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Home सुर्ख़ियों में नज़रिया

धर्म, राजनीति अलग अलग अच्छे हैं, पर तरक़्क़ी की राह धर्मनिरपेक्षता से निकलती है

शिल्पा शर्मा by शिल्पा शर्मा
April 21, 2022
in नज़रिया, सुर्ख़ियों में
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धर्म, राजनीति अलग अलग अच्छे हैं, पर तरक़्क़ी की राह धर्मनिरपेक्षता से निकलती है
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यदि किसी देश को आगे बढ़ना होता है तो वह राजनीति और धर्म को अलग रखता है. यह बात पश्चिमी देशों ने पहले ही समझ ली थी. अब हमें भी यह समझना होगा कि हमारे देश के बच्चों को आगे बढ़ने के लिए अच्छा माहौल चाहिए, जो धर्म और राजनीति का कॉकटेल कभी नहीं दे सकता. धर्म और राजनीति दोनों ही अच्छे टूल्स हैं, लेकिन इनका घालमेल ख़तरनाक होता है. हमारे-आपके लिए ही नहीं, हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी. धर्म आपके स्व को सुधारने का ज़रिया है, परलोक को सुधारने का ज़रिया है और राजनीति आपके देश को आगे ले जाने का, इहलोक का. अलग-अलग तो दोनों ही अच्छे हैं लेकिन इनका कॉकटेल हमेशा जानलेवा होता है. यदि किसी भी देश को तरक़्क़ी करनी है तो यह परखी हुई बात है कि उसकी राह धर्मनिरपेक्षता से ही निकलती है.

हमारे देश में आज का जो अशांत माहौल है, उस पर अचरज होता है.अचरज होता है कि लोग आगे तक क्यों नहीं सोच पाते. केवल सीमित स्वार्थ उनके भीतर कैसे पनप सकता है? ज़रा भी आगे तक सोचने का माद्दा क्यों नहीं है हम में?
शायद इसकी वजह हमारे शिक्षा में छुपी है, जो हमें गहराई में सोचना नहीं सिखाती. इसकी दूसरी वजह सोशल मीडिया के ज़रिए फैलने वाली वह भ्रामक और ज़हरीली सामग्री है, जो राजनैतिक पार्टियों का टूल बन चुकी है. इनके ज़रिए जो समस्या पनपाई गई है, वो ये है कि हमारे देश के बहुसंख्य लोग (जो आपस में भी आज तक एकजुट न हो सके), उन्हें अल्पसंख्यकों से यकायक ख़तरा महसूस होने लगा. अब सोचने वाली बात यह है कि यह ‘यकायक’ वाक़ई यकायक है या फिर इसके लिए बीते कुछ वर्षों में ज़मीन तैयारी की गई है.

जब हम महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू को पढ़ते हैं तो यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि आख़िर हमने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होना क्यों चुना होगा. पीयूष बबेले की किताब नेहरू मिथक और सत्य के पेज नंबर 33 की शुरुआती कुछ पंक्तियां पढ़ते ही आपके सामने बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है. तात्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 15 अगस्त वर्ष 1950 के अपने भाषण में कहा था, ‘‘आज़ादी के माने यह नहीं हैं कि हर एक आदमी आज़ादी के नाम पे हर बुरा काम करे. आप अपने ख़्यालात का आज़ादी से इज़हार कीजिए, लेकिन उसके माने यह नहीं कि सड़क या अख़बारों में हर एक को गाली दीजिए. क्योंकि फिर तो ऐसी बातों से हमारी सारी ज़िंदगी गिर जाएगी. ख़ासतौर से आज़ादी के माने यह नहीं हैं कि लोग उस आज़ादी के नाम से उसी आज़ादी की जड़ें खोदें. अगर कोई ऐसा करे तो ज़ाहिर है, उसका मुक़ाबला करना होता है, उसे रोकना होता है.’’

यहां पीयूष आगे लिखते हैं कि एक तरफ़ नेहरू समझा रहे थे कि आज़ाद मुल्क में आज़ादी के क्या मायने होते हैं तो दूसरी तरफ़ उन्हें बख़ूबी पता था कि इतनी क़ुर्बानियों के बात हासिल की गई आज़ादी को चुनौती कहां से मिलने वाली है. नेहरू के दिमाग़ में इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल का वह कुख्यात बयान ज़रूर रहा होगा, जिसमें चर्चिल ने कहा था कि अगर अंग्रेज़ भारत छोड़ कर चले गए तो भारत के लोग इस देश को चला नहीं पाएंगे. यहां के जाहिल लोग आपस में लड़ मरेंगे और देश के सौ टुकड़े हो जाएंगे.
आज के समय में यह प्रासंगिक होगा कि हम हालात पर गहरी नज़र डालें और सोचें कि आख़िर हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं.

