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कमरा नंबर 26: डॉ संगीता झा की कहानी

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
July 16, 2022
in नई कहानियां, बुक क्लब
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Dr-Sangeeta_Jha_Stories
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‘नेक कर दरिया में डाल’ यानी अच्छा काम करके भूल जाएं. यह हमें बचपन से सिखाया जाता है. आप भले ही बिना किसी उम्मीद के किसी की मदद करके भूल जाएं, पर एक दिन दरिया ज़रूर नेकी का बदला सूद समेत लौटाती है. कमरा नंबर 26 एक नेकदिल डॉक्टर की एक ऐसी ही कहानी है.

आज एक भरी पूरी लम्बी रौबीली काया धुले हुए सूती कपड़े की तरह सिकुड़ी कमरा नम्बर 26 बन कर पड़ी हुई है. कहने को शहर की सबसे बड़ी कैन्सर सर्जन, पर कोरोना ने आम आदमी और ख़ास आदमी के बीच के भेद को बिलकुल ही मिटा दिया है. वो तो ज़िंदगी भर की कमाई पूंजी है तो प्राइवेट कमरे में रहने की ताक़त आ गई है. वरना ज़्यादातर लोग बेचारे जनरल वॉर्ड में ही कीड़े मकोड़ों की तरह सड़ रहे हैं. यहां डॉक्टर अहिल्या के दोस्त कमरे की दीवारें, खिड़कियां, फ़र्श, छत और पंखे. ऑक्सीजन कम होने से वो बिस्तर से बंधी हुईं हैं, लगातार ऑक्सीजन मास्क से दिया जा रहा है. अब सिर्फ़ छत और ऊपर पंखे का सहारा है. बचपन में पढ़ी कविता याद आ रही थी,‘फूलों से नित हंसना सीखो, भौंरों से नित गाना.’
अब पंखे से भी परमार्थ ही सीख सकते हैं. निर्जीव है तो क्या हुआ बेचारा… सबको हवा देता है. मैं तो और भी निर्जीव सी पड़ी हूं. इतनी बड़ी डॉक्टर हूं तो पीपीई किट पहने डॉक्टरों की सेना आती है. ये बेचारे भी कितना सेवा, साधना और त्याग के मंत्र के साथ चले, ख़ुद की रक्षा भी तो करनी है. मुझे मन हो रहा है कि कोई सर में तेल लगाए और सहलाता रहे. काश… ऐसा हो पाता. तभी ऊपर वाले ने सुन ली. यमराज जैसे पीपीई किट पहनी सेना के जाने के बाद एक हवा का झोंका सा आया. और पास आ के बोला,“अरे मैम आप यहां हैं, मैं कितनी देर से आप को ढूंढ़ रही थी.’’
मैं,“सॉरी बेटा मैंने पहचाना नहीं! तुम कौन?’’
वो,“मैं नसीमा, इसी हॉस्पिटल में नर्सिंग इंचार्ज हूं. आज सुबह पता चला कि डॉक्टर अहिल्या हमारे हॉस्पिटल में एडमिट हुईं हैं. तब से आपको ढूंढ़ रही थी.’’
मैं,“नसीमा बेटा मुझे याद नहीं आ रहा.”
नसीमा,“आप अभी कमरा नम्बर 26 में हैं, मैं आपके अस्पताल गंगोत्री में आज से पंद्रह साल पहले कमरा नम्बर 26 की अटेन्डेंट थी. याद आया वो सोलह साल की लड़की नसीमा, दुबई के शेख़ के साथ.”
मेरे माथे की घंटियां खनखनाने लगीं और मैं पंद्रह साल पीछे चले गई.
