पेशे से एंडोक्राइन सर्जन डॉ संगीता झा अपने शहर हैदराबाद में एक उम्दा डॉक्टर के तौर पर जितनी मशहूर हैं, हिंदी जगत में अपने लेखन के लिए भी जानी जाने लगी हैं. आप उनकी कहानियों में अपने आसपास के किरदारों को देख सकते हैं. पितृसत्ता का मुखर विरोध और धर्म-जाति के पाखंड को उजागर करतीं उनकी कहानियां अपनी-सी लगने लगती हैं. हिंदी माह में जारी हमारी श्रृंखला में छठां साक्षात्कार डॉ संगीता झा का है, जो स्वास्थ्य के साथ-साथ साहित्य की भी सेवा पूरे लगन से कर रही हैं.
डॉ संगीता झा की कहानियां देश के कई पत्र-पत्रिकाओं, वेबसाइट्स पर छपती रहती हैं. लम्हे नाम से इनका एक उपन्यास प्रकाशित हो चुका है. पिछले दिनों प्रकाशित हुआ उनका कहानी संग्रह ‘मिट्टी की गुल्लक’ काफ़ी पसंद किया गया. हमने इस डॉक्टर-लेखक से उनकी लेखन यात्रा, प्रेरणा और अगले पड़ाव के बारे में बातचीत की.
आप एक जानी-मानी सर्जन हैं. ऐसी व्यस्तता के बीच कहानियां लिखने के लिए समय कैसे निकाल लेती हैं?
सर्जरी मेरा पेशा है और लेखन नशा. उम्र के ढलते दौर में पेशे पर नशे की जीत हो जाती है. बस में कितनी भी भीड़ हो कंडक्टर की जगह हमेशा रहती है, ठीक उसी तरह मैं कभी ओपीडी में दो मरीज़ों के बीच के विराम में तो कभी ऑपरेशन थिएटर में बैठे हुए कुछ लिख लेती हूं. सारा कुछ अपने फ़ोन में ही टाइप करती हूं. भला हो टेक्नोलॉजी का कि मेरा लेखन बहुत सरल हो गया है, अन्यथा पहले एक रजिस्टर में पहले रफ़ ड्राफ़्ट लिखो, फिर बहुत सारे करेक्शन्स करो.
आपने कहानियां लिखना कब शुरू किया? और कब लगा कि आपके अंदर एक कहानीकार है, जिसे बाहर लाना एक डॉक्टर के लिए बहुत ज़रूरी है?
लेखक तो बचपन से ही मेरे अंदर छुपा बैठा था. बचपन में छोटी छोटी तुकबंदी वाली कविताएं लिख बच्चों की पत्रिका में भेजती थी और कई पुरस्कार भी मिले. विभिन्न त्यौहारों के अवसर पर दैनिक अख़बारों की कहानी प्रतियोगिता में भाग लेती थी और पुरस्कार भी जीतती थी. लेकिन डॉक्टर बनना चाहती थी और उसके लिए रात-दिन की दुनियावी पढ़ाई की ज़्यादा ज़रूरत थी, इससे इस पक्ष को ना घर वालों से सराहा और ना ही मैंने ज़्यादा प्रयत्न किया. मेरा लेखन और प्रतिभा कॉलेज के डिबेट और भाषण प्रतियोगिता तक ही सीमित रह गया. फिर ज़िंदगी की दौड़ यानी प्रोफ़ेशन और फ़ैमिली के बीच फंसी रही. जब बच्चे बड़े होने लगे और प्रोफ़ेशन में भी एक मुक़ाम हासिल कर लिया तो फिर लगा कि कुछ ख़ुद के लिए भी करना चाहिए. लेखन की दूसरी पारी तो शायद मेरे लिए सेरेन्डिपिटी यानी अचानक होने वाला एक चमत्कार है. मेरे क़रीबी मित्र दम्पति आरती और अतुल जी मेरी ओपीडी में आए थे और उस दिन मरीज़ कम होने से मैं अपनी डायरी में कुछ संस्मरण लिख रही थी. उन्होंने सुनाने के लिए कहा और बस उन्हें मेरा लिखा काफ़ी अच्छा लगा और उनके प्रोत्साहन से मेरी लेखनी चल पड़ी.
आपकी कहानियों में आप ख़ुद कितना होती हैं? जैसे आपके कहानी संग्रह मिट्टी की गुल्लक की कई कहानियों का मुख्य पात्र मुन्नी का किरदार क्या आपसे मिलता-जुलता है?