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कुछ सवाल जो पूछे जाने चाहिए
अमूमन आप हर शहर में देखेंगे कि अल्पसंख्यकों के मोहल्ले, बस्तियां कुछ हट कर होते हैं. क्या वजह है कि बहुसंख्यकों के धार्मिक जुलूस इन इलाक़ों से निकाले गए? यदि पुराने अनुभवों के आधार पर हम यह जानते हैं कि इस तरह के धार्मिक संघर्ष होते रहते हैं तो क्या एहतियातन प्रशासन को इन जुलूसों के लिए कोई अन्य मार्ग तय नहीं कर देना चाहिए था? यदि ये शोभा यात्राएं, उसी मार्ग से निकाला जाना इतना ही आवश्यक था तो इसमें हथियारों की अनुमति क्यों दी गई? यदि बिना अनुमति के हथियार लाए गए तो ऐसा करने वालों पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई?

अब बात पत्थरों के जमावड़े की की जानी चाहिए. आमतौर पर पुलिस का नेटवर्क इतना तगड़ा तो होता ही है (होना चाहिए, भले ही अब न रहा हो और यदि ऐसा है तो यह भी शोचनीय है) कि उन्हें इस तरह के पत्थरों और हथियारों के इकट्ठा होने के बारे में मालूमात होने चाहिए, पर क्यों उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी? यदि जानकारी थी तो पहले ही एहतियातन लोगों को गिरफ़्तार क्यों नहीं किया गया? यह भी प्रशासन की असफलता है.

ऐसी घटनाओं के घटने के अगले दिन ही प्रशासन को अवैध निर्माण पर हथौड़ा चलाने की याद क्यों आई. जबकि ये निर्माण तो बरसों पहले हो चुके थे. फिर एक जगह के प्रशासन को याद आई तो दूसरी जगह भी वही वारादात घटी और दूसरी जगह के प्रशासन को भी घटना के दूसरे दिन अवैध निर्माण को तोड़ने की याद आ गई. क्या पहली घटना के बाद देश में दूसरी जगह ऐसी वारदात से बचा नहीं जा सकता था? यह बात भी प्रशासन की क्षमता पर सवाल खड़ा करती है.

कुछ जवाब जो हम सहज बोध से जानते हैं
ये बातें इस शक की गुंजाइश बना देती हैं कि शोभा यात्रा ले जाने वालों के पीछे कोई और दिमाग़ काम कर रहा था, जो जनता को बांटना चाहता है. अन्यथा एक ही जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं हो सकती. इच्छाशक्ति हो तो पहली घटना के बाद ही प्रशासन को इतना चाक-चौंबद बनाया जा सकता है कि देशभर में कहीं भी ऐसी घटना दोबारा न घटने पाए.

यदि किसी भी देश का माहौल दंगे-फसाद से भरा होगा तो वहां के युवा आगे नहीं बढ़ सकते. वहां विकास की बात नहीं होती, बेरोज़गारी की बात नहीं होती, महंगाई की बात नहीं होती. कुल मिलाकर रहन-सहन के उस स्तर की मांग ही नहीं उठती, जिसे पाना उस देश के हर नागरिक का हक़ है. और लोगों का ध्यान इन सब बातों से भटका कर केवल उन्माद में लगाए रखने से किसका फ़ायदा होता है? सत्ता का. यह भी हम सब समझते हैं.

अब अल्पसंख्यकों की समस्याओं को भी समझें
आज़ादी के बाद से यहां रह रहे अल्पसंख्यकों ने यहां रहने का चुनाव किया, उसकी वजह शायद उनकी यह सोच रही हो कि एक धर्मनिरपेक्ष देश उनके लिए ज़्यादा अच्छा रहेगा. यहां वे ज़्यादा तरक़्क़ी कर सकेंगे. अब आज के माहौल को देखते हुए ज़रा सोचिए कि यदि कोई आप पर हमला करे तो आप क्या करेंगे? आपकी सहज प्रतिक्रिया होगी अपना बचाव करना. है ना?
आज जो माहौल है उसमें यदि अल्पसंख्यक समुदाय हमले के डर से (जो बीते कुछ वर्षों में उस पर बढ़े ही हैं) अपनी रक्षा के लिए पत्थर या हथियार इकट्ठे करे तो भी वही आरोपों के कटघरे में खड़ा होता है, न करे तो उसे नुक़सान पहुंचाए जाने का डर सता रहा है और उनकी ओर से हमला होने पर तो बिना क़ानून की परवाह किए बुलडोज़र चल रही रहे हैं.

यदि विपक्ष (जो इन दिनों नदारद सा ही है!) अल्पसंख्यकों के पक्ष में आए तो उस पर तुष्टिकरण का आरोप मढ़ दिया जाता है और यही वजह है कि वोट बैंक पॉलिटिक्स के चलते वह भी सामने नहीं आता. आख़िर ये अल्पसंख्यक हमारे ही देश के हैं, हमारे नागरिक हैं, हमारे भाई-बंधु हैं तो हम-आप इन्हें नफ़रत क्यों दे रहे हैं? यह भी तय है कि यदि आप किसी पर ज़ुल्म करेंगे तो वह प्रतिक्रिया करेगा, फिर चाहे वह कोई भी हो. हमें सोचना होगा कि क्या यह तथ्य हम समझ नहीं रहे हैं या फिर जानबूझ कर नज़रअंदाज़ कर रहे हैं?

