अगर हम अपने पुराणों को खंगालें तो पाएंगे कि वहां सेक्स को लेकर किसी तरह की वर्जनाएं नहीं थीं, जो आज देशभर में दिखाई देती रहती हैं. जिन युगों में वर्जनाएं नहीं थी उन दिनों में प्रेम उन्मुक्त प्रेम सुखी समाज की आधारशिला था और स्त्री-पुरुष में समानता की स्थिति थी. इस बारे में और जानकारी दे रही हैं भावना प्रकाश.
सृष्टि का क्रम अनवरत चलता रहे इसलिए हर प्राणी में अपना वंश आगे बढ़ाने के लिए काम भावना निहित होती है, क्योंकि संतति नर और मादा नामक दो विपरीत धुवों के परस्पर आकर्षण से ही जन्म लेती है. मानव समाज के शिक्षित प्रवर्तक ये बात समझते थे. उन्होंने यह भी समझा की स्त्री-पुरुष का बंधन अविरल होगा, स्थाई होगा तभी सुखी परिवार का निर्माण होगा और संतति सुरक्षा का अनुभव करेगी. तो स्त्री-पुरुष के बंधन के स्थाई बने रहने के लिए आवश्यक काम भावना को उन्होंने जीवन का एक लक्ष्य बताया.
हमारे पुराणों में सेक्स को कामदेव का नाम देकर देवता माना गया. हमारी संस्कृति के प्रवर्तक ऋषि-मुनि मानव मनोविज्ञान से भलीभांति परिचित थे. वो जानते थे कि सृष्टि का समुचित विकास परिवार व्यवस्था पर आधारित समाज से ही हो सकता है. क्योंकि केवल परिवार ही समाज की स्वार्थरहित इकाई बन सकता है इसलिए गृहस्थ आश्रम को हमारे वेदों में अनिवार्य माना गया.
मनुष्य की काभ भावना को अनुशासित करने के लिए धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ काम की प्राप्ति को भी जीवन का एक पवित्र और अनिवार्य लक्ष्य माना गया. काम संबंधी आवश्यकताओं की गरिमामई पूर्ति के लिए ही विवाह जैसी पुनीत संस्था का आविष्कार किया गया. विवाह को काम भावना के तुष्टीकरण का माध्यम बना कर परस्पर प्रेमाकर्षण में बंधे स्त्री-पुरुष जीवन के ल ललित सुखों का भोग करते. पारिवारिक दायित्वों का ख़ुशी से निर्वाह करते. धर्मपूर्ण आचरण से यानी नैतिक तरीक़े से अपनी आर्थिक उन्नति करते. अपनी आय और अपने समय का कुछ भाग वंचितों तथा प्रकृति को समर्पित करते हुए सामाजिक उन्नति का भी माध्यम बनते. इस प्रकार समाज का ऊर्ध्वगामी विकास होने लगा.
पर धीरे-धीरे परिदृश्य बदलने लगा. जब हम अपने पुराणों और पुरातन ऋषियों द्वारा बनाई सामाजिक व्यवस्था का गुणगान कर रहे होते हैं. उस युग के बारे में पढ़ रहे होते हैं, जब स्त्री-पुरुष को समान अधिकार प्राप्त थे तो कुछ प्रश्न स्वाभाविक रूप से हमारे मन को मथना शुरू कर देते हैं, जैसे- फिर कैसे समाज में नारी की स्थिति पुरुष से कमतर होती गई? कैसे सभ्यताएं पितृसत्तात्मक होती गईं? कैसे काम को जीवन का एक पुनीत लक्ष्य मानने वाले समाज में काम के प्रति इतनी कुंठाएं पनपती गईं? क्यों पवित्रता, शुचिता, एकनिष्ठता जैसे बंधन सिर्फ स्त्री पर ही थोप दिए गए?
कुछ सवाल और भी हैं: जब संतान के जन्म के लिए स्त्री पुरुष समान रूप से उत्तरदाई हैं और इस तथ्य को सभ्यताओं के प्रवर्तक समझते थे तो हमारी संस्कृति में समाज द्वारा अनैतिक कहे जाने वाले संबंधो के लिए या इससे उत्पन्न संतान के लिए धिक्कार, तिरस्कार और अपमान केवल स्त्री का क्यों? दाम्पत्य संबंधों में जब गर्भधारण, प्रसव, लालन-पालन का उत्तरदायित्व मां का है तो नाम पिता का ही क्यों?
समाजशास्त्रियों के अनुसार समाज के विकास के आरंभ में ऋषियों ने ये नियम स्त्री को दृढ़ करने के लिए बनाए थे. संतान के लिए पिता के नाम को अनिवार्य बनाया गया, ताकि उसके दिल में अपनी संतति के लिए वात्सल्य तथा उसके पोषण के लिए कर्तव्य भावना विकसित हो. स्त्री गर्भ धारण करती है तो वो तो प्राकृतिक रूप से ही अपनी संतति के साथ ममता के बंधन में बंध जाती है. पर पुरुष को कैसे बांधा जाए? यदि संबंध इतने अनुशासित होंगे कि पुरुष को अपनी संतान के अपने होने का विश्वास होगा, उसका नाम संतान के साथ जुड़ेगा तो उसके मन में भी ममता और दायित्व भावना जागेगी. और संतान को पुरुष का धन और संरक्षण आदि भी मिलेगा और उसका स्नेह भी.