मैं डॉक्टर अहिल्या प्रधान शहर की एक बड़ी कैन्सर सर्जन, ज़िंदगी की हर बाधा को पार कर मैंने ये मुक़ाम और सम्मान हासिल किया था. ख़ुद पर इतना नाज़ था कि कभी ज़िंदगी में समझौते की कोई गुंजाइश ही नहीं रखी, इससे मैं अविवाहित ही रही. इसके पीछे भी अपनी मां जो बड़ी विद्वान थी का त्याग था, जिसने ना केवल अपना स्वाभिमान, अपनी नौकरी बल्कि यूं कहिए सेल्फ़ रिस्पेक्ट भी त्याग दिया. मैंने बचपन में ही ये सोच लिया था कि कोई पुरुष मेरा स्वामी नहीं हो सकता. मेरा अपना अस्पताल गंगोत्री जिसमें कुछ हद तक समाज सेवा ही होती थी. एक दिन मेरी ओपीडी में एक शेख़ चार पांच मीडिएर्ट्स को लेकर आया. शेख़ अरबी में बोलता था और मीडिएर्ट्स उसे हिंदी में ट्रान्सलेट कर बताते थे और हैदराबाद में अक्सर हर डॉक्टर के ऐसे मरीज़ आना आम बात थी. उस अरब को थाइरॉड ग्लैंड का कैन्सर था जो खाने की नली और स्वास नली दोनों से चिपका हुआ था लेकिन उसकी सर्जरी हो सकती थी. मैंने कुछ टेस्ट लिखे और अगले दिन रिपोर्ट लेकर आने कहा.
अगले दिन शेख़ एक लड़की के साथ आया जिसके हाथों में मेहंदी लगी थी. वो अपना चेहरा पूरा ढके हुए थी और आंखें दोनों नीची थीं. मुझे बड़ा अच्छा लगा कि शेख़ अपनी पोती के साथ आया है. मैं अभी रिपोर्ट देख ही रही थी कि एक ब्रोकर दौड़ते हुए आया और मुझे सलाम किया मैंने उसे बताया कि इसका ट्यूमर पूरा निकालने में हो सकता है कि हमें स्वास नली में छेद कर ट्यूब डालनी पड़े, जिसे छः हफ़्ते के बाद निकालना पड़ेगा. दुभाषिया ब्रोकर कहता है कि हम कल आकर बताएंगे. साथ आई लड़की की आंखें मिमियाते मेमने की तरह थीं, उसने एक नज़र से मुझे देखने की कोशिश की, दोनों आंखों में पानी भरा था. इतनी मज़बूत होते हुए भी मैं हिल सी गई और मैंने आगे बढ़ उसका कंधा थपथपाया.
मन ही मन मैंने सोचा आज के बच्चों से अलग अपने दादा के लिए इतनी परेशान… दो दिनों तक शेख़ का कोई अता-पता नहीं थी. मरीज़ आते-जाते रहते हैं, इससे ये आई गई बात हो सकती थी लेकिन उस लड़की की आंखों की वजह से शेख़ याद था.
मैं फिर अपने रूटीन में व्यस्त हो गई. क़रीब छः दिनों बाद फिर वो लड़की और शेख़ उसी ब्रोकर के साथ आए. इस बार लड़की थोड़ी मज़बूत दिखी. हाथों में लगी मेहंदी का रंग उधड़ सा गया था. शेख़ चिल्ला-चिल्ला कर कुछ कह रहा था, दुभाषिए ने मुझे समझाया कि शेख़ मुझसे बहुत प्रभावित है और सर्जरी मुझसे ही कराना चाहता है.
मैंने पूछा,“ठीक है फिर परेशानी क्या है?”
दुभाषिया,“ये थोड़ा डर गया था, गले में छेद कर नली डालने के नाम से. पर अब समझ गया है कि सर्जरी जल्दी से जल्दी करवानी है.’’
मैं,“ठीक है एडमिट करवा दो, आज सारे टेस्ट हो जाएंगे और परसों सर्जरी.”
दुभाषिया,“ठीक है, ये मोहतरमा यहां रहेंगी.”
ठीक दो दिनों बाद ना केवल उसकी सर्जरी हो गई बल्कि गले में छेद कर नली जिसे मेडिकल की भाषा में ट्रेकियोस्टामी कहते हैं, डालनी पड़ी. वैसे भी शेख़ अरब से था, यहां कोई रिश्तेदार ना होने से उसने दुभाषिए के माध्यम से मुझसे रिक्वेस्ट की कि जब तक गले में नली डली है वो अस्पताल में ही रुकेगा. आमतौर पर हम मरीज़ को नली के साथ दो दिनों में ही डिस्चार्ज कर देते हैं. बीच-बीच में ओपीडी में बुलाकर चेक करवाते रहते हैं. मरीज़ के साथ रहने वाले को उस पाइप की किस तरह केयर करना है, इसकी पूरी जानकारी दी जाती है और साथ में नली को कैसे साफ़ करना है ये भी सिखाया जाता है. ऑपरेशन के बाद ट्रेकियोस्टोमी की केयर सीखने वही लड़की आई. मुझे वो बड़ी इंटेलिजेंट और सेवा के लिए समर्पित लगी.
शेख़ चूंकि अरब देश से था इससे उसने मुझसे प्रार्थना की कि जब तक गले में ट्यूब डली है, उसे अस्पताल में ही रहने दिया जाए. मैंने समझाया कि ट्यूब तो क़रीब छः हफ़्ते तक गले में डली रहेगी तब तक तो अस्पताल का बहुत बिल भी बहुत बढ़ जाएगा और एक रूम भी अस्पताल का ब्लॉक हो जाएगा. लेकिन उस शेख़ से ज़्यादा उस लड़की की मिमियाती आंखों ने मिन्नतें की कि उन्हें अस्पताल में ही रहने दिया जाए. मैंने भी अस्पताल के दूसरे ट्रस्टियों से बात कर उन्हें छः हफ़्ते उस रूम में रहने की इजाज़त दे दी. लड़की ने तो शेख़ की कायापलट कर दी, और तो और वो प्राइवेट वॉर्ड के दूसरे मरीज़ों की भी नर्स बन गई थी. शेख़ अब हमारे लिए कमरा नम्बर 26 बन गया था. रोज़ राउंड में उसके कमरे में जाने पर हर दिन कुछ नया ही देखने को मिलता. कभी वो लड़की शेख़ की शेविंग करती मिलती तो कभी शेख़ की फ़िजीयोथेरेपी करती. कभी शेख़ साहेब अनुलोम-विलोम करते मिलते तो कभी भ्रामरी करते. मरीज़ का कमरा, शरीर कपड़े सब कुछ साफ़ मिलता. एक हल्की-हल्की भीनी-भीनी सी ख़ुशबू भी आते रहती. ऐसा लगता मानो किसी संत की दरगाह पर आ गए हों. मुझे उसकी अटेंडेंट लड़की से बात कर के बहुत अच्छा लगता. एक जूनियर डॉक्टर की तरह उसके पास एक चार्ट हमेशा तैयार रहता, जिसमें शेख़ के हर चार घंटे की पल्स ब्लड प्रेशर, टेम्प्रेचर का रिकॉर्ड रहता और वो बड़े प्यारे ढंग से पट-पट बोलते जाती. मैंने शेख़ से कहा,“जिस तरह से तुम्हारी पोती तुम्हें देखती है, अच्छे से अच्छे डॉक्टर भी मात खा जाएंगे.” वो लड़की ये सुन खिलखिला कर हंस पड़ी. उसकी हंसी बहते हुए झरने-सी लगी. मुझे गर्व हुआ पोती पर कि आज के जमाने में भी पोती अपने दादा जी का कितना ध्यान रखती है और बरबस अपने दादाजी की याद में आंखों में आंसू आ गए.
शेख़ की हालत में बड़ी जल्दी सुधार हो रहा था. अगले दिन जब राउंड में गई तो शेख़ तो बिलकुल नॉर्मल आदमी की तरह घूम रहा था, मैंने फिर पोती की पीठ थपथपाई और कहा,“तुम्हारी पोती इसी तरह लगे रही तो एक दो दिनों में तुम्हारी इस अस्पताल से छुट्टी हो जाएगी.’’ छुट्टी यानी डिस्चार्ज का सुन जहां शेख़ की आंखें चमकने लगीं वहीं उस लड़की की आंखों में बड़े-बड़े आंसू चमकने लगे और उसका दर्द चेहरे पर भी आ गया. मैं उसके दुःख का कारण समझ नहीं पाई, फिर लगा शायद मुझे समझने में कुछ ग़लती हुई है. वापस अपने कमरे में आ और मरीज़ों को देखने लगी. शाम को जब मै अपने चेम्बर से बाहर जा रही थी तो उस लड़की को कमरे के सामने बैठा पाया.
लड़की,“मैम मुझे आपसे अकेले में बात करनी है.’’
मैं वापस उसके साथ ही चेम्बर में आ गई.
मैं,“कहो क्या बात है?’’
लड़की,“मैम शेख़ साहेब को अभी मत डिस्चार्ज मत करिए . प्लीज़ मैम प्लीज़…”
उसकी दोनों आंखे डबडबा रही थीं और एक अलग-सी उदासी उसके चेहरे पर छाई हुई थी. उसे देख कर ऐसा लग रहा था मानो वो कुछ कहना चाह रही हो पर कह नहीं पा रही है. मैंने उसकी हालत देख उससे पूछा,“बोलो क्या बात है? छुपाने की ज़रूरत नहीं है.”
उसने उसके बाद जो अपनी कहानी बताई उसे सुन कर तो मानो मेरी रूह ही कांप गई. उसने बताया ना तो वो शेख़ की नातिन थी और ना ही उसकी बेटी है बल्कि वो तो शेख़ की पत्नी थी. ऐसा अक्सर होता है जब अरब देशों से शेख़ अपना बड़ा इलाज या ऑपरेशन कराने इंडिया आते हैं तो उन्हें ख़ुद की देखरेख के लिए नर्स की ज़रूरत होती है. नर्स की फ़ीस भी ज़्यादा होती है और उसके साथ ऐश भी नहीं की जा सकती. इससे ज़्यादा अच्छा तरीक़ा किसी बेहद ग़रीब मां-बाप को पैसे दे उनकी बेटी से टेम्प्ररी शादी या निकाह कर, नर्स की तरह सेवा, बीबी की तरह ऐश कर, जाते वक़्त तलाक़ दे अपने मुल्क बेदाग़ ज़ाया जा सकता है. लेकिन यहां आश्चर्य की बात ये थी इस लड़की जिसका नाम नसीमा है ने ख़ुद अपना सौदा किया था. उसने बताया कि उसके मोहल्ले में ये बहुत आम बात थी. एक दलाल जिब्रान हमेशा ही चक्कर लगाया करता था. वो बता रही थी कि उसके अब्बू का हाथ मशीन के अंदर आ कर कट गया था. कारख़ाने से ना तो ठीक मुआवज़ा मिला और ना ही घर के किसी और सदस्य को नौकरी बल्कि मिली तो धमकी कि अगर कोर्ट या पुलिस के पास गए तो बाक़ियों के भी हाथ काट दिए जाएंगे. वो घर में सबसे बड़ी थी और उससे छोटे पांच भाई-बहन. किसी तरह वो और उसकी अम्मी पड़ोसियों के कपड़ों की सिलाई और लोगों के घर काम कर घर चला रहे थे. नसीमा अच्छा पढ़ती थी, पर घर में पैसे नहीं थे. किसी तरह बारहवीं पास की और घर पर ही ट्यूशन लेने लगी. लेकिन उस मोहल्ले में सारे ग़रीब बच्चे थे, तो आमदनी भी कम होती थी. इसीलिए ज़्यादा पैसा कमाने के लिए उसने ये रास्ता अपनाया. शेख़ की दी हुई रक़म से बड़ा हिस्सा तो कमीने ज़िब्रान ने ले लिया. वो कह रही थी कि,“बड़े दिनों के बाद बिना ईद बक़रीद के मेरे भाई बहनों ने बिरयानी खाई, नए कपड़े पहने. मां की आंखें मेरे लिए नम थीं, पर मुझे इसका कोई अफ़सोस नहीं. शेख़ साहेब मेरे खाविंद ज़रूर हैं पर निकाह के बाद से ही मैं उनकी सेवा में ही लगी हूं. आप उन्हें थोड़ी दिनों और एडमिट रखेंगी तो मेरे घर की ख़ुशियां थोड़े दिनों और बरकरार रहेंगी.”
मैं अवाक् उस निरीह लड़की को देखती रही. मैंने उसकी इच्छा मान ली हालांकि ये मेरे उसूलों के विरुद्ध था. मुझे तो इसका इल्म भी ना था कि छोटी सी लड़की से शादी और फिर तलाक़. इतना बड़ा जुल्म और बकरा ख़ुद तैयार कि उसकी गर्दन काटी जाए. जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे उस लड़की से मेरा लगाव बढ़ता जा रहा था. इधर मैं देख रही थी कि शेख़ का लगाव लड़की की तरफ़ बढ़ता ही जा रहा था. मैंने ग़ौर करने पर पाया कि शेख़ की नज़रें लड़की को बड़े गर्व से देखती थीं. जब भी मैं कमरे में जाती कभी दोनों को चेस खेलते पाती तो कभी लड़की शेख़ को उर्दू तो कभी इंग्लिश पढ़ा रही होती. लड़की की क़िस्मत से निर्धारित डिस्चार्ज के एक दिन पहले शेख़ को डेंगू हो गया. शेख़ को डेंगू से उबरने में तीन हफ़्ते लगे और उसने काफ़ी उर्दू भी सीख ली साथ ही उनके बीच बॉन्डिंग भी बढ़ गई. लड़की जिस तरह शेख़ की सेवा करती लगता मानो कोई बड़ी अनुभवी नर्स हो. उसकी सेवा देख मन में एक ख़याल आया क्यों ना इस बेबस की ज़िंदगी कुछ बदली जाए और तुरंत अंजाम देने की भी ठान ली. दूसरे दिन लड़की को कमरे में बुलाया.
मैं,“ये लड़की तुम्हें नर्सिंग ट्रेनिंग लेनी है, मतलब नर्स बनना है?’’
लड़की,“मेरा नाम लड़की नहीं, नसीमा है. अरे मैम मेरे ऐसे भाग्य कहां?”
मैं,“इसकी चिंता तुम मत करो. मैं ज़िब्रान की मदद से शेख़ को समझाऊंगी.’’
नसीमा,“अरे मैम ज़िब्रान से कुछ मत कहिएगा. वो तो दरिंदा है, हमारे एरिया का दादा. मेरे छोटे-छोटे भाई-बहन हैं, सबकी ज़िंदगी ख़राब कर देगा. अच्छी बातें उसे समझ में नहीं आती हैं. कई शेख़ आते हैं और जाते हैं लेकिन हमारे मोहल्ले में ज़िब्रान का ही हुक्म चलता है.’’
मैंने कहा,“चलो कोई बात नहीं, मुझे तो बस तुम्हारी इच्छा जाननी थी.”
मैंने हॉस्पिटल की पूरी मार्केटिंग टीम को एक नेक बन्दे, जो उर्दू अरबी दोनों जानता हो की खोज में लगा दिया. अगले ही दिन एक शरीफ़ सा युवक जिसका नाम भी शरीफ़ था, मेरे सामने खड़ा कर दिया. मैंने उसे लड़की की समस्या बताई और उसे शेख़ के चंगुल से छुड़ाने की बात कही. मैं अपने सिखाए तरीक़े से उसे शेख़ के पास लेकर गई और उसका परिचय अस्पताल के मार्केटिंग सदस्य के रूप में कराया. शेख़ भी ज़िब्रान की मांगों से तंग आ गया था, उसे शरीफ़ एक अच्छा विकल्प लगा. दो दिनों के बाद जब मैं शेख़ के कमरे में गई तो नसीमा हंसती हुई मिली और शेख़ भी बहुत ख़ुश लगा. जो मैं चाहती थी, वो प्रस्ताव शेख़ की तरफ़ से आया. अपने वतन जाने से पहले ना केवल उसने नसीमा को निकाह के बंधन से आज़ाद कराया बल्कि उसकी पूरी नर्सिंग ट्रेनिंग का ख़र्च ख़ुद उठाने की बात की. आज वही कोविड इंचार्ज बन बेबस मरीज़ों की सेवा कर रही है. लोग तो कोविड को कोढ़ की तरह देख रहे थे. ऐसे समय में नसीमा मेरी रक्षक बन मेरी सेवा में जुट गई. उसने कहा,“ आप आज से कमरा नम्बर 26 नहीं मेरी प्यारी अहिल्या मैम हैं. मैं आपको इस दुनिया से जाने नहीं दूंगी.’’
मेरा ऑक्सीजन सैचुरेशन गिरता जा रहा था, पर मैं आशावान थी कि मेरी नसीमा मुझे बचा लेगी.

Illustrations: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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