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ओए अफ़लातून
Home ज़रूर पढ़ें

ग्रीन शर्ट: डॉ संगीता झा की कहानी

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
June 29, 2023
in ज़रूर पढ़ें, नई कहानियां, बुक क्लब
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प्यार एक ऐसी शै है, दूरियों से जिसकी ख़ुशबू और बढ़ जाती है. स्कूली दिनों के अधूरे प्यार की ख़ुशबू का तो कहना ही क्या? हमारी इस कहानी का नायक अपनी अधूरी प्रेम कहानी की ख़ुशबू सालों लिए घूमता है. क्या उसपर प्यार का यह खुमार ताउम्र चढ़ा रहेगा?

मैं बड़ा हो रहा था और लोगों को देख ख़ुद को घंटों आईने के सामने निहारने लगा था. घर पर हम पांच भाई-बहन, जिसमें मैं सबसे छोटा था. मेरे हिस्से हमेशा उतरन ही आती थी. ऐसा भी नहीं था कि बाक़ी भाई-बहन युवराज या राजकुमारी बने फिरते थे. हमेशा स्कूल में सबके कपड़े देख कोफ़्त होती थी. कहां सबकी सफ़ेद नील लगी कड़क शर्ट और मेरी मैली कुचैली क़मीज़… जो ख़ुद भी भूल गई थी कि वो कभी सफ़ेद थी.
घर पर तो उससे भी बुरा हाल था. कभी घर में मैंने शर्ट कभी पहनी ही नहीं. एक शर्ट खूंटी में टंगी रहती थी जिसे मैं बाहर जाने पर ही पहनता था. घर पर पहनी गई बनियान ने भी अपना असली रंग खो दिया था. घर पर मां बाप करें भी तो क्या? पहले दोनों बहनों के तन ढके जाते थे क्योंकि मां को डर था कि बेटियां सुंदर चाहिए नहीं तो बाद में कोई ब्याहेगा नहीं. सस्ती ही सही, पर उन दोनों की रंगीन फ्रॉक लाई जाती. बड़े भैया घर के कुलदीपक थे. घर के कामों से यदा-कदा यहां-वहां जाया करते, सो ज़ाहिर था कि उनके कपड़े पर भी विशेष ध्यान दिया जाता था. मुझसे बड़ा भाई बड़े भैया के पुराने कपड़ों पर झपट्टा मार लेता था. मेरे हिस्से में दो बार की उतरन ही आती थी. जो चरमरा रही होती थी और ख़ुद भी अपना ओरीज़िनल कलर भूल चुकी होती थी. मसलन अगर सफ़ेद रंग था तो वो मेरे पास आते आते मटमैला, लाल रंग तो कुछ हिस्सा नारंगी, थोड़ा गुलाबी और बचा खुचा ऑफ़ वाइट सा रहता था. रंग रूप भगवान ने अच्छा ही दिया था, लेकिन मैले कुचैले
कपड़ों वह भी दब सा जाता था. क्लास में पहले कोई मेरे दोस्त भी नहीं बने, पर जब मैं क्लास में टॉप करने लगा तो धीरे-धीरे मेरी सीरत ने सबको मेरी तरफ़ खींचना शुरू कर दिया. लेकिन मैं तो कुंठा से ग्रस्त था, तभी मेरे जीवन में विभा आई.
मैं विष्णु और वो विभा एक ही बैच में थे. मैं उसे फ़िज़िक्स के प्रिज़्म और केमिस्ट्री के प्रयोगों में मदद भी करता था. मुझमें तो इतनी हिम्मत भी नहीं थी कि मैं किसी लड़की के बारे में सोचता. मैं गणित के सवालों में भी उसकी मदद करता था. वो मुझसे प्रभावित तो थी, पर ना उसने और ना ही मैंने आपस में पढ़ाई के अलावा इधर-उधर की बातें की. उसके पास से एक अलग ही ख़ुशबू आती थी, उसके कपड़े भी साफ़ और इस्तरी किए हुए रहते थे. एकाध बार उसके शरीर से मैं टकराया भी और पूरे शरीर में एक अजीब-सा रोमांच भी छा गया. उसे क्या लगा होगा इसका मुझे कभी पता ही नहीं चला. वो बड़े घर की लड़की थी और जहां ज़्यादातर बच्चे या तो पैदल या फिर अपनी साइकिल चला ख़ुद आते थे वहीं विभा को उसका ड्राइवर छोड़ने और लेने आता था. मेरे और उसके इंटरऐक्शन में मैं ज़्यादातर सिर झुकाए बैठा रहता और उसका मुझे पता ही नहीं चलता. एक दिन वो मेरे पास धीरे से चलकर आई और उसने मुझसे बड़े प्यार से आकर कहा,‘‘इस सैटरडे को मेरा जन्मदिन है. मैंने क्लास से किसी को नहीं बुलाया है. मैं चाहती हूं कि तुम मेरे घर ज़रूर आओ. मास्टर जी ख़ूब मज़े करेंगे. पापा ने मैजिशियन बुलाया है. तुम्हें ज़रूर आना है.’’
मास्टर जी सुन तो मैं जैसे पगला ही गया था. उसने बड़े प्यार से मास्टर जी कहा था. मैंने घंटों सोचता रहा पहनूंगा क्या? अगर चुरा कर बड़े भाई की नई चेक चेक वाली शर्ट पहन भी ली तो हैंगर में लटका हुआ कार्टून ही लगूंगा. उसे कैसे बताता कि मैं दिल से आना तो चाहता हूं पर… फिर लगा वो रोज़ अपने इस मटमैले मास्टर जी को साक्षात देखती है. उससे कुछ छुपाना दाई से पेट छुपाने की तरह होगा. बड़ी हिम्मत जुटा लंबी सांस ले मैंने कहा,“तुम्हारा इनविटेशन तो मेरे लिए गर्व का विषय है पर इससे ज़्दाया शर्म की बात ये है कि मेरे पास पहनने के लिए कपड़े नहीं हैं.’’
वो थोड़ी चुप रही. पहली बार अपने मास्टर जी पर दया दृष्टि डाल उसने कहा,“कोई बात नहीं, तुम्हारी शर्ट का साइज़ बताओ मैं ले आऊंगी. मैं तो जैसे ऊपर से नीचे गिरा. पहली बार उस दिन पता चला शर्ट भी साइज़ से बिकती है. कभी ख़रीदी तो नहीं थी ना ही कोई नई सिली शर्ट पहनी थी.
फिर याद आया कि कल जब सीनियर क्लास के दो लड़कों में लड़ाई हो रही थी तो उनमें जो बड़ा था उसने दूसरे वाले को धमकी दी थी,“लड़ेगा मुझसे? क्या कहता है? छप्पन इंच का सीना है मेरा.” उसका छप्पन इंच मुझे याद रह गया था. बिना सोचे समझे मैंने अपना साइज़ छप्पन बताया.
वो तो जैसे मुंह पर हाथ रख ज़ोर-ज़ोर के हंसने लगी. उसकी हंसी तो जैसे रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. उसी खनखनाती हुई हंसी के साथ मेरे सीने को निहारते हुए वो बोली,‘‘मास्टर जी आप भी ना… कितने इनोसेंट हैं. कोई बात नहीं मैं अंदाज़े से ही ही ले आऊंगी. आपका पसंदीदा रंग कौन सा है?’’
मैं भी पागल था या यूं कहिए देहाती-सा था बहनों को ही घर पर बदन ढके पाता था, इसलिए झट से कहा,‘‘ग्रीन!’’ वो फिर ठहाका मार कर हंसने लगी,“ग्रीन! यू मीन हरा नेवर हर्ड बिफ़ोर शर्ट का रंग हरा.’’
उन दिनों भी बड़े घर के बच्चे आज की तरह इंगलिश और हिन्दी मिला कर बोलते थे. मैं मुंह खोले एकटक उसकी झरने-सी हंसी को सुन भी रहा था और देख भी रहा था. मुझे लगा हरे रंग की फ्रॉक में मेरी बहनें कितनी जचती हैं तो मैं भी अच्छा ही लगूंगा.
“आई विल ट्राई माई बेस्ट’’ कहते हुए उसने धीरे से मेरा गाल खींचा और हाथ हिलाते हुए चली गई.
उस रात मैं अपना गाल रात भर सहलाता रहा. पूरे शरीर में गुदगुदी होती रही. एक बार भी मन में नहीं आया कि वो कहां और मैं कहां. राजा और रंक का मिलन हुआ है भला कभी. लेकिन सपनों और ख़्वाहिशों पर भला किसी का बस होता है! मेरे सपनों में वो कभी मेरी बांहों में थी तो कभी मेरे बगल में लेटी थी और मैं उसके बालों से खेल रहा होता था. हमेशा चुप रहने वाला मैं उस दिन से घर पर भी यदा कदा मुस्कुराने लगा था.
शी रियली ट्राइड हर बेस्ट और ठीक शुक्रवार को उसने मुझे एक पैकेट ला कर दिया और कहा,“तुम पर ये ख़ूब जंचेगी. कल मेरे घर तुम इसे पहन कर आना. तुम स्कूल छः शाम पहुंच जाना. मेरा ड्राइवर बेकरी में बर्थडे केक लेने आएगा. हमारी क्लास से मैंने विधि को भी बुलाया है. तुम दोनों साथ आ जाना.’’ मैंने उस पैकेट को अपनी छाती से चिपका लिया और ऐसा महसूस किया मानो वो मुझसे लिपटी हुई है. इतनी क़रीब कि उसकी सांसें मैं महसूस कर पा रहा हूं और वो मेरी फटे जूते और मटमैली शर्ट का भी कोई ग़म ना था. कुलांचे मारते हुए घर पहुंच मैंने वो शर्ट चुपचाप कमरे के एक कोने में छुपा दी. डर था कि अगर मेरे भाईयों की ग़लती से भी नज़र मेरी इस माशूका पर पड़ गई तो वो इसे छपट लेंगे. रात को चुपचाप वो पैकेट ले मैं स्ट्रीटलाइट के नीचे गया और खोल कर देखा तो मैं तो दूसरी दुनिया में चला गया.
उसमें एक पोलो का चिन्ह बनी हुई ठीक मेरे साइज की गहरे हरे रंग की टी शर्ट और एक छोटे से लिफ़ाफ़े में सौ-सौ के पांच नोट थे. साथ में हस्त लिखित एक पत्र भी था-मास्टर जी, ये टी शर्ट तुम पर ख़ूब फबेगी और इन रुपयों से एक बनी बनाई खाकी रंग की फ़ुलपैंट ले लेना और एक इत्र की बोतल भी. हमेशा की तरह आपसे पसीने की गंध नहीं आनी चाहिए. मैं तो ऊपर से नीचे तक पसीने से नहा गया. ये पसीना गर्मी का नहीं उत्तेजना का था. दिल में एक हुक सी हुई, वो मुझे सूंघती भी है. दूसरे दिन स्कूल जाने के बदले अविनाश स्टोर जा पहली बार किसी दुकान में पहन कर रेडीमेड खाकी पैंट ली. एक इत्र, मोज़ा, रुमाल, साबुन और सौ रुपए में जूते लिए. सारी चीज़ों को एक बैग में भरकर घर के पास रहने वाले दोस्त के यहां छुपा कर आया.
आख़िर वो शनिवार आ ही गया. दोस्त कमीने तो होते हैं पर अच्छे भी रहते हैं दिल से. मेरे उस दोस्त ने मेरी वो सारी चीज़ें पहन कर गंदी भी कर दी थीं. मुझे तो मानो लकवा मार गया अपनी शर्ट की हालत देख. दोस्त ग़रीब तो था पर मुझसे थोड़ा कम. उसने जल्दी-जल्दी साबुन से सभी कपड़े धोए. फिर एक पीतल के लोटे में थोड़ा जलता कोयला डाल उन कपड़ों को सुखाया और प्रेस किया. गनीमत इत्र आधा बचा था उसे मैंने अपने शरीर और कपड़ों पर उड़ेल लिया. जल्दी-जल्दी लगभग दौड़ते हुए स्कूल पहुंचा जहां विभा का ड्राइवर और विधि दोनों ही मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे. विधि ने मुझे ऊपर से नीचे तक ध्यान से देखा फिर ज़ोर से हंसने लगी “आर यू मैड? इतना इत्र कौन लगाता है! लगता है पूरी बोतल उड़ेल ली है. ऊपर से दौड़ कर आए हो. तो तुमसे पसीने की बदबू और इत्र की ख़ुशबू दोनों आ रही है. दोनों के बीच कॉम्पिटीशन चल रहा कि सामने वाले की नाक में कौन पहले जाए.’’
मेरा चेहरा उतर गया, उसने फिर कहा,“अरे बुद्धू मज़ाक़ कर रही हूं. अच्छे लग रहे हो. परेशान ना हो.’’
जैसे ही कार विभा के विशालकाय बंगले के गेट पर पहुंची. उसका भाई ड्राइवर पर चिल्लाने लगा,“स्टुपिड कहां थे? इतनी देर क्यों लगा दी? हम सब केक का वेट कर रहे हैं. सारे मेहमान आ गए. मेयर साहेब कब के आ गए. केक की दुकान में फ़ोन किया तो पता पड़ा तुम तो कब के निकल चुके हो.’’
उसके बाद उसकी नज़र पीछे बैठे हुए मुझ पर पड़ी तो उसने ड्राइवर को फिर डांटा,‘‘इस लंगूर को साथ लाने
की क्या ज़रूरत थी? तुम्हारा बेटा है क्या?’’
ड्राइवर बेचारा धीरे से बोला,“नहीं बाबा ये तो बेबी जी के गेस्ट हैं. इन्ही की वजह से देर हुई.’’
मुझे और विधि को देख उसके भाई ने दांत पिसे और कहा,‘‘ये लंगूर और सिस (सिस्टरका छोटा रूप) के दोस्त. कांट बिलीव.’’
ये तमाशा देख विभा सबकुछ छोड़ हमारे पास आई और बड़े प्यार से विधि और मुझे अन्दर ले गई. वहां सब हमें एलियन की तरह देख रहे थे मानो हम किसी और ग्रह से आ टपके हों. उन दिनों ऋतिक रोशन की कोई मिल गया मूवी भी आई थी. कईयों ने तो आवाज़ भी लगाई जादू… अभी हम थोड़ा संभल पाते विभा का ख़ूख़ार भाई बाज़ की तरह झपटते हुए मेरे पास आया. मैं कुछ समझ पाता उसके पहले वो मुझे मेरी शर्ट पकड़ खींचने लगा,“कमीने चोर मेरी ये इंपोर्टेड शर्ट कैसे चुराई?’’
घसीटता हुआ वो मुझे अपने मां-बाप के पास ले गया और मेरी शर्ट दिखा कर कहने लगा,“ये देखें, पापा मेरी बॉटल ग्रीन पोलो जो मामा लंदन से लाए थे. इस चोर के पास आई तो कैसे आई.’’ मां ने कहा,“अरे दूसरी होगी तुम्हारे जैसी.”
भाई फिर गुर्राया,‘‘दूसरी माई फ़ुट पूरे फ़ीरोज़ाबाद में किसी के पास नहीं है. बता साले तेरे पास ये आई कहां से? बास्टर्ड टेल मी.’’
मैंने धीरे से आंखें उठा बर्थडे गर्ल को देखा वो आंखों से ही नहीं-नहीं का इसरार कर रही. मैं भी जन्मदिन के मौक़े पर उसे बेइज्जत नहीं करना चाहता था, इसलिए चुपचाप धक्के खाते हुए उसके बंगले से बाहर निकल गया.
प्यार अंधा होता है और उसकी कोई जबान नहीं होती, पर विभा का आंखों का इशारा कि मैं ये ना बताऊं कि मेरे पास शर्ट कहां से आई है मुझे खटक गया. उन्हीं कपड़ों में उल्टा लेट पूरी रात रोता रहा. सुबह मुझे इन कपड़ों में देख सब चिल्लाने लगे कि किसके कपड़े पहन लिए हैं. बदक़िस्मती से पापा भी अपनी बैंड पार्टी के साथ वहां थे. उन्होंने मेरी पैरवी की,“दोस्त के होंगे, जाओ वापस कर आओ और ऐसे कपड़े अब तभी पहनना जब ख़ुद ख़रीद सको. ख़ुद्दारी भी कोई चीज़ होती है. तब कोई नहीं पूछेगा कहां से चुराए हैं.’’ पापा थे तो बैंड मास्टर पर बात बड़े पते की कह गए. विभा के सामने आने की ना तो हिम्मत थी और ना ही इच्छा. इतनी कमज़ोर और कायर कि अपने मास्टर जी की बेइज़्ज़ती देखती रही और चुप रही. तुरंत मैंने वो पेंट, बेल्ट, जूते अपने उसी मित्र को दे दिए जिसके यहां पहले छुपा कर रखा था. लेकिन ग्रीन टी शर्ट घर पर इस तरह छुपा कर रखी कि कोई वहां तक पहुंच ही नहीं सकता था.
बारहवीं के इम्तिहान को सिर्फ़ एक महिना ही बचा था. मैंने पापा से कहा मैं घर पर ही पढ़ाई कर इम्तिहान दूंगा. पापा से मेरी बेइज़्ज़ती छुपी नहीं था. उन्होंने स्कूल के प्रिंसिपल से बात कर ली. दोस्त से पता चला विभा अपने मास्टर जी को रोज़ ढूंढ़ती है. उन दिनों फ़ोन भी नहीं था इसलिए ढूंढ़ना इतना आसान ना था. मेरे घर की गली में उसकी बड़ी कार घुस ही नहीं सकती थी. मैंने पूरी तरह से पढ़ाई में ख़ुद को डुबो
लिया. इम्तिहान में हमारे सेंटर भी अलग-अलग आए, इसलिए आमना-सामना होने का प्रश्न हो ना था.
मेरा रिजल्ट मेरी दृढ़ शक्ति के अनुकूल ही था. मैं पूरे ज़िले में प्रथम था. शर्ट चोर की फ़ोटो हर अख़बार में छपी थी शायद उसके भाई ने भी देखी हो. उसके बाद मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी में बीएससी फ़िज़िक्स ऑनर्स में दाख़िला ले लिया क्योंकि मैं एक अच्छा शिक्षक बन अपने जैसे कुछ लोगों की ज़िंदगियां बदलना चाहता था. वो तो नहीं मिली, लेकिन अलबत्ता उसकी याद और वो ग्रीन शर्ट हमेशा मेरे पास रहती थी. जब भी उसकी याद आती मैं शर्ट को दिल के क़रीब ला लिपट सो जाता था. समय बीतता गया, लेकिन उसकी यादे वहीं ठहरीं रहीं. मैं पीएचडी कर डीयू में ही प्रोफ़ेसर बन गया. वहीं केमिस्ट्री की एक असिस्टेंट प्रोफ़ेसर से शादी भी कर ली, दो बेटे भी हो गए. वो शर्ट आज भी मेरे कॉलेज ले जाने वाले ब्रीफ़केस के कोने में रखी रहती है. मेरे जीवन का उद्देश्य ना केवल अपने बेटों, बल्कि घर के सभी बच्चों को शिक्षित करना था. दोनों भाईयों ने पिता का बैंड जॉइन कर ली, क्योंकि पढ़ाई तो उन्होंने की नहीं थी. उनके बच्चों की पढ़ाई का ज़िम्मा भी मेरा ही
था. पति-पत्नी दोनों के कमाने से घर का स्तर भी अच्छा था लेकिन अभी भी उसकी कमी महसूस होती थी और अक्सर मैं कभी बाथरूम, कभी छत पर जाकर उस ग्रीन शर्ट को छाती से चिपका कर अपनी पुरानी अधूरी मोहब्बत को याद कर लेता था.
मैं सीनियर होने से डीयू की एडमिशन कमेटी का एक मेम्बर भी था. कल दिल्ली शहर के मशहूर बिज़नेसमैन मिस्टर धारिवाल अपने बेटे के एडमिशन के लिए अपनी पत्नी के साथ आए. मिसेज़ धारिवाल को देख मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन ख़िसक गई. ऊपर से नीचे डायमंड से लदी वो मेरी विभा थी. उसने तो मुझे शायद पहचाना नहीं या पहचान कर भी अनजान बनी रही.
मैं तुरंत बहाना बना एडमिशन बोर्ड छोड़ अपने कमरे में चला गया. पता नहीं क्या हुआ घर जा मैंने फिर बाथरूम में जा वो ग्रीन शर्ट अपने छाती से चिपकाई, पर आज वो गर्माहट नहीं महसूस हुई. मैं बड़ा आहत-सा महसूस कर रहा था. अचानक मेरे अन्दर का आशिक़ अचानक जाग उठा. मैं तो वही था लेकिन मेरी माशूक़ बदल चुकी थी. सीधे पत्नी को बांहों में भर चूमने लगा. वो तो समझ ही नहीं पा रही थी. कॉलेज में उसका सीनियर था, इससे हमारे पारिवारिक जीवन में भी मैं सर और वो मेरी जूनियर थी. हमारे सारे रिश्ते मेरी मर्जी से थे. बेचारी को तो इस गर्माहट वाले प्यार की आदत ही ना थी. पूरी रात मैंने उसे सोने ही नहीं दिया, आज भी मेरी ही मर्जी उस पर सवार थी. मैं भी बहुत तरोताज़ा महसूस कर रहा था. शाम को जब घर वापस आया तो नौकरानी उस ग्रीन शर्ट को फाड़ घर की डस्टिंग कर रही थी. मैं वापस उस टीशर्ट को अपने बैग में रखना भूल गया था. नौकरानी ने मुझे जब उस फटी शर्ट को घूरते पाया तो बोली,“साहेब जी आपके बाथरूम में हमें ये पुरानी शर्ट मिली. बहुत सॉफ्ट है, मेमसाब से पूछ कर ही इसके दो टुकड़े कर लिए हैं. आधे को डस्टिंग का कपड़ा और आधे को पोंछने के लिए रख लिए हैं. कपड़ा भी मज़बूत है, अब चार महीने के लिए छुट्टी.’’
मैं अपनी बरसों पुरानी दिल में दबी मोहब्बत को आज फटे हुए पोछने में देख कर भी परेशान ना था. मैंने फिर पत्नी की कमर में हाथ डाल उसके ही हाथों की बनी गरम-गरम चाय की फ़रमाइश कर दी. नौकरानी और बच्चे भी पत्नी के साथ मेरे अन्दर के नए इंसान को देख अवाक् थे.
Illustrations: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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