मैंने कई बार अपनी भूमिका में लिखा है कि हम सबका एक भोगा यथार्थ होता है लेकिन यथार्थ की अनुभूति को अभिव्यक्ति हमारी कल्पनाएं ही देती हैं और ये कल्पनाएं कभी हरे कभी नीले पंख लिए होती हैं. मुन्नी और मुझमें काफ़ी समानता है लेकिन मेरी कल्पनाओं की उड़ान बहुत हद तक साथ है. जब आप कुछ लिखते हैं तो 100 प्रतिशत आप वहां होते हैं, चाहे वो पूरी कल्पना ही हो नहीं तो किरदार के साथ न्याय नहीं हो पाता. जैसे मिट्टी की गुल्लक संग्रह में एक कहानी है ‘ख़ूनी मुक़ाबला’ जिसमें भाई भी साथ है लेकिन भाई को मेरा लिखना पसंद नहीं आया और उसका मानना था कि इतनी अतिशयोक्ति की क्या ज़रूरत थी? लेखक सारा कुछ अपने आसपास से ही उठाते हैं और इस मशीनी युग में भावनाएं अपनों से ही हार जाती हैं, क्योंकि कई बार सच्चाई इतनी बयां हो जाती है कि आपके असली जीवन के पात्र को नागवार गुज़रती है. मुझे कई लेखकों ने बताया कि इस लेखनी ने कई दुश्मन पैदा किए हैं.
बतौर लेखक आपको मिली अब तक की सबसे अच्छी प्रशंसा क्या रही है? ख़ासकर ऐसी प्रशंसा, जिसने आपको और लिखने के लिए प्रेरित किया हो?
हर इंसान प्रशंसा का भूखा होता है और प्रशंसा ही आपको आगे बढ़ाती है और आप थोड़े लालची हो जाते हैं. मेरी कहानियों की भाषा सरल होने से आम लोगों के लिए पढ़ना भी आसान होता है. पत्रिकाओं में छपी हर कहानी के नीचे मेरा फ़ोन नम्बर छपा होने से बहुत फ़ोन मैसेज आते थे. मैं अपनी सबसे अच्छी प्रशंसा उस वाक़ए को समझती हूं, जब कथादेश में छपी मेरी एक कहानी पढ़ मुझे उस्मानिया यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग से फ़ोन आया कि मैं हिंदी डिपार्टमेंट में बतौर लेक्चरर अप्लाई कर सकती हूं. मैंने उन्हें समझाया कि मैं साहित्य की डॉक्टर नहीं बल्कि एक सर्जन हूं.
आपकी कहानियों में डॉक्टर्स और हॉस्पिटल्स के बारे में कई बार ज़िक्र होता है. क्या वे आपके रियल लाइफ़ अनुभवों के चलते है?
जैसे मैंने पहले भी बताया हम अपने आसपास से ही कोई पात्र चुनते हैं फिर अपनी कल्पनाओं का जामा पहनाते हैं. उसे रियल लाइफ़ अनुभव तो नहीं पर रियल लाइफ़ की कल्पनाओं का नाम दिया जा सकता है.
क्या आपके पेशेंट्स को पता है कि आप एक लेखिका भी हैं? जब उन्हें पता चलता है तब उनका क्या रिऐक्शन होता है?
हैदराबाद में होने से यहां हिंदी के काफ़ी जानकार हैं. यहां के दैनिक हिंदी अख़बार हिंदी मिलाप में मेरी कहानियां अक्सर छपती हैं और मेरे हिंदी पढ़ने वाले मरीज़ बड़े ख़ुश हो मुझे कॉपी पेस्ट कर भेजते हैं. लेखन ने मेरे दम्भ को तो कम किया ही है, साथ अंदर दया भाव भी जगाया है. मेरे मरीज़ बार-बार कहते हैं,‘आप इतनी अच्छी राइटर हैं इसलिए हमारी तक़लीफ़ भी अच्छी तरह समझ जाती हैं.’
आपको अपना कौन-सा रोल बहुत ज़्यादा पसंद है? एक लेखिका का या डॉक्टर का? आप अपने किस रोल की प्रशंसा सुनना ज़्यादा पसंद करती हैं?
मनुष्य एक स्वार्थी प्राणी है और समाज में डॉक्टर का स्थान ज़्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है. लोग मेरा परिचय बड़े गर्व से देते हैं बहुत बड़ी डॉक्टर हैं लिखती भी ज़बरदस्त हैं. मुझे तो एक बहुत बड़ा लेखक बनना पसंद है, पर मै अपने लिमिटेशन भी जानती हूं. चाहकर भी बहुत अच्छा नहीं लिख पाती. मैं आत्मप्रशंसा नही करना चाहती लेकिन मैं एक क़ामयाब सर्जन भी हूं और मेरे मरीज़ मुझसे काफ़ी ख़ुश रहते हैं.