लेकिन कालांतर में मनुष्य के सिर पर अपना कुनबा अधिकाधिक बढ़ाकर अधिकाधिक ज़मीन को अपने आधिपत्य में लेने की धुन सवार हुई. युद्ध शुरू हुए और समय-समय पर होने वाले युद्धों में जन-हानि शुरू हुई तो मनुष्य के सुखमय जीवन के लिए आविष्कृत संस्था परिवार ही स्त्री के शोषण का सबसे बड़ा माध्यम बन गई. एक युग ऐसा आया था जब अधिक से अधिक संतान उत्पन्न करके अपने कुनबे को बढ़ाना ही स्त्री जीवन का लक्ष्य बना दिया गया था. जिससे स्त्री के शोषण के मार्ग उन्मुख हुए. बाल-विवाह और बहु-विवाह की प्रथाएं चल पड़ीं.
तो परिवार नाम की संस्था बनाए जाने के दोनों पुनीत कारण उलटकर शोषण के कारण बन गए. पुरुष ने स्त्री पर पाबंदियां लगाना सर्वप्रथम इसलिए शुरू किया, ताकि वह सुनिश्चित कर सके कि उसकी स्त्री के गर्भ में जो संतति है वह उसी की है. स्त्री को पवित्रताओं की अनिवार्यताओं में क़ैद कर देना पुरुषों के मन की असुक्षा भावना और अपने कुनबे को सबसे बड़ा करने वाली मनोवृत्ति के युग की ही देन हैं. तो परिवार की जो व्यस्था काम-भावना की सुखकर और नैतिक संतुष्टि के लिए बनाई गई थी, वही उसके दो समान पहियों में से एक पहिए पुरुष वर्ग द्वारा दूसरे पहिए यानी स्त्री वर्ग के शोषण का कारण बनती गई.
परिवार व्यवस्था की स्थापना का दूसरा कारण संतति के लिए पालन-पोषण तथा भावनात्मक सुरक्षा तय करना था. यहां भी यही हुआ. बढ़ते युद्धों और अधिकाधिक भूमि अधिग्रहण की लालसा ने पुरुष, मुख्यतः परिवार के मुखिया की संतान को ‘संपत्ति’ समझने की मानसिकता विकसित कर दी. लड़की है तो जल्दी से जल्दी उसका अपने ही समूह (जो धीरे-धीरे कुल, गोत्र और फिर जाति व्यवस्था में बदलते गए) में विवाह कर दो, ताकि वो अपना कुनबा बढाने का यंत्र बन सके. लड़का है तो उसे खेती या युद्ध के समय काम आने वाले शक्तिशाली यंत्र की एक और संख्या के रूप में पोषित किया जाने लगा, ताकि वो अपने कुनबे के लिए खाद्य आपूर्ति के साथ उसकी सुरक्षा का साधन बन सके.
यहीं से जन्म हुआ असमानता को पोषित करने वाली विचारधाराओं का. लड़की को कोमल और घर के कामों में दक्ष होने की सीख दी जाने लगी, ताकि उसका ध्यान स्वतंत्र जीवन की ओर न भटके. उसके दिमाग़ में भरा जाने लगा कि वो ममता की मूर्ति है, देवी मां है, अन्नपूर्णा है और अपने पति के प्रति एकनिष्ठता ही उसका सबसे बड़ा गौरव है, ताकि वो बच्चे पैदा करने और उनके पालन-पोषण में, फिर उसे अपने कुनबे के मुखिया को सौंप देने में ही सुख और अपने जीवन की सफलता का अनुभव करे.
पुरुष को समझाया जाने लगा कि भोग उसका अधिकार है, क्योंकि इसीसे वह कुनबे के विस्तार में सहयोगी होता था. और कुनबे की रक्षा को उसका कर्तव्य निर्धारित करके उसे शरीर निर्माण के लिए प्रेरित किया जाने लगा. युद्ध के समय मर मिटने या मारकर अधिपत्य जमा लेने की मानसिकता विकसित करने के लिए उसके मन से कोमल भावनाओं को निकाला जाना ज़रूरी था. उस समय के नीति निर्धारक जानते थे कि इनसान जैसे ही प्रेम करना सीखेगा, युद्ध से विरत हो जाएगा. अपनी भूमि, अपना कुनबा, अपना भोग बढ़ाने के स्थान पर उसमें सुख और सौहार्द्र पूर्वक जीवन व्यतीत करने की इच्छा जा जाएगी. तो उन्होंने पुरुष की मानसिकता इस रूप में गढ़नी शुरू की कि काम उसके लिए भोग है और स्त्री इस भोग का साधन. जीवित रहते अपने अधिकारों का भोग करे और में कोई लगाव न रखे, ताकि समय पड़ने पर अपने कुनबे पर मर मिटने में उसे दुख न हो. पुरुषों में काम भावना को लेकर प्रेम नहीं अधिकार भावना समाज के विष के रूप में दिखाई देती है वो सदियों की गई इसी कंडीशनिंग का नतीजा है.
कल पढ़ें इस आलेख का दूसरा भाग और जानें कि प्राचीन समय में कैसी थी सेक्स के प्रति हमारी सोच
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