क्या सेक्स/पॉर्न एडिक्शन एक सच्चाई है? और सचमुच यह है क्या? इस बारे में हमारे देश के ज़्यादातर डॉक्टर्स जानते ही नहीं हैं. दरअसल एडिक्शन शब्द लोगों को इतना भाता है कि कई बार वे ख़ुद पर ही एडिक्ट होने का लेबल लगा लेते हैं तो कई बार दूसरे लोग बिना जाने-समझे किसी पर इस एडिक्ट होने का लेबल लगा देते हैं. पर सेक्स के मामले में यह बात ख़तरनाक भी हो सकती है. तो ऐसे में क्या किया जाए? इसे कैसे समझा जाए? इस बारे में जानिए एक्स्पर्ट्स की राय.
कुछ दिनों पहले मेरे पड़ोसी के आठ साल के बच्चे ने मुझे वह कहानी दिखाई, जो उसने ख़ुद ही लिखी थी. उसे देखते हुए जिस बात पर मेरा सबसे ज़्यादा ध्यान गया वो था कहानी का शीर्षक- माइ एडिक्शन यानी मेरी लत. जब मैंने उससे पूछा कि तुमने ‘एडिक्शन’ शब्द का इस्तेमाल क्यों किया, जबकि कहानी में तो ऐसा कुछ भी नहीं है. तो वह थोड़ा झिझका और बोला,‘‘मुझे यह शब्द बहुत पसंद है और मैं इसका इस्तेमाल करना चाहता था.’’
एडिक्शन शब्द बिकता है!
हम एक ऐसी संस्कृति में रह रहे हैं, जहां एडिक्शन (लत या व्यसन) शब्द को बहुत ज़्यादा बेचा जा रहा है, उस पर बहुत ज़ोर दिया जा रहा है, ड्रग्स से लेकर ऐल्कहॉल तक और पॉर्न से लेकर वीडियो गेम्स तक… इतना ज़्यादा कि परेशान हाल वयस्कों से लेकर ‘एडिक्ट’ शब्द की सही स्पेलिंग तक न जानने वाले बच्चे भी ख़ुद को ‘एडिक्ट’ घोषित कर रहे हैं.
अब इसका ख़ामियाजा यह है कि यह उन लोगों के लिए बहुत ही नुक़सानदायक है, जिन्हें वाक़ई ‘एडिक्शन’ के चलते मदद की ज़रूरत है. यह बात सेक्स और पॉर्न के केस में बिल्कुल सही है, जहां लोगों को लेबल किया जा रहा है या वे दूसरों को या फिर ख़ुद को ही एडिक्टेड लेबल कर रहे हैं, बिना यह जाने कि आख़िर इस व्यवहार के पीछे का सही कारण क्या है?
यही वजह है कि सेक्स एडिक्शन को किसी भी नामचीन वैज्ञानिक संस्था यहां तक कि वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गैनाइज़ेशन (WHO) द्वारा भी चिकित्सकीय निदान यानी क्लीनिकल डायग्नोसिस जैसा मामला नहीं समझा गया है.
एडिक्शन शब्द को समझिए
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गैनाइज़ेशन और डीएसएम-5 (वह मैन्युअल, जिसका इस्तेमाल अमेरिकन साइकियाट्रिस्ट्स मानसिक विकारों के निदान के लिए करते हैं) के मुताबिक़, तीन क्लीनिकल घटक, जो एडिक्शन को ऐल्कहॉल या ड्रग्स के मामले में परिभाषित करते हैं, वो पॉर्न या सेक्स एडिक्ट्स के मामले में दिखाई नहीं देते. ये घटक हैं:
1. सहिष्णुता (वही ऑर्गैज़्म पाने के लिए लोगों को ज़्यादा सेक्स की ज़रूरत नहीं होती)
2. वापसी के लक्षण यानी विद्ड्रॉल सिम्प्टम्स (शराब या ड्रग्स का सेवन बंद करने से लोगों को कई दुष्प्रभावों से गुज़रना पड़ता है, लेकिन सेक्स या पॉर्न के साथ ऐसा नहीं है)
3. मृत्यु का ख़तरा (ऑर्गैज़्म की अधिकता से आज तक किसी की मौत नहीं हुई है, बल्कि इसका अधिक होना तो बताता है कि व्यक्ति सेहतमं है)
इन बातों को बताने का यह मतलब क़तई नहीं है कि पॉर्न/सेक्स/मैस्टर्बेशन (जो पॉर्न देखने के साथ, साथ-साथ ही चलते हैं) में कोई समस्या नहीं हो सकती. सच पूछिए तो इनकी वजह से ऐसे कम्पल्सिव बिहेवियर पैटर्न्स सामने आ सकते हैं, जो रिश्तों को और जीवन को बुरी तरह प्रभावित करते हैं. लेकिन कम्पल्सिव बिहेवियर किसी लत या एडिक्शन जैसा नहीं होता. हालांकि यह उसके जैसा दिख सकता है, महसूस हो सकता है, बिल्कुल उसी तरह जैसी कि कुछ लोग संतरे और किन्नू को बाहर से देखने पर उसके अंतर को नहीं समझ पाते.
अब एडिक्शन कोई फल तो है नहीं इसलिए यह आपके लिए बुरा भी साबित हो सकता है. यही वजह है कि किसी मेडिकल प्रैक्टिशनर यानी डॉक्टर्स के लिए इन दोनों के बीच अंतर जानना बहुत ज़रूरी है, ताकि वे इसका प्रभावी इलाज कर सकें. लेकिन भारत जैसे देश में ज़्यादातर डॉक्टर्स इस तरह की सेक्शुअल समस्या का इलाज करने में समर्थ नहीं हैं.
एडिक्शन और कम्पल्सिव बिहेवियर में है अंतर
जो लोग इस तरह की परेशानी में हैं उनके इलाज के लिए सबसे पहले तो एडिक्शन और कम्पल्सिव बिहेवियर के बीच अंतर समझना बहुत मायने रखता है. क्योंकि एडिक्शन के लिए इलाज के जो तरीक़े उन डॉक्टर्स द्वारा तय किए गए हैं, जो परम्पराओं और संस्कृति के पहरेदार की तरह भी व्यवहार कर जाते हैं, वो उन लोगों पर काम नहीं करेंगे, जिन्हें ‘पॉर्न एडिक्ट’ के लेबल से नवाज़ते हुए शर्मिंदगी से भर दिया गया है.
मैं इस बात को व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं, क्योंकि बहुत साल पहले अपनी ख़ुद की सेक्शुअल परेशानी से गुज़रते हुए, ख़ुद को योग्य कहनेवाले कुछ ‘झोलाछाप’ लोगों ने मुझे भी यह बात समझा दी थी कि पॉर्न के एडिक्शन से इरेक्टाइल डिस्फ़ंक्शन हो जाता है. सालों बाद ख़ुद को खोजते हुए और एक दिल तोड़नेवाले ब्रेकअप के बाद मैंने जाना कि मेरी समस्या का पॉर्न से तो दूर-दूर तक कोई लेना-देना ही नहीं था, बल्कि उसकी वजह थी मैस्टर्बेशन का एक गलत तरीक़ा, जिसे दुनिया के लगभग 10 % पुरुष अनजाने में इसलिए अपनाते हैं, क्योंकि सेक्स के आसपास धार्मिक और सांस्कृतिक दमन जैसा माहौल बना दिया जाता है. लेकिन यदि सही मेडिकल सलाह मिले तो इस समस्या को आसानी से ठीक किया जा सकता है.
इस मुद्दे का पूर्वाग्रहों के साथ घालमेल ख़तरनाक हो सकता है
तो जब कोई मेडिकल प्रैक्टिशनर इस ख़तरे को नज़रअंदाज़ करते हुए एडिक्शन की अपनी ख़ुद की परिभाषा गढ़ लेता है तो वो उसमे ख़ुद ब ख़ुद अपनी नैतिकता, सोच और पूर्वाग्रहों को शामिल करते हुए उसका इलाज करता है, जो मरीज़ के लिए या तो किसी काम का नहीं होता या फिर उसे नुक़सान पहुंचा सकता है. यह बिल्कुल उसी तरह है, जैसे आज भी कई डॉक्टर्स समलैंगिकों को ठीक करने की थेरैपी करते हैं, जबकि वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गैनाइज़ेशन और दूसरी चिकित्सकीय संस्थाओं ने भी होमोसैक्शुऐलिटी (समलैंगिकता) को मानव सेक्शुऐलिटी का एक सामान्य वर्शन मान लिया है. ये ऐसे मेडिकल प्रैक्टिशनर्स हैं, जो शास्त्रों में विश्वास करते हैं, साइंस में नहीं.
अब आप ही मुझे बताइए कि क्या अपने डॉक्टर से इस बात की उम्मीद रखना कि वो एडिक्शन के बारे में एक आठ वर्ष के बच्चे से ज़्यादा जानकारी रखे, क्या बहुत बड़ी अपेक्षा है?
अब एक्सपर्ट्स की राय जानिए
इस बारे में और जानकारी जुटाने के लिए मैंने वीवॉक्स के एक्स्पर्ट्स डॉक्टर डी नारायण रेड्डी (विश्व विख्यात सेक्स हेल्थ विशेषज्ञ) और डॉ शर्मिला मजूमदार (आइकान स्कूल ऑफ़ मेडिसिन, अमेरिका, से बोर्ड सर्टिफ़ाइड भारत की एकमात्र महिला सेक्सोलॉजिस्ट) से बातचीत की.
डॉक्टर नारायण रेड्डी का कहना है,‘‘पॉर्न/सेक्स एडिक्शन, ये तो मीडिया द्वारा लोकप्रिय कराया गया टर्म है, क्योंकि यह हेडलाइन्स बनाने में प्रभावी लगता है. बिना इस बात का प्रभाव जाने कि लोगों पर इसका क्या असर पड़ेगा उन्हें एडिक्ट की तरह लेबल करना अवैज्ञानिक है. बतौर डॉक्टर यह जानना महत्वपूर्ण हैं कि किन छुपी हुई वजहों से लोग किसी को या फिर कुछ लोग ख़ुद को ही पॉर्न या सेक्स के एडिक्ट का लेबल लगा रहे हैं और आख़िर वे इस तरह का व्यहार क्यों कर रहे हैं.
‘‘इरेक्टाइल डिस्फ़ंक्शन एक जटिल घटना है, जो कई कारकों के चलते हो सकती है, केवल पॉर्न ही इसकी वजह हो, ज़रूरी नहीं. इस देश के 96% डॉक्टर्स सेक्शुऐलिटी को ही सही तरीक़ से नहीं समझ पाते. आज भी, भारत में कोई ऐसा मेडिकल कॉलेज नहीं है, जो सेक्शुअल मेडिसिन के बारे में पढ़ाता हो. एक निजी व्यक्ति की तरह इस बात पर मेरा मत अलग हो सकता है कि मैं किसे एडिक्शन मानूं, लेकिन एक डॉक्टर की तरह तो मुझे वही बात माननी होगी, जो वैज्ञानिक संस्थाएं कहती हैं.’’
इस मुद्दे पर डॉक्टर शर्मिला मजूमदार कहती हैं,‘‘जो लोग सेक्स का आनंद लेते हैं, उनपर नैतिक दबाव बनाने का एक नया तरीक़ा है- सेक्स/पॉर्न एडिक्शन. अक्सर इस संकल्पना का इस्तेमाल धार्मिक और राजनीतिक लोगों द्वारा सेक्स के प्रति नकारात्मकता फैलाने के लिए किया जाता है. इस तरह का लेबल लोगों की सामान्य सेक्शुअल इच्छाओं और व्यवहार पर भी नकारात्मक और बुरा असर डाल सकता है.
‘‘कई बार लोग भी अपने कामों की ज़िम्मेदारी लेने से बचने के लिए ख़ुद को पॉर्न या सेक्स एडिक्शन के लेबल के पीछे छुपाना चाहते हैं, तभी तो हार्वी वीन्स्टीन और आरॉन लॉन्ग (अटलांटा का वह हत्यारा, जिसने एक मसाज पार्लर में एशिया की छह महिलाओं को गोली मार दी थी, क्योंकि वह मानता था कि महिलाएं एक तरह का प्रलोभन हैं, जिन्हें ख़त्म कर दिया जाना चाहिए) जैसे लोग भी सेक्स एडिक्ट होने का दावा करते हैं. जबकि ये लोग सेक्स एडिक्ट्स नहीं, बल्कि सेक्स अपराधी हैं.
‘‘इन सब बातों के बावजूद यह एक सच्चाई है कि मेरे पास भी ऐसे मरीज़ आते ही रहते हैं जो ख़ुद पर सेक्स/पॉर्न एडिक्ट का लेबल लगाकर परेशान रहते हैं.’’
फ़ोटो: गूगल