हमेशा असफल रहा है धर्म और राजनीति का कॉकटेल
यदि किसी देश को आगे बढ़ना होता है तो वह राजनीति और धर्म को अलग रखता है. यह बात पश्चिमी देशों ने पहले ही समझ ली थी. अब हमें भी यह समझना होगा कि हमारे देश के बच्चों को आगे बढ़ने के लिए अच्छा माहौल चाहिए, जो धर्म और राजनीति का कॉकटेल कभी नहीं दे सकता.

धर्म और राजनीति दोनों ही अच्छे टूल्स हैं, लेकिन इनका घालमेल ख़तरनाक होता है. हमारे-आपके लिए ही नहीं, हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी. धर्म आपके स्व को सुधारने का ज़रिया है, परलोक को सुधारने का ज़रिया है और राजनीति आपके देश को आगे ले जाने का, इहलोक का. अलग-अलग तो दोनों ही अच्छे हैं लेकिन इनका कॉकटेल हमेशा जानलेवा होता है.

एक बार दुनिया के उन देशों पर नज़र डालें जो धर्म के आधार पर बने हैं: पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान का उदाहरण तो हमारे सामने है, कितना आगे बढ़ सके हैं वो? हम उनसे आगे निकले, क्योंकि धर्मनिरपेक्ष रहे. श्रीलंका ने भी बौध धर्म को अपनाने का प्रयास किया, आज उसके हालात भी आपसे छुपे नहीं हैं. दूसरी ओर अमेरिका, जापान जैसे देशों को देखें. जो विश्वभर के अच्छे से अच्छे टैलेंट को अपने यहां जगह दे कर अपने देश को तरक़्क़ी की राह पर ले जा रहे हैं. वे देश, जाति, धर्म का भेदभाव किए बिना दुनियाभर के लोगों को अपने यहां काम करने बुलाते हैं, अपना विकास करने. और आगे बढ़ते जा रहे हैं. इसी से सिद्ध होता है कि धर्म और राजनीति का गठजोड़ हमें कभी आगे नहीं ले जाएगा.

कुछ देश जहां धर्म ख़त्म होने जा रहा है
जहां एक ओर हम धर्म के नाम पर नित नए बखेड़े खड़े कर रहे हैं, अपने ही लोगों पर पत्थर और हथियार निकाल रहे हैं और अपनी ही जनता के घरों, दुकानों पर बुलडोज़र चला कर उनकी रोज़ी-रोटी छीन रहे हैं, वहीं दूसरी ओर दुनिया के कुछ देश ऐसे भी हैं, जहां धर्म ख़त्म होने जा रहा है. ये वो देश हैं, जहां जा कर बसने का ख़्वाब भारतीय भी देखते हैं, क्योंकि ये हमारे देश से ज़्यादा संपन्न देश हैं.

बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, दुनिया में नौ ऐसे देश हैं, जहां की जनसंख्या से जुड़े आकड़ों के मुताबिक़ धर्म पर भरोसा न करने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है. एरिज़ोना यूनिवर्सिटी के रिसर्चर रिचर्ड वीनर के अनुसार,‘‘आधुनिक लोकतंत्रों में लोग ख़ुद को धर्म से जोड़कर नहीं देखते हैं.’’ इस मामले में उन्होंने डेटा कलेक्शन के लिए परंपरागत तरीक़े का इस्तेमाल किया और वे कोशिश कर रहे हैं कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की राय इसमे शुमार की जाए.
उनकी रिसर्च के हवाले से यदि आपको बताएं तो वे देश जहां धर्म पर भरोसा करने वाले लोगों में कमी आई है, ये हैं- ऑस्ट्रेलिया, चेक रिपब्लिक, कनाडा, फ़िनलैंड, आयरलैंड, नीदरलैंड्स, न्यूज़ीलैंड और स्विटज़रलैंड.

अब यह हमें सोचना है कि हम क्या चाहते हैं? किस दिशा में अपने देश को ले जाना चाहते हैं? तरक़्क़ी और अमन की राह पर या धार्मिक कट्टरता और उन्माद की राह पर…

फ़ोटो: गूगल

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शिल्पा शर्मा

शिल्पा शर्मा

पत्रकारिता का लंबा, सघन अनुभव, जिसमें से अधिकांशत: महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कामकाज. उनके खाते में कविताओं से जुड़े पुरस्कार और कहानियों से जुड़ी पहचान भी शामिल है. ओए अफ़लातून की नींव का रखा जाना उनके विज्ञान में पोस्ट ग्रैजुएशन, पत्रकारिता के अनुभव, दोस्तों के साथ और संवेदनशील मन का अमैल्गमेशन है.

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