माया मेमसाब देखने के बाद जब थिएटर से निकली तो सबसे पहले मुझे इसकी कहानी ने जैसे दिमाग़ पर हथौड़े से वार किया. बाद में माया मेमसाब रूह में जैसे बसने लगी. यह कहनी सिर्फ़ माया की नहीं है, उसके ही सपनों की नहीं है. माया तो माया है. यह हम सबके अधूरे सच की दास्तां है. पुरानी, पर ख़ूबसूरती से बनाई गई फ़िल्म माया मेमसाब के बारे में बता रही हैं वरिष्ठ पत्रकार व लेखिका जयंती रंगनाथन, ताकि यदि आपने न देखी हो यह फ़िल्म तो समय निकाल कर देख डालें.
किसी फ़िल्म के अच्छा लगने का कोई इकलौता कारण नहीं होता. कई-कई बातें होती हैं. कई बार औसत सी फ़िल्म भी अगर मज़ेदार दोस्तों के साथ या यूनीक थिएटर में देखी जाए तो अच्छी सी लगती है.
माया मेमसाब को पसंद करने के पीछे वैसे एक नहीं कई वजहें हैं. एक तो अपने समय के हिसाब से बोल्ड विषय, एक उन्मुक्त और रीयल स्त्री का कहानी. गुस्ताव फ़्लॉबर्ट के चर्चित उपन्यास मैडम बोवरी पर आधारित इस फ़िल्म में माया मैमसाब की भूमिका अदा की थी दीपा साही ने. फ़िल्म के निर्देशक थे दीपा साही के पति केतन मेहता. लगभग तीस साल पहले इस फ़िल्म को मुंबई के सनी साउंड के छोटे से थिएटर में महज़ 20 फ़िल्म क्रिटिक्स के साथ बैठ कर देखना एक अभूतपूर्व अनुभव था. वो भी अनकट वर्शन. साल था 1993.
इस फ़िल्म में दीपा साही के पति बने थे फ़ारुख शेख़. दो प्रेमी थे राज बब्बर और शाहरुख़ ख़ान. कहानी जादुई सी है. एक संपन्न बाप की सपनों में खोई सी बेटी के पास सबकुछ है, उसे क्या चाहिए उसे नहीं पता. बीमार पिता के इलाज के लिए जो डॉक्टर आता है, माया उससे शादी कर लेती है. माया के अंदर एक आग है, बल्कि कहना चाहिए वो ख़ुद ही एक आग है, वो ज़िंदगी से, पति से, इश्क़ से अपने आप से जो चाहती है, वो उसका भला सा पति पूरा नहीं कर पाता. माया की भटकन अपने साथ भी है. पति को पास लाने के लिए कभी ख़ुदकुशी का नाटक करती है तो कभी कुछ और. पर उसे चाहिए अपने भीतर की आग को शांत करने के लिए उतना ही तेज़-तर्रार शोला. पहले उसे मिलता है रुद्र, उससे उम्र में बड़ा, फिर उम्र में छोटा उसी की तरह चंचल और भावुक ललित. वो दोनों के साथ शारीरिक और मानसिक स्तर पर जुड़ती है. पर शांति यहां भी नहीं मिलती. उसकी तलाश का सिला थमता ही नहीं. उसे नहीं पता कि उसकी अय्याशियां उसे कहां ले जा रही हैं. जब घर नीलामी की कगार पर आ जाता है, तब भी वो समझौते नहीं करती. उसे याद आता है वह जादुई पेय, जिसे बेचने वाले कंगाल फ़कीर ने कहा था कि जो भी बंदा मन का सच्चा होगा अगर वो ये ड्रिंक पी लेगा तो उसके मन की मुराद पूरी हो जाएगी. माया की मुराद है उड़न छू… फू… होने की. और वो हो जाती है.
