उत्तर-पूर्व भारत का द्वार कहलानेवाला सिक्किम अपनी अनूठी पहाड़ी ख़ूबसूरती के चलते आपको सम्मोहित कर देगा. ऊंचाई पर बसा होने के कारण सिक्किम जाना शारीरिक रूप से थकानेवाला अनुभव साबित हो सकता है, पर जब प्रकृति के तमाम मोहक नज़ारे आपके सामने आएंगे तो यात्रा की सारी थकान काफ़ूर हो जाएगी. इंदौर की वरिष्ठ लेखिका ज्योति जैन के सिक्किम प्रवास का लेखा-जोखा तो कुछ ऐसा ही संकेत देता है.
भारत विविधताओं का देश है. भाषा, परिवेश, प्रकृति, पहनावे, सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधता से लकदक भारत भूमि पर्यटन के लिहाज़ से जितने अवसर उपलब्ध करवाती है, शायद ही विश्व का कोई अन्य देश कर पाता हो. इसी विविधता और विशेषता को तलाशने हमने दार्जिलिंग और सिक्किम प्रवास का मन बनाया.
पहला पड़ाव दार्जिलिंग
दिल्ली पहुंचकर हमने बागडोगरा की फ़्लाइट ली. एयरपोर्ट पर उतरे और शुरू हो गया दार्जलिंग का सफ़र. मौसम देखकर मन में कुछ निराश थी, क्योंकि वातावरण में चिपचिपाहट और उमस थी. एक बार तो मन में आया कि क्या हमने ग़लत निर्णय तो नहीं ले लिया, लेकिन जैसे-जैसे कोर्सियांग नज़दीक आने लगा, हरियाले पर्वत और ठंडी हवा अपना असर दिखाने लगी. बागडोगरा से कोर्सियांग होते हुए हमें दार्जिलिंग पहुंचना था, जिसमें तक़रीबन साढ़े तीन घंटे का समय लगना था. अगले तीन दिन दार्जिलिंग ही हमारा मुकाम था.
दार्जलिंग में गंगा मैया, जापानी मंदिर और म्यूज़ियम तो दर्शनीय हैं हीं लेकिन वहां से क़रीब दो घंटे की दूरी पर स्थित मिरिक झील पहुंचने का रास्ता किसी सपने के साकार होने जैसा है. हल्के हरे ग़लीचे की तरह बिछे चाय के बाग़ान और गहरे हरे पर्दे की तरह खड़े ऊंचे पाईन ट्री बैकड्रॉप का आभास दे रहे थे.
हर घर के बाहर बेशुमार रंग-बिरंगे फूल हमारे स्वागत के लिए बेसब्र थे और अपने अंचल में समाई प्राकृतिक संपदा की कविता रच रहे थे. संभवतः यह पहाड़ों की मिट्टी की ही ख़ासियत है कि वह हर झाड़ी पर पत्तों से ज़्यादा फूलों से सजावट कर देती है. सारे रास्ते में पेड़ और पहाड़ से लिपटे बादल बार-बार हमारी कार तक पहुंचकर हमें अपना अभिवादन दे रहे थे. ऐसे दृश्य यदा-कदा फ़िल्मों में देखे थे लेकिन इस बार उनसे साक्षात्कार हो रहा था.
अगले दिन प्रात: चार बजे हम टाइगर हिल पर सूर्योदय का अलौकिक दृश्य देखने अपनी होटल से निकल गए. पांच बजते-बजते भगवान सूर्यदेव अपने सिंदूरी मस्तक को ऊंचा करते हुए इतने उजले हो गए मानो समुद्र में डुबकी लगाकर आए हों. ऊपर आते-आते उन्होंने अपनी रश्मियों से कंचनजंघा और अन्य बर्फ़ीली पहाड़ियों को भी चकाचौंध कर दिया. आंखों और हृदय के साथ यह ख़ूबसूरत नज़ारे हमने कैमरे में भी क़ैद कर लिए. पहाड़ों पर जाने के पहले जिस थकावट का संशय मन में होता है वह वहां पहुंचकर गुम हो जाती है.
जब प्रयाग के संगम की याद आ गई
प्रकृति अपने आप आपको अपने साथ खेलने का आमंत्रण देती है. संभवतः यह प्रदूषण मुक्त आबोहवा के कारण भी होता है. दो दिन के लिए हम पेलिंग आ पहुंचे हैं, जहां जाने-माने फ़िल्म अभिनेता डैनी डेंग्ज़ोप्पा का घर देखकर ख़ुशी हुई. 110 किलोमीटर के इस पूरे रास्ते में हमारे साथ-साथ रिम्बी नदी भी चल रही है. पेलिंग नदी पहुंचते-पहुंचते साथ में रंगित नदी भी चल पड़ी है. आगे जाकर रिम्बी और रंगित दोनों तिस्ता नदी में जा मिली हैं. प्रयाग का संगम याद आ जाता है-यह पहाड़ों पर असीम सुख देने वाला नदियों का संगम है. जगह-जगह झरने नज़र आ रहे हैं, मानों शीशे के टुकड़ों की बरसात हो रही है. भगवान बुद्ध की उपस्थिति का आभास देता हुआ पेलिंग अत्यंत शांत और शीतलस्थान है.
दो दिन वहां ठहरकर क़रीब 130 किलोमीटर की दूरी साढ़े चार घण्टे में तय करके हम गंगटोक के लिए रवाना हुए.
गंगटोक की ओर और गुरुडोंगमर झील के अद्भुत नज़ारे
गंगटोक का सफ़र भी प्रकृति की निराली ख़ूबसूरती के साथ-साथ तय हुआ. एक ओर पर्वत तो दूसरी ओर खाई में अल्हड़, चंचल, बेलगाम उछलती लेकिन अपनी हदों में बहती तिस्ता नदी. गंगटोक में दो दिनी विश्राम था, जहां एक दिन तो वहां के लोकल नज़ारे देखे, विशेषकर आर्किड गार्डन और छांगू झील होते हुए नाथूला पास. छांगू झील जहां पथरीली, बर्फ़ जमी चट्टानों से आच्छादित थी, वहीं कंपकंपाती ठण्ड में नाथूला समुद्र सतह से 15,000 फ़ीट की ओर बढ़ते हुए हम प्रकृति के श्वेत धवल रंग में डूबे जा रहे थे. स्थानीय भाषा में नाथूला का अर्थ होता है-पवित्र जगह. वह श्वेत और बेदाग़ जगह जहां बिल्कुल अपने नाम के अनुरूप थी जहां पूरी मुस्तैदी से हमारे जांबाज व सम्माननीय जवान भारत-चीन सीमा पर तैनात थे.
वहां की छटा से अभी मन नहीं भरा था कि गंगटोक से लाचेन के एक रात्रि विश्राम के बाद, सुबह 5 बजे जब लाचेन से 72 कि.मी. गुरुडोंगमर लेक जाने के लिए निकले तो पता नहीं था कि आगे के दृश्यों से हम चकित होने वाले हैं. वहां सुबह के 8-9 बजे दोपहर की 1-2 बजे जैसी धूप थी. हवाएं तीखी, तेज़ व बेहद ठण्डी. जिनकी रफ़्तार 70-80 कि.मी. प्रति घण्टा थी. कभी-कभी वह 120-130 तक पहुंच जाती. तिस्ता नदी साथ-साथ बह रही थी. जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जा रहे थे, ऑक्सीजन कम होती जा रही थी. साथ-साथ चलते फूलों के बिछौने व हरियाली धीरे-धीरे कम होने लगी, फिर बर्फ़ीले पहाड़ों की जगह पथरीले पठार ने ले ली. ऊबड़-खाबड़ रास्ते चलते हुए 72 कि.मी. की दूरी हमने साढ़े चार घण्टे में तय की (समुद्र सतह से 18,000 फ़ीट ऊपर) कुछ अजीब-सा सफ़र लग रहा था, लेकिन जैसे ही गुरुडोंगमर लेक पहुंचे तो उसे देखते ही सभी आश्चर्य से ख़ामोश हो गए. चकित कर देने वाली सुंदरता थी. एक ओर बर्फ़ के पहाड़, उसके नीचे आधी बर्फ़ जमी सफ़ेद व आधी नीली शांत झील. कहते हैं गुरु पद्यसंभव अपने तिब्बत प्रवास के वक़्त वहां रुके थे और उसे पवित्र किया. स्थानीय भाषा में डोंगमर का अर्थ है सपाट जगह. पहाड़ों के बीच सचमुच वह प्लेन जगह थी. हम सब अन्य जगह पलकें झपकाना ही भूल गए. होश तब आया जब ऑक्सीजन की कमी अपना असर दिखाने लगी. श्वसन क्रिया कुछ असहज-सी हो गई. हमारे ड्रायवर ने पहले ही निर्देश दिया था कि 15-20 मिनट से ज़्यादा वहां नहीं रुकना चाहिए. (हालांकि उस लेक से कुछ कि.मी. पहले सेना के स्थायी कैम्प हैं (सीमा पास होने के कारण) जहां ऑक्सीजन, हीटर, चाय, काफ़ी, नाश्ता व अन्य सुविधाएं भी हैं). गुरुडोंगमर लेक की ख़ूबसूरती से बौराए हम सब फ़ौरन गाड़ी में बैठे और पुनः लाचेन की ओर प्रस्थान किया.
जारी रही प्रकृति की सुंदर चित्रकारी
लाचेन से अगला पड़ाव लाचुंग था जहां से फूलों की घाटी होते हुए युमथांग जाना था, जो ज़ीरोपाइंट भी है. वहां भी भारत-चीन की सीमा थी. फूलों की घाटी देखकर ऐसा लगा कि वहां क़ुदरत की विशेष मेहरबानी है जो पूरी घाटी में ही फूलों के बीज बिखेर दिए हैं. फूलों की संपदा से भरपूर घाटी से युमथांग की ओर बढ़े तो फूलों की जगह धीरे-धीरे बर्फ़ लेने लगी. वो भी एक अनोखा नज़ारा था, क्योंकि आगे जाते ही हमारी क़िस्मत से स्नोफ़ॉल होने लगा था. अभी तक जो वृक्ष हरे-भरे व पत्थर भूरे नज़र आ रहे थे, वे बर्फ़ से बिल्कुल क्रिसमस ट्री की तरह दिखाई दे रहे थे. हर जगह एक पोस्टर की तरह दिखाई दे रही थी. इस पूरे पहाड़ी सफ़र में एक और ख़ास बात जिसने प्रभावित किया कि पहाड़ी इलाक़ा होने से वहां ड्राइविंग एक टफ़ जॉब है, ऐसे में ड्रायवरों का धीरज व एक-दूसरे से सहयोग का भाव देखते ही बनता है. वहां ट्रैफ़िक नियमों का भरपूर पालन किया जाता है. सामान्यतः लोग कर्मठ, संतुष्ट व सुखी नज़र आते हैं.
गंगटोक से बागडोगरा एयरपोर्ट तक वापसी का सफ़र शुरू हुआ. टीक व साल के बुने हुए से लगते, क़तारबद्ध वृक्ष व आधी दूर तक साथ-साथ चली तेज़ प्रवाह की तिस्ता नदी के साथ गाड़ी की खिड़की से क्षितिज को निहारते हम सब पिछले 12-13 दिनों के नज़ारों में ही खोए थे. नदी, पहाड़, झरने, झील, चट्टानें, बर्फ़, बर्फ़बारी, बारिश, फूल, बादल, धुंध, बेशुमार हरियाली, वृक्ष और ठण्डक! धरती की इतनी विविधता लिए
ख़ूबसूरती पहले कभी नहीं देखी थी.
जो पहाड़ों के सफ़र से घबराता हो या परेशानी अनुभव करता हो, उसके लिए ये सफ़र अवश्य कठिन है लेकिन फिर भी सिक्किम अपने जीवन में एक बार तो अवश्य जाने/घूमने की जगह है.
पुस्तक साभार: यात्राओं का इंद्रधनुष
लेखिका: ज्योति जैन
प्रकाशन: शिवना प्रकाशन