अगर हम अपने पुराणों को खंगालें तो पाएंगे कि वहां सेक्स को लेकर किसी तरह की वर्जनाएं नहीं थीं, जो आज देशभर में दिखाई देती रहती हैं. जिन युगों में वर्जनाएं नहीं थी उन दिनों में प्रेम उन्मुक्त प्रेम सुखी समाज की आधारशिला था और स्त्री-पुरुष में समानता की स्थिति थी. लेकिन कालांतर में युद्ध और कुनबे को बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा के चलते धीरे-धीरे स्त्रियों के मन में यह बात डाली गई कि अपने पति और परिवार का ध्यान रखना ही उनका काम है. जबकि पुरुषों के भीतर इस तरह की भावना डाली गई कि स्त्री का भोग उनका अधिकार है और उन्हें प्रेम की कोमल भावनाओं से दूर ही रहना चाहिए. इस बारे में और जानकारी दे रही हैं भावना प्रकाश.
ये तो हम जान ही चुके हैं कि अपने कुनबे का दबदबा बढ़ाने और अपने आधिपत्य जमाने के लिए लड़कियों को कोमल और कार्य में दक्ष होने की सीख दी गई, ताकि उसका ध्यान स्वतंत्र जीवन की ओर न भटके. पुरुष को समझाया जाने लगा कि भोग उसका अधिकार है, क्योंकि इसीसे वह कुनबे के विस्तार में सहयोगी होता था. युद्ध के समय मर मिटने या मारकर अधिपत्य जमा लेने की मानसिकता विकसित करने के लिए उसके मन से कोमल भावनाओं को निकाला जाना ज़रूरी था. उस समय के नीति निर्धारक जानते थे कि इनसान जैसे ही प्रेम करना सीखेगा, युद्ध से विरत हो जाएगा. पुरुषों में आज भी काम भावना को लेकर प्रेम की जगह जो अधिकार भावना समाज में विष के रूप में दिखाई देती है वो सदियों की गई इसी कंडीशनिंग का नतीजा है.
कालांतर में आर्थिक विकास हुए और समाज शासक और प्रजा नाम के वर्गों में विभक्त हुआ. अधिक वैभव विलास के साधन पाकर मनुष्य को भोग-विलास का रोग लगने लगा. जिससे व्यवस्थाएं बिगड़ीं और विषमता का विष समाज में फैलने लगा. अत्यधिक सम्पन्नता ने मनुष्य का विवेक छीन लिया और हवस उस पर हावी होने लगी. हर सबल तबका अपने से निर्बल तबके को अपने अहंकार को तुष्ट करने का माध्यम बनाने लगा और अपने लिए अधिकाधिक भोग की व्यवस्था करने में जुट गया. हम अध्ययन करें तो पाएंगे कि आर्थिक वैषम्य के उत्तरोत्तर विकास के साथ आर्थिक रूप से समृद्ध वर्ग का निर्धन वर्ग पर अत्याचार बढ़ना, जाति व्यवस्था का आविर्भाव और एक जाति की दूसरी जाति को दबाकर अपने नियंत्रण में रखने की कोशिशें लगभग एक साथ शुरू हुए.
स्त्री-पुरुष में भेद-भाव भी इसी के साथ चरम पर पहुंच गया। अब रक धीरे-धीरे करके कुनबे के विकास का हेतु सिद्ध करने के लिए गढ़ी जाने वाली मानसिकताएं आकार पा चुकी थीं. चूंकि पुरुष स्त्री से शारीरिक रूप से अधिक सुदॄढ़ तथा सशक्त था, इसलिए उसने स्त्री को साथी समझना सर्वथा बंद कर दिया और उसे अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया. उपभोग का साधन बना दिया. फिर कुछ वैभवशाली मानसिक रूप से बीमार पुरुषों की अधिकाधिक भोग करने की प्रवृत्ति ने जन्म दिया बहुपत्नी प्रथा को जो धीरे-धीरे बिगड़ते-बिगड़ते समाज का एक रोग बन गई.
काम या सेक्स का उच्चतम रूप प्रेम है और निकृष्टतम रूप है वासना. इसीलिए जब स्त्री-पुरुष में समानता थी तो सेक्स सुखी दाम्पत्य की बुनियाद था. लेकिन वही काम या सेक्स वैषम्य का युग आने पर बहुविवाह प्रथा के आरंभ के बाद पारिवारिक कलह तथा द्वेष का सबसे बड़ा स्रोत बन गया.
लोग इस बात को सर्वथा विस्मृत कर चुके थे कि काम-भावना का तुष्टीकरण स्त्री के मन और शरीर की भी इतनी ही बड़ी आवश्यकता है, जितनी पुरुष की. बहुपत्नी प्रथा के आरंभ के साथ स्त्री का मन अपने पुरुष के प्रेम और शरीर काम के संतोष के लिए तरसने लगा. लेकिन चूंकि उसके मन में ये कूटकर भर दिया गया था कि ख़ुद से काम-संतुष्टि चाहना घृणित अपराध है,, ये वंचना मनोवैज्ञानिक समस्याओं में, कुंठाओं में, हताशा और आत्मविश्वास-हीनता में बदलने लगी. दाम्पत्य जीवन स्त्री के लिए यातना बन गया. तो इस यातना से बचने और पुरुष का सानिध्य पाने के लिए उनमें परस्पर क्लेश, सौतियाडाह और षड्यंत्रों का जन्म होने लगा. दूसरी ओर पुरुषों में प्रेम-विहीन सेक्स तथा अधिकाधिक भोग से उनका शारीरिक एवं मानसिक क्षरण आरंभ हो गया. सुखी समाज की धुरी सुखी परिवार को मानने वाले ऋषि-मुनियों तथा विचारकों को परिवार की इस दुर्दशा ने परेशान कर दिया.
इसीलिए एक युग ऐसा आया कि काम-भाव को जन सामान्य घृणित अथवा त्याज्य रूप में देखने लगा. साधारण लोगों ने यही सोचा कि यदि बचपन से बच्चों के मन में इसके विचार तक को निषेध कर दिया जाए, तो वे इसके कुप्रभावों से बचे रहेंगे. तभी वे आदर्श नागरिक बन सकेंगे. समझदार माता-पिता ने लड़कियों के दिमाग में इसलिए ये कूट-कूटकर भरने की कोशिश की कि काम का उद्देश्य केवल सतानोत्पत्ति है ताकि वे अपने पति का प्रेम और सानिध्य ज्यादा दिन न मिलने पर दुखी न हों, बल्कि उनका मन संतान पालन की ओर मुड़ जाए. और लड़कों के मन में ये बात उन्हें अधिकाधिक भोग के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए डाली गई. लेकिन यहीं समाज से ग़लती हुई. जिस प्रकार अधिक या असंतुलित, अखाद्य खाने से सेहत बिगड़ जाए तो उसका हल खाना बंद कर देना नहीं होता, उसी प्रकार सेक्स के अनुचित तथा असंतुलित प्रयोग से बिगड़ा व्यक्तित्व उसके निषेध से सही नहीं हो सकता. प्रकृति का नियम है कि जिस भी प्राकृतिक भाव या बहाव का जितना बलपूर्वक निषेध अथवा दमन किया जाता है वो उतनी ही तीव्रता से प्रतिक्रिया स्वरूप बढ़ने का प्रयत्न करता है और इस प्रयत्न में उसके विकृत अथवा विनाशकारी रूप का ही विकास होता है. काम-भाव के साथ भी यही हुआ.
किंतु प्रकृति का एक नियम यह भी है कि जब-जब समाज अपनी अधोगति की ओर बढ़ने लगता है,, समस्याएं विकराल हो जातीं हैं और शोषण सीमाएं लांघ जाता है तो समाज को पतन से बचाने के लिए संवेदनशील, समर्थ बुद्धिजीवियों का भी प्रादुर्भाव होता है, जिन्हें उनके गुणों के कारण कालांतर में लोग पूजने लगते हैं. उनके अनुयायी बनकर अपना जीवन संवारते हैं. राम और कृष्ण ऐसी ही शक्तियां थे.
दूषित मनोवृत्ति को मिटाने और समाज के सुखी जीवन का मार्ग ढूंढ़ने के उद्देश्य को समर्पित इन युग निर्माताओं के सामने स्त्री शोषण का ये रूप भी एक चुनौती बनकर खड़ा हुआ. वे जानते थे कि दमन से मनोविकृतियां बनती हैं और अतिशय भोग से शोषण का मार्ग खुलता है. फिर मानव के मन में स्थित इस मूलभाव का क्या किया जाए? उत्तर मिला संतुलन और रूप परिवर्तन!
राम ने काम के वशीभूत होकर बनाई गई बहु-विवाह प्रथा का एक-पत्नी व्रत धारण कर विरोध किया और समाज को काम की संतुलित पूर्ति का संदेश दिया. प्रेम भरोसा सिखाता है, जिससे स्त्री को पवित्रताओं के बंधन में बांधने की आवश्यकता नहीं रहती. प्रेम त्याग सिखाता है, जिससे अधिकार बोध से उपजे विकार कम होते हैं.
काम जब संवेदना से सजकर भावना के साथ मिलकर एक व्यक्ति को समर्पित हो जाता है तो ‘प्रेम’ जैसे उदात्त भाव का निर्माण होता है. और जब वासना और अहंकार के साथ मिलकर अनेक व्यक्तियों में बंट जाता है तो भोग का रास्ता खुलता है, जो शोषण का साधन बन जाता है. कृष्ण जैसी युग प्रवर्तक शक्ति ने भी इस मनोवैज्ञानिक सत्य को पहचाना और काम के उदात्त रूप ‘प्रेम’ से जगत का परिचय करवाने का प्रयत्न किया. उसे प्रेम में परिवर्तित कर देने से ये भाव भोग के बजाए समर्पण सीखता है. ‘स्व’ का विस्तार सीखता है. इसे कलाओं के रूप में परिवर्तित करके मनुष्य न केवल आंशिक संतुष्टि पा लेता है, बल्कि समाज के विकास का द्वार भी खोलता है. मनोवैज्ञानिकों के अनुसार अभुक्त-काम या तो वासना में परिवर्तित होता है, जो शोषण या अत्याचार की प्रेरणा बनता है, या शोषण का ज़रिया न मिलने से मनोग्रंथियां बन जाता है, जो मानव के हर प्रकार के अमर्यादित व्यवहार या कई बार मनोरोग का कारण बनता है. अब प्रश्न ये उठता है कि यदि सेक्स जैसी नैसर्गिक इच्छा की पूर्ति व्यावहारिक कारणो से यथासमय न हो पाए तो?
इसके उत्तर का संकेत भी हमारे सांस्कृतिक ग्रंथों में दिया गया है. यदि काम की पूर्ति नहीं हो सकती तो उसकी परिणति ललित कलाओं में हो, इसीका प्रयत्न श्रीकृष्ण की बांसुरी और रास-लीला नामक नृत्यों में दिखाई पड़ता है. जिसमें कृष्ण के प्रति आकर्षित हर युवती उनके साथ नृत्य करके काम-भावना की मर्यादित पूर्ति कर सकती थी. शिव-पार्वती ने भी गायन, वादन और नृत्य के माध्यम से काम-भाव की संतुष्टि न हो पाने पर उसे कला की दिशा देने का मार्ग बदलने प्रशस्त करने में अपना योगदान दिया. इस प्रकार कृष्ण और शिव ने अपने मनोवैज्ञानिक ज्ञान का प्रयोग कर इसे ललित-कलाओं के रूप में संशोधित कर इसे मर्यादित रूप में बांधने का प्रयत्न किया.
अट्ठारहवीं शताब्दी में पाश्चात्य चिंतक फ्रायड ने काम के अप्राकृतिक दमन को मानव की सारी कुंठाओं का जनक बताया. फ्रायड, एडलर, युंग आदि आधुनिक युग के मनोवैज्ञानिकों ने प्रयोगों द्वारा कुछ सत्य प्रमाणित जो धीरे-धीरे सारे विश्व के मनोवैज्ञानिक मान चुके हैं. आज मनोवैज्ञानिक स्पष्ट कर चुके हैं कि बचपन में माँ द्वारा बेटे को तथा पिता द्वारा बेटी को दिया गया वात्सल्य-पूर्ण आलिंगन, चुंबन तथा लाड़-दुलार उन्हें जो काम संबधी तुष्टि प्रदान करता है इससे उसके भावनात्मक विकास पर सकारात्मक असर पड़ता है. किशोरावस्था में विपरीत लिंग के साथ स्वस्थ मैत्री से और अपनी प्रतिभाओं तथा कलाओं की प्रशंसा विपरीत लिंग से सुनने से किशोरों की ‘रोमांटिक नीड्स’ संतुष्ट हो जाती हैं. इस प्रकार संतुष्ट बचपन तथा कैशोर्य के अभुक्त काम को संतुष्ट करने के प्रयत्न में ऐसे कदम उठाने की संभावनाएं कम हो जाती हैं, जिनसे उनके अर्धविकसित शरीर को नुक़सान हो सकता हो.
आज जब हमने अपनी वैदिक संस्कृति का वैज्ञानिक विश्लेषण करना प्रारंभ किया तो पाया कि उनकी और पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों के चिंतन की धारा समान है. आज इन सबके अध्ययन के कारण सेक्स अथवा काम की दिशा में लोगों की मानसिकता बदली है और इस दिशा में काफ़ी खुलापन आ रहा है. जो एक बार फिर से स्वस्थ समाज की ओर अग्रसर होने का संकेत है. आज लोग समझने लगे हैं कि दमन और उपेक्षा दोनों ही मानव मन में रहने वाले किसी भी भाव को मनोग्रंथि में बदलते हैं. ये समझना भी आवश्यक है कि हमारे समाज में कामेच्छाओं का जो विकृत रूप दिखाई दे रहा है वो या तो युगों से चले आ रहे दमन और उपेक्षा से बनी मनोग्रंथियों का परिणाम है, या सामंतवादी भोगवादी अहंकार का एक अंश है.
तो फिर समाधान क्या है? ये मानने के बाद कि काम या सेक्स भूख-प्यास की तरह एक नैसर्गिक आवश्यकता है, प्रश्न उठता है कि दमन का रास्ता खुले बिना इसकी पूर्ति कैसे हो? हम समझ चुके हैं कि एक युग में हमारे यहां खोजा गया बाल-विवाह का समाधान शोषण का रास्ता खोलता है और व्यक्तित्व के विकास की राह अवरुद्ध करता है. इसी प्रकार पाश्चात्य देशों में बालपन से दी जा रही सेक्स की खुली छूट ने भी तमाम शारीरिक और मानसिक रोगों के मार्ग प्रशस्त किए हैं.
फिर?
किसी भी समस्या का स्वीकार ही उसके समाधान तक पहुंचने की पहली सीढ़ी है. आज सेक्स पर की जाने वाली बातों में आ रहा खुलापन सही अर्थों में शिक्षित समाज द्वारा समाधान खोजने का प्रयत्न है. समाज की सेक्स से जुड़ी समस्याओं के समाधान के लिए हमें खुलकर बात करने से ही शुरुआत करनी होगी. ये समझना होगा कि काम मूलतः प्राणीमात्र के मन में स्थाई रूप से रहने वाले भावों में से एक है जिसे जीवन की मूलभूत आवश्यकता भी कहा जा सकता है. फिर ये भी समझना और नई पीढ़ी को समझाना होगा कि मनुष्य पशु से श्रेष्ठ है तो यदि व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हो जाए तो वो अपनी मूल भावनाओं पर समाज द्वारा निर्धारित मर्यादाओं के अनुसार नियंत्रण कर सकता है. तभी हम समझ सकेंगे कि शिक्षित समाज को काम की अतिशय संतुष्टि द्वारा व्यक्तित्व और स्वास्थ्य का ह्रास भी नहीं चाहिए और दमन द्वारा विकृति भी नहीं चाहिए.
इसीलिए हमें बचपन से बच्चे की सभी शारीरिक एवं भावनात्मक आवश्यकताओं की तरह इसका भी ध्यान रखना होगा. और खुलकर विचार-विमर्श द्वारा कोई ऐसा मार्ग ढूंढ़ने का प्रयत्न करना होगा जो संतुष्टि तो दे पर शोषण अथवा टूटन को आमंत्रित न करे. आधुनिक मनोवैज्ञानिकों द्वारा भी वही समाधान सुझाए गए हैं,जो हमारे ईश्वर कहे जाने वाले विचारकों ने सुझाए थे- कला में परिणति. तरह-तरह की ललित कलाएं वासना की सहज और स्वीकार्य परिणति हैं. मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि संगीत, नृत्य, चित्र-कला, मूर्ति कला और तमामों ललित कलाएं ऐसी हैं, जिनमें अपने मन को एकाकार करने पर इनसान काम-वासना की ज़रूरत के पूरे हो जाने जैसा ही सुख महसूस करता है.
फ़ैंटसी और मैस्टर्बेशन जैसे समाधानों पर भी आज के अभिभावक खुलकर बच्चों से बात करने लगे हैं. सहजीवन को भी हमारा समाज खुली और स्वीकार्य दृष्टि से देखने लगा है. अब हम कह सकते हैं कि काम या सेक्स की सरिता स्त्री-शोषण और मनोग्रंथि का पड़ाव पार कर कला और प्रेम के खुले सागर तक पहुंच रही है. लेकिन इसमें जो कसर रह गई है, उसे हमारे-आपके के जैसे नागरिकों और अभिभावकों को अपना सही नज़रिया रखते हुए पूरा करना होगा.
इस आलेख का पहला भाग यहां पढ़ें.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट, wattpad.com