फ़िल्म की शुरुआत ही इस तरह से होती है कि माया ग़ायब है और उसकी हत्या के शक़ में दो पुलिसिए उसके घर आए हैं. फ़्लैश बैक में पूरी कहानी चलती है और आप माया को जानते चले जाते हैं. माया मेमसाब देखने के बाद जब थिएटर से निकली तो सबसे पहले मुझे इसकी कहानी ने जैसे दिमाग़ पर हथौड़े से वार किया. माया की ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव, कहीं रुक ना पाने, ठहर ना पाने, संतुष्ट ना हो पाने की आह, पुरुषों के पीछे भागने और अपने आपको साबित करने की चाह, ये सब कहानी के दूसरे सूत्रों पर भारी पड़ गए. मैंने जो अनकट वर्शन देखा, उसमें बेहद बोल्ड सीन थे. शाहरुख़ और दीपा साही के बीच (बाद में शाहरुख़ ने कसम खा ली थी कि वे अपनी किसी फ़िल्म में बोल्ड सीन तो क्या हीरोइन को किस भी नहीं करेंगे. उनका यह प्रण सालों बाद वेन हैरी मेट सेजल में जा कर टूटा).
बाद में माया मेम साब रूह में जैसे बसने लगी. यह कहनी सिर्फ़ माया की नहीं है, उसके ही सपनों की नहीं है. माया तो माया है. यह हम सबके अधूरे सच की दास्तां है. जो मिला है, वो नहीं चाहिए. उससे आगे चाहिए. फिर उससे भी आगे. देह अपनी जगह है, दिल अपनी. दोनों की संतुष्टि चाहिए. जहां से मिले, वहां से. होता भी यही है कि जहां उम्मीद है उसकी वहां नहीं मिलता.
फिर ये भी कि आप अंतत: अकेले रह जाते हैं. माया का भी कोई ना हुआ. आपको जब यह लगता है कि माया के ऊपर उस जादुई ड्रिंक का असर कैसे हो सकता है, क्या उसका दिल पवित्र था? हम सबको धता बता कर माया गुम हो जाती है, अदृश्य हो जाती है, पर माया जागती है. सबके भीतर.
इस फ़िल्म की फ़िलॉसफ़ी में इसके गानों का भी ज़ोरदार असर है. इस फ़िल्म को देखने के बाद मैंने इसका कैसेट ख़रीदा था और दिन में कई-कई बार बजाती थी. सारे ही गाने अजब हैं. बस कुमार सानू ने जो इक हसीन ख़्वाब सा दिल में साया है में ‘हसीन’ को ‘हसिन’ कहते हैं तो मुंह में कंकड़ सा आ जाता है.
एक गाना जो बाद के दिनों में मुंबई से दिल्ली आने के बाद मेरे लिए जैसे एंथम सॉन्ग बन गया, वो था- इस दिल में बस के देखो तो, ये शहर बड़ा पुराना है, हर सांस में कहानी है, हर सांस में अफ़साना है, ये जिस्म है कच्ची मिट्टी का, भर जाए तो रिसने लगता है, बांहों में कोई थामे तो, आगोश में घिरने लगता है, यह शहर बड़ा पुराना है. लता मंगेशकर की आवाज़ में इस गाने में सुकून है, उलझन है, तलाश है, ज़िद है और माया को पाने का सबब है.
यह फ़िल्म आज भी मुझे कुछ नया दे जाती है. समझने को, देखने को.
कुछ सालों पहले तक यह फ़िल्म यू ट्यूब पर थी. अब शाहरुख़ ख़ान की रेड चिली ने राइट्स ख़रीद लिए हैं. यू ट्यूब पर है, पर पे ऐंड सी वाले मोड पर. आज शाहरुख़ अपनी ज़िंदगी का 57 वां जन्मदिन मना रहे हैं. इस फ़िल्म के बाद उनकी भी ज़िंदगी बदल गई थी, लगता है, उस जादुई ड्रिंक का एकाध घूंट उन्होंने भी चढ़ा लिया था…!
फ़ोटो: गूगल