगे हमें क्या पता कौन-सी ख़ासियत की बात हो रही… तो मैं ही बता देती हूं. बात ये है कि आप किसी भी स्टेशन पर जाइए अगर उस शहर का कोई प्रसिद्ध व्यंजन है तो वो आपको स्टेशन पर ज़रूर मिल जाएगा. हां, ये ज़रूरी नहीं कि वो बहुत बेहतरीन होगा पर कम से कम आप उस स्वाद का मज़ा तो उठा ही सकते हैं. इस तरह दक्षिण से आया कोई यात्री उत्तर के पकवान चख ले और उत्तर से आए यात्री दक्षिण के व्यंजनों का लुत्फ़ ले सके. यही वो काम है, जिसने भारतीय रेल को सिर्फ़ जीवन रेखा नहीं, बल्कि संस्कृतियों से जोड़ने का माध्यम भी बनाया है. मैं जानती हूं कि इस इंट्रो में आपको कलाकंद के बारे में कुछ जानने को नहीं मिला, पर ट्रेन में थोड़ा सफ़र के मुद्दे पर आने का मज़ा ही अलग है. तो पढ़ते जाइए…
तो बात हो रही है भारतीय रेलवे स्टेशनों पर मिलनेवाले ख़ास व्यंजनों की, है ना? भारत के कितने ही स्टेशन हैं जिनपर कोई विशेष मिठाई मिलती है. कई बार तो स्टेशन ही एकमात्र स्थान होता है, जिसके माध्यम से ये स्पेशल मिठाई बेची जाती है और यही मिठाइयां हैं, जो दूर-दूर के शहरों को एक-दूसरे से जोड़ देती हैं. अब आप ही सोचिए न झारखंड के झुमरी तलैया और राजस्थान के अलवर में आख़िर क्या समानता हो सकती है? नहीं पता न ? अच्छा मैं बताती हूं. वो समानता है-कलाकंद. जी हां, कलाकंद ही है जो इन दोनों जगहों का बेहद प्रसिद्ध है. और वैसे कलाकंद जोड़ता तो सरहद पार के लोगों को भी है, क्योंकि कलाकंद जितना भारत में प्रसिद्ध है उतने ही शौक़ से पकिस्तान में भी खाया जाता है. पर अभी हम बात करेंगे केवल भारत के कलाकंद की. वैसे तो कलाकंद को मिल्ककेक भी कहा जाता है और जो लोग मिठाइयों के ख़ास शौक़ीन नहीं भी होते वो भी इसे चाव से खाते हैं.
इतिहास कलाकंद का: कहानियां मज़ेदार होती हैं. ये मैं हमेशा से कहती रही हूं और जब इन कहानियों का सम्बन्ध पेटपूजा या मुंह के स्वाद से हो तो कहानियां कभी स्वादिष्ट तो कभी चटखारेदार भी हो जाती हैं. कलाकंद के जन्म के पीछे भी बड़ी मज़ेदार कहानी है. बंटवारे के वक़्त पाकिस्तान से बाबा ठाकुर दास का परिवार भारत आया और अलवर में आकर बस गया. यहां उन्होंने मिठाई की दुकान लगाई. वर्ष 1947 की बात है इसी दुकान में बाबाजी दूध उबाल रहे थे और किसी कारण से वो फट गया. बाबाजी ने उसे थोड़ा और पकाया, उसमें चीनी डाल दी और दोनों को मिलाकर पकाकर एक सांचे में जमा दिया. जब ये अच्छे से जम गया तो हर टुकड़े के बीच के हिस्से में लाल रंग-सा दिखा. लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने बाबाजी से पूछा कि ये क्या है और तब बाबाजी ने कहा यही तो कला है और इस तरह कलाकंद का नामकरण भी हुआ और जन्म भी. उसके बाद कलाकंद ने अपनी प्रसिद्धि के झंडे सिर्फ़ भारत में ही नहीं, भारत के बाहर विदेशों में भी गाड़े. बड़े-बड़े नेता अभिनेता प्रसिद्ध लोग अगर अलवर जाते हैं तो वहां का कलाकंद ज़रूर खाते हैं और अब तो अलवर का ये कलाकंद विदेशों में मिल्ककेक या कलाकंद के नाम से निर्यात भी किया जाता है. इसी के बाद लगभग 1960 में झारखंड के आदिवासी परिवारों ने कलाकंद बनाना शुरू किया. ये कलाकंद अपने थोड़े क्रीमी टेक्स्चर के कारण जाना जाता है और आसपास के क्षेत्रों में काफ़ी प्रसिद्ध भी है.
क़िस्सा कलाकंद का: हमने अपने बचपन में मिठाइयों की दुकानों पर बड़े-बड़े कड़ाहों में कलाकंद बनते देखा, पर इसका इसका मिल्ककेक वर्शन ही ज़्यादा खाया. दूध को उबालकर फाड़कर उसमें शक्कर मिलाकर कलाकंद बनाते भी कई बार देखा घरों में और न जाने कितने फ़्लेवर वाला कलाकंद भी, पर आज आपको मेरे पसंदीदा मौसमी कलाकंद के बारे में बताती हूं, वो है- मैंगो कलाकंद. वैसे तो आम के पल्प में पहले से तैयार छेना और मिल्क पाउडर मिलकर भी आसानी से इसे बनाया जा सकता है, पर मैं इसे दूध को उबालकर और उसे मेंगो पल्प से ही फाड़कर बनाती हूं. जब उबलते हुए दूध में मैंगो पल्प डाला जाता है तो कुछ ही देर में वो दूध फट जाता है और उसमे दाना पड़ने लगता है. बाद में चीनी केसर डालिए, पकाइए और जमाइए. क्रीमी टेक्स्चर चाहिए तो शक्कर के पहले थोड़ा-सा मिल्क पाउडर भी मिलाया जा सकता है. इस मैंगो कलाकंद का स्वाद बड़ा अच्छा होता और ये बनाने में भी आसान है. आजकल लोग कलाकंद रिकोता चीज़ और मिल्क पाउडर से भी बनाते हैं. आपको कहां का कलाकंद पसंद है या फिर आप अपने घर में कैसे बनाते हैं इसे यह बात हमें भी बताइयेगा इस आई डी पर: [email protected] जल्द ही फिर मिलेंगे, तब तक बनाइए, खाइए और खिलाइए.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट