मेरे अपने अनुभव ने मुझे सिखाया है कि बच्चों को सही उम्र में ही मेडिकल रूप से प्रमाणित और वास्तविकता पर आधारित सेक्स एजुकेशन देना शुरू किया जाना चाहिए. युवा लड़के-लड़कियों से यह उम्मीद रखना कि बिना जानकारी के ही वे सेक्शुअल रिश्तों के बारे में सबकुछ समझकर ख़ुशनुमा ज़िंदगी बिता लेंगे, एक ऐसी सोच है, जो बाद में उनके और उनके जीवनसाथी के पूरे जीवन को परेशानी में डाल सकती है.
मैं बहुत साल पहले अपने जीवन में एक दर्दनाक ब्रेकअप से बहुत ही कठिनाई से उबर पाया था, जिसका कारण सेक्स से जुड़ी एक समस्या थी. मैंने अपना यह अनुभव अपने एक मित्र से साझा किया, जो केरल में एक कैथलिक प्रीस्ट हैं.
मेरे अनुभव ने, देर से ही सही, पर इस बात पर मेरी आस्था गहरी कर दी थी कि चिकित्सकीय रूप से सही और वास्तविकता पर आधारित सेक्स एजुकेशन बच्चों को स्कूल के स्तर से ही दी जानी चाहिए. इससे बच्चों और ख़ासतौर पर लड़कों को वो ज़रूरी ट्रेनिंग और संवाद स्थापित करने का कौशल सीखने को मिलेगा, जो उस समय मदद मांगने में कारगर होगा, जब कभी वयस्क होने के बाद वे रिश्तों से जुड़ी किसी परेशानी से गुज़रेंगे.
स्कूलों में दी जानी चाहिए सेक्स एजुकेशन
बातचीत में मैंने अपने दोस्त से कहा कि स्कूलों में सेक्स एजुकेशन की शुरुआत करना कितना महत्वपूर्ण है. इसकी एक वजह यह भी थी कि केरल में चर्च ही बहुत सारे शिक्षण संस्थान संचालित करते हैं.
जिस समय हमारी ये बातचीत हुई, वह वही वक़्त था, जब भारत ने स्कूल में सेक्स एजुकेशन दिए जाने के प्रोग्राम को रद्द किया था, क्योंकि दक्षिणपंथी धार्मिक समूहों ने, जिनमें केरल का त्रावणकोर तालिबान- धार्मिक सीरियाई ईसाई, जो ये मानते हैं कि सेक्स केवल प्रजनन के लिए है और जो अपनी बात को मनवाने के लिए अपने राजनीतिक प्रभाव और अल्पसंख्यक होने के अधिकारों का उपयोग करते हैं, दोनों ने ही इसका देशव्यापी विरोध किया था.
क्या है इस बारे में लोगों की सामान्य सोच
मेरे मित्र, जो मेरी बात बड़े ध्यान से सुन रहे थे, उन्होंने पूछा, ‘‘लेकिन ये सारी बातें तो हमें पता होनी ही चाहिए, है ना?’’
मैं उससे पूछना चाहता था, ‘‘कैसे पता चलेंगी? कहां से? हमारे माता-पिता से जो इसे छुपाते हैं? या फिर उसका इशारा पॉर्न की तरफ़ है?’’ पर मेरा उद्देश्य उससे पूछताछ करने का नहीं था, मैं उसे समझाना चाहता था इसलिए मैंने इस मुद्दे को वहीं छोड़ दिया और आगे की बातचीत जारी रखी.
पर इस बातचीत से एक बात तो बिल्कुल साफ़ हो गई थी कि हमारे यहां लोग यह मान लेते हैं कि किसी भी युवक को सेक्स जीवन संबंधी बातें केवल इसलिए मालूम हो जानी चाहिए कि वह पुरुष है.
लेकिन इस तरह की सोच का ख़तरा ये है कि सेक्शुअली अजेय होने और मर्दानगी का ज़हरीला एहसास होने के बीच केवल सूतभर का अंतर है, तभी तो बहुत से पुरुषों के लिए बुरे दौर से गुज़र रहे रिश्तों से जुड़ी अपनी किसी भी कमज़ोरी या बात को स्वीकार कर पाना बहुत ही मुश्क़िल होता है.
हमें अपनी अज्ञानता को स्वीकारना सिखाया ही नहीं जाता
जब पुरुषों को इस बात पर भरोसा करने को कहा जाता है कि पुरुषों की सेक्शुऐलिटी तो अपने आप आ जाती है, स्व-स्फूर्त होती है, जैविक रूप से संचालित होती है और इसके लिए उन्हें कुछ भी नहीं करना पड़ता- पुरुष इसे बिल्कुल ऐसा ही समझ लते हैं- और यह समझाकर एक पुरुष को आप जीवनभर का सेक्शुअल तनाव दे सकते हैं. यह भी संभव है कि दुर्भाग्य से यह तनाव उसका जीवनसाथी ता-उम्र झेलता रहे. (यदि पुरुषों की सेक्शुऐलिटी अजेय है तो फिर ये बताइए कि इरेक्टाइल डिस्फ़ंक्श इतनी आम समस्या क्यों है?)
जब हम अपनी अज्ञानता और कमी को स्वीकार करते हैं, फिर चाहे वो सेक्स से जुड़ी बात में या फिर अन्य किसी बात में तभी तो व्यक्तिगत विकास की ओर पहला क़दम बढ़ाते हैं!
क्या होता है, जब हम अपनी कमी को स्वीकार लेते हैं?
पूर्वी एशिया के साथ व्यापार के लिए नया मार्ग खोजने की चाह में जब क्रिस्टोफ़र कोलंबस एक नई जगह पर पहुंचा तो वहां मिले लोगों को उसने ‘इंडियन्स’ कहा, क्योंकि उसे लगा कि वो ईस्ट इंडीज़ या इंडोनेशियाई द्वीप समूह पर आ पहुंचा है.
यदि उनमें इस बात को समझने की विनम्रता होती कि स्वर्ग और धरती पर उससे भी कहीं ज़्यादा चीज़ें मौजूद हैं, जिनके बारे में शास्त्रों में उल्लेख किया गया है (बाइबल में केवल अफ्रीका, एशिया और यूरोप का ज़िक्र था) तो उसे यह जानकर आश्चर्य होता कि जिस धरती को उसने खोजा है, वह एक बिल्कुल ही अनजान महाद्वीप ‘अमेरिका’ है.
वहीं यूरोप ने अपनी इस प्रतिगामी मानसिकता को जीता और वह आज दुनिया के सबसे अमीर क्षेत्रों में से एक है, केवल इसलिए कि यूरोपीय लोग नए ज्ञान की खोज में अपनी अज्ञानता को स्वीकार करने की इच्छा रखते हैं. मुझे लगता है कि यह एक ऐसी बात है, जिसे हर किसी को अपने व्यक्तिगत जीवन में भी उतारना चाहिए.
इस बारे में जानिए एक्स्पर्ट की सलाह
आख़िर पुरुषों के लिए अपनी सेक्शुअल अज्ञानता को स्वीकारना इतना कठिन क्यों होता है इस बारे में और सटीक व चिकत्सकीय कोण से सलाह लेने के लिए मैंने डॉक्टर अजीत सक्सेना से बातचीत की, जो इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल, नई दिल्ली, के जानेमाने यूरो-ऐंड्रोलॉजिस्ट व वीवॉक्स के सह-संस्थापक हैं. अपने तीन दशकों के करियर में उन्होंने सैकड़ों पुरुषों को सही इलाज दिया है और काउंसलिंग की है.
इस मुद्दे पर डॉक्टर अजीत सक्सेना कहते हैं, ‘‘पुरुष इस मामले में खुलकर कुछ बोल सकें इसके लिए हमें पुरुष सेक्शुऐलिटी की समझ को बदलना पड़ेगा. और ऐसा करने का सबसे सही समय वह होता है, जब लड़के छोटे होते हैं और चीज़ों को जानने के लिए उत्सुक होते हैं. यदि आपने ध्यान दिया हो तो बच्चों में स्वाभाविक उत्सुकता होती ही है. वे जानना चाहते हैं कि मैं कहां से आया? कैसे आया? यदि मैं मर जाऊंगा तो क्या होगा? वगैरह… तो यही वह सही समय है, जब आपको उनसे उनकी उम्र के मुताबिक़ सेक्शुऐलिटी के बारे में बात करना शुरू कर देना चाहिए. पर चूंकि बहुत से माता-पिता ऐसा करने बचते और कतराते हैं तो ऐसे में स्कूलों को यह ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए. स्कूलों में इस बारे में बात करना एक आदर्श स्थिति होगी, क्योंकि बच्चे स्कूलों में लंबा वक़्त बिताते हैं!’’
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट