मुंशी प्रेमचंद की कालजयी कहानी ईदगाह, करोड़ों भारतीयों के स्कूली दिनों की सुनहरी यादों में समाई हैं. ग़रीब लड़के हामिद का अपनी दादी के लिए किया गया त्याग हमारी आंखों के कोरों को भिगो जाता है, पर साथ ही यह विश्वास दिलाता है कि दुनिया में हमेशा नेकनीयत, सच्चाई और अच्छाई की जीत होती है. हर दुखियारी कहानी का सुखद समापन होता है. डॉ संगीता झा की इस कहानी की नायिका भी अपनी ईदगाह वाली कहानी की हैप्पी एंडिंग चाहती है. पर क्या उसकी कहानी सुखद मोड़ पर पहुंच पाती है?
ईदगाह-एक बार फिर. ईदगाह एक बार फिर इसलिए कि बचपन से प्रेमचंद जी की कहानी को जिया है. हामिद, दादी के लिए उसका प्यार… ईदगाह के आसपास की हलचल चहलपहल में ख़ुद को डुबो देने का मन बारबार करता था. कई बार दादी का आदर्श बनने की कोशिश भी की, क़ामयाब भी हुई. दसवीं कक्षा की छुट्टियों में दादी का पैर टूट जाने से दादी के पास गांव जा चूल्हा जलाया, बतलोई (एक तरह का गोल बर्तन) में दाल भी बनाई. यहां तक कि दादी की छुआछूत की वजह से गोबर से चूल्हा और रसोई घर लीपा भी. उन दिनों मेरे अंदर बरसों से जी रहे हामिद के किरदार को शांति भी मिली. लेकिन ये तो बचपन की बात थी.
लेकिन अब मैं उस घर में रहती हूं, जिसके सामने की सड़क ईदगाह को जाती है. मैं और पति दोनों ही डॉक्टर हैं, पर मेरे अंदर हामिद अभी भी पूरी तरह ज़िंदा है. पति और बच्चों को मेरे अंदर के ईदगाह और हामिद का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं है. कभी कहानियों के किरदारों के विषय में पुस्तकों में पढ़ कर हम गर्व से अभिभूत हो जाया करते थे और मन ही मन उनके आदर्शों को जीने का संकल्प करते थे. आज कल साहित्य की दशा और दिशा कूड़ेदान-सी हो गयी है. भ्रष्टचार, सेक्स और हिंसा भरी कहानियों और फ़िल्मों से हम क्या परोस रहे हैं इक्कीसवीं सदी में?
ईदगाह नाम से ही मेरे दिमाग़ में घूमने लगता है मेले का सुख जो ईदगाह के आसपास रहता है, मिलन का सुख. अंदर सारे लोग एक से सफ़ेद पैजामे में, बाहर कितने सारे रंग एक साथ. ग़ुब्बारे रंग बिरंगे, खिलौने रंग बिरंगे, रंग बिरंगी मिठाइयां और ना जाने क्या-क्या. सबमें सुखमय लगता है मुस्कुराहट का रंग, जो शायद हामिद के चेहरे पर था, जब उसकी दादी के हाथ में चिमटा आया था. इन्हीं सभी कहानियों की वजह से शायद मैं छोटी ही रह गई हूं. समय से डरती हूं कि इसका रंग मुझे छू ना पाए. समय के रंग की चढ़ान को देख कर भी अनदेखा करती हूं. अपनी उंगलियां मुझे अभी भी नन्हीं लगती हैं. कसकर कभी-कभी अपनी ही उंगलियों को पकड़ कर आंखे भींच लेती हूं कि कहीं मेले में ना खो जाऊं. जीवन एक मेला ही तो है, कितने अनजाने, कितने बहुरूपिए, कितने छलिए… तरह-तरह के लोग.
जीवन के मेले में इन्हीं बहुरूपियों के बीच मुझे दो किरदार मिल जाते हैं, एक हाशिम और दूसरे उसके अब्बूजान हकीम इमामुद्दीन. ये नाम मुझे हाशिम ने दोस्ती होने पर बताए थे. मेरा घर ईदगाह को जाने वाली सड़क पर एक दोमंज़िला मकान है. जिसके नीचे के हिस्से में एक किराएदार डॉक्टर फ़ारूख़ी अपनी पत्नी सलमा, बेटे सलीम और बेटी सना के साथ रहते हैं, ऊपर के हिस्से में मैं, पति ईश्वर और हमारी दो प्यारी बेटियां इशिता और एशना. मेरे अंदर की नन्हीं-सी लड़की को ये तीनों पूरी तरह से नकारते हैं. बेटियां कहती हैं, मॉम यू हैव टू ग्रो. इन्हें मेरा छत पर जाकर भीगना, भागते बादलों को घंटों निहारना, बग़ीचे की तितलियों और भौरों के पीछे दौड़ना, सब कुछ बहुत डाउन मार्केट लगता है. मेरे घर की सड़क के अंत में एक बड़ा मैदान है, जहां हर ईद में नमाज़ पढ़ी जाती है. मुझे भी अपने मुसलमान भाइयों की तरह बक़रीद और ईदउलफ़ितर का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहता है. इसके दो कारण है एक तो मेरी ख़ाली सड़क का नक़्शा, जो पूरा बदल जाता है, दूसरा मिसेज़ फ़ारूख़ी की सेवइयां, बिरयानी, मिर्ची का सालन, डबल का मीठा और ना जाने क्या क्या. दोनों ही दिन मैं घर पर ही आराम फ़रमाती हूं. सुबह-सुबह जल्दी उठ, नहा धो नए कपड़े पहन तैयार हो अपनी बालकनी में बैठ जाती हूं. मेरे इस चुलबुलेपन में मेरा साथ देती है सना, जो डॉक्टर साहब और अपने भाई सलीम के साथ ईदगाह नहीं जा सकती.
सुबह से ही सैकड़ों की तादात में लोग साफ़-सुथरे कुर्ते पैजामे पहने हाथ में जानमाज़ (वह पतला कालीन, जिसपर बैठकर नमाज़ पढ़ते हैं) लिए ईदगाह की तरफ़ जाते दिखते हैं. सभी लोगों की वेशभूषा लगभग एक-सी होने से उनके बीच का अमीर-ग़रीब का भेद क़रीब-क़रीब मिट-सा जाता है. ठीक मुंशी प्रेमचंद की कहानी ईदगाह की तरह सब एक साथ नमाज़ के लिए बैठते हैं तो लगता है, मानो माला में पिरोए मोती हों. ईदगाह के बाहर तो मानो मेला लगा रहता है. सड़क के दोनों तरफ़ खोमचे वाले, मिठाई वाले, फल वाले और कपड़े वालों के अस्थाई ठेले और बच्चों के तरह-तरह के खिलौनों के भी ठेले लगे रहते हैं. मैं और सना सड़क पर अपनी नज़रें जमाए बैठे रहते हैं. हमारी जिज्ञासु आंखें भी इधर-उधर लोगों के साथ दौड़ती हैं. बड़ा अच्छा लगता है, जब बच्चे चकरी चलाते हैं, कुछ बच्चे बुढ़िया के बाल लेने की ज़िद करते हैं, कुछ बच्चे लॉलीपॉप लेने को मचलते हैं. थोड़े से अमीर मुसलमान बच्चों को डांटते हैं कि ये सब सड़क छाप माल है इसे खाने से बच्चे बीमार हो जाएंगे और ज़बरदस्ती उन्हें अपनी बड़ी गाड़ियों में ले जाते हैं. तभी कुछ हद तक उनकी हैसियत का पता लगाया जा सकता था. कुछ लोग आगे बढ़कर, पर्स खोल बच्चों की उम्मीद से ज़्यादा ख़रीददरी करते हैं.
इस पूरी ईदगाह की भीड़ में मेरी नज़र केवल दो लोगों पर टिकी रहती हैं, एक लूना वाले अधेड़ सज्जन और दूसरा उनका बेटा जो लगभग सना की उम्र का था, उनका बेटा कम पोता ज़्यादा लगता था. पिछले बारह सालों से ये दोनों मेरी नज़रों का केंद्र बिंदु बने हुए हैं. ये बारह साल पहले मेरे मकान के सामने अपनी लूना रोक कर खड़े हो गए. एक की भूरी शहदी आंखें और दूसरे की चमकती सुनहरी. भूरी शहदी आंखें याचनामय मेरी बालकनी में झांकती हैं, लेकिन वहीं सुनहरी चमकती आंखें हक़ से मुझसे आज्ञा नहीं बल्कि सूचना देते हुए कहती हैं,‘हम अपनी लूना अंदर रख रहे हैं.’ मैं भी वशिभूत हो तुरंत जवाब देती हूं,‘ज़रूर.’ छोटा लड़का पैर की ऊंगलियों के बल खड़े हो अपनी ऊंचाई बढ़ाते हुए गेट खोलता हैऔर बूढ़े मियां कृतज्ञता से ऊपर देखते हुए अपनी लैला जैसी लूना को सहलाते हुए अंदर खड़ी कर जाते हैं. मैंने तो उन्हें दादा-पोता ही समझा. छोटे लड़के ने हाथ हिलाकर नमाज़ के बाद हमसे नीचे से ही विदा ली, आंखों से ही शुक्रिया भी अदा किया. पहली बार इतनी ही पहचान हुई और बात आई गई हो गई.
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इसके बाद आने वाली ईद में ये दोनों फिर मेरे घर के सामने खड़े होते हैं. बच्चा मुझे सलाम करता है, अपने आप गेट खोलता है, लूना ख़ुद ही खींच कर अंदर लाता है और हमारे वॉचमैन की मदद से स्टैंड पर लगा लेता है. आंखें पूरे समय सना और मुझ पर केंद्रित रहती हैं, क्योंकि बूढ़े मियां की आंखें कुछ और ढूंढ़ रही होती हैं. अचानक एक जवान चौड़े लड़के को देख उनकी भूरि शहदी आंखों में चमक आ जाती है. जल्दी-जल्दी अपने बेटे का हाथ पकड़ आगे खींचते हुए उस जवान लड़के के पीछे चलने लगते है. सुनहरी चमकती आंखों में खीझ के भाव आ रहे थे, पर वह घसीटेजाने पर मजबूर था. कुछ उन अधेड़ मियां के होंठों और कुछ अपने कानों की वजह से मैं समझ जाती हूं कि वे पहचान बढ़ाने की कोशिश में लगे हुए हैं, रही-सही कसर मेरी कल्पनाएं पूरी कर देती हैं. शायद वे पूछ रहे होते हैं,‘आप फ़ख़रुद्दीन साहेब के बेटे हैं ना? माशाअल्लाह कितने बड़े हो गए हो. बहुत छोटे थे, तब देखा था. अपने अब्बा की ऊंगली पकड़कर मेरे दवाखाने आते थे, अपनी दादीजान की दवाई लेने के लिए. मैं हकीम इमामुद्दीन हूं.’ लड़का शायद कहता है,‘अरे हकीम साहेब सलाम करता हूं. एक अरसा हो गया आपसे मिलकर, देखिए मुलाक़ात हुई तो भी कहां. जल्दी चलिए, नहीं तो ईदगाह में जगह नहीं मिलेगी. अब्बू हमेशा आपका ज़िक्र करते थे. हम लोग तो डॉक्टर की दवाइयां खाकर बड़े हुए. दादीजान हमेशा अब्बू को डांटती भी रहती थीं कि बच्चों को हकीम साहेब का हलवा खिलाया करो , तभी गबरू जवान होंगे.’ बातों ही बातों में ईदगाह आ जाता है. तीनों पास-पास बैठ कर नमाज़ पढ़ते हैं. वापस आते वक़्त हकीम साहेब की आंखों में जहां उत्साह है चमक है, वहीं नौजवान की आंखों में कहां फंस गया, वाले भाव हैं और छोटा बेटा बेबस है उसे समझ में ही नहीं आ रहा कि अब्बू इस लड़के से आपा की तारीफ़ क्यों किए जा रहे हैं? शायद हकीम साहेब अपनी उस शादी लायक बेटी की सुंदरता, सुघड़ता और पढ़ाई में अव्वल आने की बात करते हैं. मेरे घर के सामने भी उनका वार्तालाप चलता रहता है, तभी उनका बेटा हाथ छुड़ा कर हमारा गेट खोलता है, इस बार उसे कोई झिझक नहीं है. नीचे से ही बालकनी की ओर मुंह कर पूछता है,‘पानी मिलेगा?’ मैं उसे ऊपर बुलाती हूं. सना उसे पानी का ग्लास देती है और वहीं हमें पता चलता है कि उसके अब्बू हकीम हैं, वो उनका पोता नहीं बेटा है, उससे बड़ी उसकी तीन बहनें हैं. उसका नाम हाशिम और अब्बू का नाम इमामुद्दीन है. वो क्लास सिक्स्थ में पढ़ता है और बड़ा हो कर सना की तरह डॉक्टर बनना चाहता है. सना भी उस समय सिक्स्थ में ही थी, उनके स्कूल भी पासपास थे, वे पढ़ाई की बातें भी करते हैं. इधर नौजवान हकीम साहेब से पीछा छुड़ाते हुए विदा लेता है. बूढ़े मियां फिर अकेले हो जाते हैं. सोचते हैं सारा समय उसी कार वाले नौजवान पर लगा दिया. आंखों की चमक ग़ायब हो जाती है. हाशिम को ग़ुस्से में आवाज़ लगाते हैं. सड़क पर नज़रें दौड़ाते हैं, पर कोई भी उनसे बात करने में इच्छुक नहीं है, सबको घर जाने की जल्दी है. हाशिम नीचे उतरता है हमसे मुलाक़ात करके उसकी आंखों में चमक है, लेकिन पिता की मायूसी और ग़ुस्से को देख तुरंत ग़ायब हो जाती है. दोनों चुपचाप अपने घर की तरफ़ लौट जाते हैं. उनके जाने के बाद सना मुझसे बड़ी देर तक हाशिम की तारीफ़ करती है कि पढ़ाई में वो बहुत होशियार है, हमेशा अव्वल आता है, उसकी तीन बहनें हैं, जो उससे बहुत बड़ी है. सबसे बड़ी आपा गणित में पोस्ट ग्रैजुएशन कर रही हैं. आपी सिलाई कढ़ाई बहुत अच्छा करती है पकाती भी बड़े मज़े का हैं और ना जाने क्या क्या… जो जो उसने अपने अब्बू को बोलते सुना था, सना ने उगल दिया. मिसेज़ फ़ारूख़ी के आवाज़ लगाने पर सना भी नीचे चली गई. मेरे अन्दर की लेखिका की कल्पना में वे शायद अपनी बेटी का रिश्ता उन साहब के यहां करना चाहते हैं और टका सा जवाब पाकर वापस आ जाते हैं. मन अब अगली ईद में उनसे और हाशिम से मिलने के लिए मचलने लगता है.
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अगली बार ईद दिसम्बर के महीने में आती है, सो बूढ़े मियां ने पैजामे कुर्ते के साथ जैकेट भी पहन रखी है और अरे बाप रे सातवीं में पढ़ने वाले हाशिम मियां लूना चला रहे हैं. एक साल बड़ा लम्बा समय होता है. हाशिम की जैकेट में बड़ी प्यारी एम्ब्रॉयडरी है, शायद आपा ने की होगी. जहां बूढ़े मियां हमारे साइन बोर्ड को देख अंदर से भकभका उठते हैं, कुछ बुदबुदा रहे होते हैं, शायद-कह रहे थे कि बेड़ा गरक हो इन डॉक्टरों का जिनकी वजह से हम हकीमों को कोई पूछता ही नहीं है. वहीं हाशिम के चेहरे में सना को देख एक अलग ही चमक आ जाती है. उसके हाथ मुझे सलाम करने को ऊपर उठते हैं, पर आंखें सना पर ही टिकी रहती हैं. सना की आंखें भी हाशिम की आंखों से बात कर रही होती हैं. मुझे एक डर-सा लगने लगता है. लूना हमारे गेट के अंदर रखी जाती है. तभी हकीम मियां एक लड़के की तरफ़ लपकते हैं, जो हमारे घर के सामने अपनी मोटर साइकल पार्क कर रहा होता है, मैं मन ही मन सोचती हूं बेचारे एक ही साल में कार से मोटर साइकल पे आ गए. हाशिम के चेहरे पर मायूसी छा जाती है, वो अब समझने लगा है, पर बेबस है. एक बार फिर सिर उठा सना से नज़रें मिलाता है और फिर नज़रें नीची कर पिता के पीछे-पीछे चलने लगता है. हकीम साहेब फिर पिछले साल की तरह बातों का सिलसिला शुरू करते हैं, लेकिन इस बार उनका अन्दाज़ कुछ बदला-बदला सा है. मेरी कल्पनाओं में पहले वे उस गबरू जवान की तारीफ़ करते हैं. ये शायद सुल्तान मियां का बेटा है फिर सुल्तान मियां के घराने पर कशिदे पढ़ते हैं. उस लड़के का ध्यान अब पूरी तरह से बूढ़े मियां की तरफ़ हो जाता है. अब वो अपनी बेटी की चर्चा करते हैं, जो अब लड़कियों के स्कूल में पढ़ाने भी लगी है. लड़की की क़ामयाबियों की चर्चा करते-करते जहां उनके चेहरे पर चमक आती है, वहीं दूसरी तरफ़ उसकी शादी ना हो पाने का खेद भी चेहरे पर झलकने लगता है. नमाज़ हो जाने के बाद वो लड़का उनसे दूर-दूर चलने लगता है. बूढ़े मियां उसे प्रभावित करने की कोशिश में जुटे रहते हैं, पर वो उनसे माफ़ी मांगते हुए अपनी मोटर साइकल स्टार्ट कर फुर्र से आगे निकल जाता है. हाशिम अपना हाथ छुड़ा दौड़कर ऊपर बालकनी में आ जाता है, हमसे दोस्ती जो हो गई थी. हाशिम की जैकेट पर की गई एम्ब्रॉयडरी की मैं तारीफ़ करती हूं तो कहता है कि आपा ने की है. सना और हाशिम पढ़ाई और स्कूल की बातें करते हैं. बूढ़े मियां बड़ी देर तक ललचाई नज़रों से आने-जाने वाले नौजवानों को देखते हैं. उनकी आंखों में दामाद की खोज जारी रहती है. थोड़ी देर में उनकी आंखें उनकी हार का बयान करने लगती हैं. अब ग़ुस्से से ऊपर देख हाशिम को नीचे आने का इशारा करते हैं. हाशिम की आंखों की चमक भी ग़ायब हो जाती है. बाप-बेटे दोनों सर झुकाए अपने घर की ओर चल पड़ते हैं, शायद रास्ते में वे आपस में भी बात नहीं करते हैं.
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यही वाक़या पिछले बारह सालों से मैं देखती आ रही हूं. सना और हाशिम भी बड़े हो रहे हैं. हाशिम न केवल ईद, बल्कि यदा-कदा हमारी सड़क का चक्कर काटने लगा है. डॉक्टर फ़ारूख़ी की नज़र सना को लेकर पैनी हो गई है. पिछले दो सालों से उसका ऊपर आना लगभग बंद हो गया है. मैं सब कुछ समझ कर भी नासमझ बनी रहती हूं. इन बारह सालों में मेरी कनपटी पर काफ़ी सफ़ेद बाल आ गए हैं, तो मेरी कल्पनाओं में हक़ीम साहेब की बेटी की कनपेटी पर भी एकाध सफ़ेद बाल तो आ गए होंगे. इधर हाशिम की सना के लिए बेचैनी देख मन ही मन डर भी लगता है कि डॉक्टर फ़ारूख़ी मुझे ही ना ज़िम्मेदार ठहरा दें. पति और बेटियों से डांट पड़ेगी सो अलग. साल दर साल बूढ़े मियां की कमर झुक रही है, हाशिम अब एक गबरू जवान बन गया है और पिछले दो सालों से लूना का भी मोटर साइकल में प्रमोशन हो गया है. मेरी ईद अब बालकनी में अकेले ही होती है, सना ऊपर आती नहीं, और हाशिम मेरे आसपास कुछ ढूंढ़ने की कोशिश में लगा रहता है. हक़ीम साहेब द्वारा ढूंढ़ा गया पहला नौजवान अब अपने बेटे को लेकर ईदगाह आता है. जब भी मेरी नज़रें सना से मिलती हैं, वो सर झुका कर आगे निकल जाती है, दिल में एक टीस-सी होती है. मैं जितना महसूस कर पाती हूं, शायद वो ऐसा करने को मजबूर थी. मैं अपने काम में इतनी मशगूल हो जाती हूं कि प्रतिक्रिया करने का समय ही नहीं होता. अलबत्ता हाशिम हमारी सड़क के अक्सर चक्कर लगाने लगा है. मैं समझती तो सब हूं, लेकिन किसी से इसका ज़िक्र नहीं कर सकती. मेरी बेटियों और पति को तो पहले से ही मेरा सजना संवरना और बालकनी में ईद के दिन बैठना पसंद नहीं था. मेरा हर साल गुनगुनाना सुन पीछे से बड़ी बेटी चिल्लाती,‘मम्मा बिहेव योर सेल्फ़.’ छोटी हां में हां मिलाती. ‘आई नो, पर क्या करें? लेट हर डू जो करना है, शी विल नेवर ग्रो मॉम है तो क्या.’ डॉक्टर फ़ारूख़ी हमारे किराएदार ज़रूर थे पर हमारी बातें और आदान-प्रदान सिर्फ़ होली-दिवाली, ईद बक़रीद पर ही होता था. हम दिवाली होली पर मिठाइयां भिजवाते और वो ईद में सेवइयां और बिरयानी. मिसेज़ से तो केवल मुस्कुराहट का ही लेना-देना था, वो बोलती बड़ा कम थीं. वो तो सना ही थी, जो मुझे बेटियों से ज़्यादा प्यारी थी, पर इसका पता हम दोनों के सिवाय किसी को नहीं था. सना के बिना मेरी ईद झुंझलाहट भरी होती थी, लेकिन सेवइयां और बिरयानी नौकर के हाथ ऊपर आ जाती थी.
मैं ख़ुद को सना हाशिम का गुनहगार मानती थी पर मजबूर थी, एक ईद मनाने के लिए दो दिलों से खेल गई. वो नासमझ थे मैं तो दुनियादारी स्टेट्स अमीर-ग़रीब सब समझती थी, अपनी भी दो बेटियां थीं. एक दिन डॉक्टर फ़ारूख़ी सपरिवार पांच बड़े सूटकेस लिए रोती हुई सना, सहमे हुए सलीम और पत्नी को लिए आउट ऑफ़ स्टेशन चले गए. घर की चाबी देने ऊपर ख़ुद डॉक्टर साहब ही आए, उनका तमतमाया चेहरा देख मैंने तो कहां जा रहे है पूछने की ज़हमत भी नहीं उठाई. दो हफ़्ते पहले सना का फ़ोन भी छिन लिया गया था, ऐसा मेरी छोटी बेटी ने बताया था, जो इंस्टाग्राम पर उसकी फ़्रेंड थी. मुझे बालकनी से सना का सूजा रोता चेहरा दिखा, उसने मुझे बक़रीद में शहीद होते बकरे का दर्द दिखा.
उनके जाने के दूसरे दिन हाशिम हमारे घर के सामने खड़ा बालकनी की तरफ़ नज़र उठाए दिखा, उसे देख बालकनी का दरवाज़ा बंद कर मैं अंदर आ गई. पता नहीं क्यों महीनेभर आत्मग्लानि से घिरी रही, अजीब-सी उदासी मन में छायी रही, लगा जैसे किसी ने बेरहमी से मेरे प्यार का क़त्ल कर दिया हो पर यहां क़ातिल तो मैं ही थी. जब भी खुली हवा लेने बालकनी में जाती, हाशिम को खड़ा पाती, उसका सामना करने की हिम्मत नहीं थी. एक महीने बाद फ़ारूख़ी परिवार आया, लेकिन सना नहीं थीं. दूसरे दिन बहुत सारी मिठाइयों के साथ सना की अम्मी ख़ुद ऊपर आईं और सना की शादी की ख़ुशख़बरी सुनाई. मुझे तो जैसे काटो तो ख़ून, नहीं उन मिठाइयों में मुझे बकरे का कटा मांस दिख रहा था. बेटियां चिल्लाने लगीं,“ इतनी जल्दी! अभी तो आंटी उसका ग्रैजुएशन भी नहीं हुआ था, वो तो बहुत अच्छा पढ़ती थी.’’ कुछ देर तो उनकी आंटी भी चुप रहीं, सना उनकी बेटी ही थी बचपन से डॉक्टर बनाने का अरमान जो पाले हुए थी. फिर ख़ुद को सम्भालते हुए ठंडा-सा जवाब दिया,‘‘मेरी शादी भी इसी उम्र में हुई थी. डॉक्टर साहब की बहन का ही बेटा है, बचपन से ही सना को जानता है. अच्छा ख़ासा बिज़नेस है, लड़के के अब्बू मेरे खलेरे भाई हैं. इतना अच्छा रिश्ता ख़ुद चल कर घर आया तो हम कैसे मना करते?’’ थोड़ी देर हम सब चुप रहे. मुझे तो बड़े ज़ोर की मतली-सी हुई़, दौड़ कर बाथरूम में जाकर उस उलटी के साथ भावनाएं, आदर्श, इंसानियत सब कुछ बाहर आ गया. मेरे अंदर बसे हामिद, ईदगाह, दादी, चिमटे ने मिल कर सना का दिल कुचल दिया. उसके बाद मुझे हाशिम कभी मुझे अपनी सड़क पर नहीं दिखा.
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इस बार ईद पर ना जाने क्यों ना चाहते हुए फिर मैं सुबह-सुबह तैयार हो बालकनी में खड़ी हो गई. हमेशा की तरह हाशिम और बूढ़े मियां को मेरी आंखें तलाशतीं रहीं, लेकिन उनका कोई अता-पता नहीं. ये दोनों तो सबसे पहले आने वालों में से थे. मैं परेशान हो छत पर पहुंच जाती हूं, रोने-रोने को हो उठती हूं. तभी दूर से एक पहचाना मुरझाया चेहरा दिखता है, चेहरा बिलकुल मुरझाया है, आंखों की चमक पूरी तरह से ग़ायब है. हाशिम को इस तरह थका हारा पैदल आता देख मैं घबरा जाती हूं. मुझसे रहा नहीं जाता, विषाद की एक छाया मेरे दिल में आ जाती है और बिना किसी की परवाह किए मैं उसी सड़क पर खड़ी हो हाशिम के वापस आने का इंतज़ार करती हूं. वो बेचारा सर झुकाए बिना किसी ओर देखे सीधे आ रहा है. उसकी आंखों का रंग बदल गया है, चेहरे पर दर्द की कई लकीरें हैं. मुझे देखकर सलाम करता है. मैं पूछती हूं,“क्या हुआ? मोटरसाइकल… अब्बू कहां है?’’ मुझे एक अजीब-सी नज़रों से देखकर कहता है,“अरे! आप को नहीं मालूम! अब्बू इसी सड़क पर आपा के लिए लड़के ढूंढ़ते रहे, आपा की उम्र हो गई. इसी चक्कर में अम्मी ने छोटी दोनों बहनों का निकाह मुहल्ले के टेलर और पलंबर से करा दिया. अब्बू को सदमे से फ़ालिज मार गया, एक महीने से बिस्तर में पड़े हैं. मेरा दिल तो टूटा ही, मोटरसाइकल भी बेचनी पड़ी. जाइए डॉक्टर साहिबा आपका तो ये टाइम पास था, आप क्या समझेंगी, हम तो बर्बाद हो गए.” उसकी बौखलाहट का बयान उसकी आंखें कर रही थीं. मैंने शर्म से सर झुका लिया, ख़ुद को कटघरे में खड़े गुनहगार की तरह महसूस किया. चुपचाप मैं अंदर जा रही थी, मिसेज़ फ़ारूख़ी ज़ोर से चिल्लाईं,“डॉक्टर साहेब मिठाई तो खाते जाइए, ईद ख़ुशियां लेकर आई है. आप नानी बनने वाली हैं! अल्लाह के फ़ज़ल से सना मां बनने वाली है.’’ मैं बिना रुके दौड़ कर ऊपर चढ़ गयी. आत्मा ने ज़ोर की चीख़ सुनी, मानो किसी ने मेरी मासूम सना का बलात्कार किया हो.
मुझे अब ये सड़क इतनी बेरंग लगने लगी और अंदर से एक टीस-सी उठी काश! ये सड़क ईदगाह को ना जाती… तो ना ही मैं एक मासूम हाशिम को टूटता देखती, ना उसकी गुनहगार बनती, और ना ही बूढ़े मियां की दर्दे दास्तान की गवाह. हामिद, दादी़, चिमटे के मीठे सपनों में आज तक खोए रहती… काश…
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