आपकी ज़्यादातर कहानियों में पुरुष सत्तात्मक समाज को चुनौती देनेवाली या उनका चेहरा दिखानेवाली बात होती है? इसका कोई ख़ास कारण?
मैं बचपन से ही अपराजिता थी. अपने उड़ान की दिशा ख़ुद तय करती थी. मेरे ज़िंदगी के पहले पुरुष स्त्री शिक्षा, स्वतंत्रता के समर्थक थे, लेकिन ज्यों-ज्यों बड़ी होती गई उनके अंदर का पुरुष दिखता गया. विवाह भी उन्हीं की मर्ज़ी से हुआ. क़िस्मत से पति बहुत अच्छे मिले. लेकिन कार्यक्षेत्र में दूसरे पुरुष जब स्त्रियों के शरीर और दूसरी चीज़ों का मज़ाक़ उड़ाते तो दिल बड़ा दुखता था. फिर कई स्त्रियों को बड़े पास से देखा जो महरी से लेकर ऑपरेशन थिएटर की खुर्राट इंचार्ज नर्स कहीं ना कहीं किसी ना किसी रूप में पति के अत्याचारों का शिकार थीं. तन की मार से ज़्यादा मन की हार परेशान करती है. जब कोई कहता कि,‘मेरे हसबैंड को बाहर का खाना पसंद नहीं है इसलिए हम बाहर खाना नहीं खाते.‘ मैं पूछती,‘और तुम्हें?’ इस तरह की छोटी-छोटी बातें दिल में दस्तक देती हैं. लेखन आपके दिमाग़ के ताले भी खोलता है इसलिए सोच भी बदलती है और बराबर की दुनिया चाहते हैं. मेरी ख़ुद की बेटी में भी मैं समाज के लिए विद्रोह के बीज देखती हूं.
आप ख़ुद किन लेखकों को पढ़ती हैं? मौजूदा पीढ़ी के आपके पसंदीदा लेखक कौन हैं? या आप क्लासिक कहानियां-उपन्यास ही पढ़ना पसंद करती हैं?
मेरे पेशे की व्यस्तता, घर की ज़िम्मेदारी और लेखन के शौक़ के बाद पढ़ने का समय कम ही मिलता है. लेकिन मैं संजीव, सूरजप्रकाश, ममता कालिया जी को पढ़ना पसंद करती हूं. लेकिन अपने सारे सपने मैंने शिवानी, मन्नू भंडारी, उषा प्रियम्वदा, प्रेमचंद, शरतचंद्र के साथ ही जिए हैं. अभी वर्तमान पीढ़ी के लगभग सभी लेखक इतना गहरा और सच्चा लिखते हैं कि मैं हैरान रह जाती हूं कि उन्होंने ऐसा सोचा तो कैसे सोचा!
आपने पिछले दिनों कोरोना पर कई सारी कहानियां लिखीं, जो पाठकों द्वारा काफ़ी सराही भी गईं. कोरोना कहानी सिरीज़ शुरू करने के बारे में आपने सोचा था, यह एक डॉक्टर की व्यथा थी, जो कहानियों के माध्यम से बाहर आ गई?
कोरोना ने मेरी और शायद बहुत लोगों की ज़िंदगी पूरी तरह से बदल दी. आत्ममंथन का बहुत समय मिला. ज़िंदगी की हर तरह से कल्पना करने की दिशा मिली. सर्जरी बंद होने से पेशे से विराम मिला और फ़ेमिना के अमरेन्द्र जी का साथ मिला. मैं जो भी लिखती, तुरंत छप जाता, सराहा जाता. इससे प्रेरित होकर मैं और ज़ोर-शोर से लिखने में जुट जाती. कुछ डॉक्टर का दर्द भी था.
क्या लम्हे के बाद आप किसी दूसरे उपन्यास पर भी काम कर रही हैं? अगर हां, तो वह कब तक आ पाएगा? उसका सब्जेक्ट क्या होगा?
हिंदी साहित्य लेखन की सभी विधाओं से भरा पड़ा है. इतना कुछ लिखा जा चुका है कि कुछ अलग लिखने की ज़रूरत है, जो रोचक भी हो और भिन्न भी. जब मैंने सर्जरी जॉइन की थी तब इस क्षेत्र में गिनी चुनी महिलाएं थीं. मेरे पास वो अनुभवों का पिटारा है. मेल डॉमिनेटेड फ़ील्ड में एक महिला के तजुरबे. उन लमहों को अपनी कल्पनाओं का जामा पहनाने की कोशिश जारी है. समय कितना लगेगा, इसकी डोर कल्पनाओं के हाथ है. देखिए, इंतज़ार कीजिए.