लतिका एक लापता लड़की को घर लाती है. वह लापता लड़की धीरे-धीरे लतिका को उस रास्ते पर ले जाती है, जो वह भूल चुकी थी. डॉ संगीता झा की यह कहानी एक लापता लड़की और जीवन की भागदौड़ में लापता हो चुकी दूसरी लड़की की कहानियों को जोड़ती है.
“मैडम जी ये बच्ची लापता है, ले जाइए, यहां-वहां देंगे तो पता नहीं क्या होगा इसके साथ.’’
महिला इंस्पेक्टर ने मुझसे विनती की. बेचारी शायद जानती थी कि किसी मर्द का भरोसा नहीं है. थाने में लड़की देख समाज के रक्षक पुलिस वाले भी भेड़िए बन लार टपकाने लगते हैं. मुझे बहुत दिनों से एक लड़की की खोज थी, जो मुझे दवाई दे दे, मेरे पैरों में क्रीम लगा दे. मुझे चुप देख फिर उसने फिर कहा,“अरे सोच क्या रही हैं? सारी मलूमात की है, कोई डरने की ज़रूरत नहीं. ये लापता है, जितना इसे याद है उस जानकारी के अनुसार इसका रूट ढूंढ़ने की कोशिश की पर सब व्यर्थ.’’
फिर वो लगातार बोले जा रही थी,“आपके पास पहुंचाने के लिए ही पुलिस स्टेशन नहीं ले गई. दो दिनों से इसे अपने घर पर ही रखा है.’’
मैं थी भी तो मैडम लतिका शर्मा समाज सुधारक, कॉलेज की प्रिंसिपल और शहर की जानी मानी फ़ेमिनिस्ट. कितनी औरतों को न्याय दिलाया, कितनी शादियों में दहेज कैंसिल करवाया और दुल्हन ही दहेज का नारा लगाया. उस लड़की की आंखों में अजीब सी कसक थी, एक आत्मविश्वास था. मैंने पूछा,“क्या नाम है तुम्हारा?”
उसने बड़े उत्साह के साथ कहा,“कृतिका, आप मुझे कृति बुला सकती हैं.’’
मैं अवाक् कृतिका तो मेरी छोटी बहन का नाम है. मैंने कहा,“मैं तुम्हें मिली बुलाऊंगी क्योंकि कृतिका तो मेरी छोटी बहन का नाम है, और आज तुम मुझे मिली हो.’’
उसके जवाब ने मुझे हिला ही दिया,“ना आप मुझे कृति ही बुलाएं. अपनी बहन का नाम बदल कर मिली कर दें.’’
“तुम समझती क्या हो अपने आप को? ये कोई मैडम जी से बात करने का तरीक़ा है?’’ महिला इंस्पेक्टर गुर्राई.
स्त्री स्वाभिमान की रक्षक मैं थोड़े देर चुप रही और फिर मैंने कहा,“अरे कोई बात नहीं, तुम कृति ही रहोगी. मैं तो वैसे भी अपनी बहन को चिन्नी बुलाती हूं.’’
वो ज़ोर के उछली,“ये…देखा…’’
महिला थानेदार चुप. पता नहीं उसे अपने मां बाप या घर का पता याद था या नहीं, मैं उसे घर ले आई. मेरे घर के बाहर तख़्ती लगी थी,‘अशोक शर्मा-हाई कोर्ट एडवोकेट’
फिर वो चिल्लाई,“तभी तो! आप एडवोकेट हैं ना, इसीलिए न्याय करती हैं और मुझे ले आईं.”
मैंने आश्चर्य से उसे देखते हुए कहा,“मेरा नाम तुम्हें अशोक लगता है? ये तो मर्दों का नाम है.’’
उसने मेरी बात काटते हुए कहा,“आप मर्दों की तरह हिम्मती हैं और क़द काठी भी क़रीब-क़रीब वैसी ही है.’’
मैंने ग़ुस्से से कहा,“कितनी बातें करती हो वो भी उजुल फ़ुज़ूल. किसने सिखाई ये बातें?”
उसने जो बताया उसे सुन मैं सन्न रह गई,“मेरी अम्मा कहती थीं मर्दों को हट्टा कट्टा रहना चाहिए तभी वो मलाई माखन दूध मेरे भाइयों को देती थीं और बचा खुचा मैं और मां खाते थे.’’
मैंने उसे बताया,“यहां हमारे पास ऐसी कोई बात नहीं है. मैं और मेरे पति बराबरी से रहते हैं. मैं तो बेटी को तरसती हूं. मेरे दो बेटे हैं, दोनों बाहर हैं अमेरिका में.”
वो फिर हंसी,“बराबरी! फिर घर पर सिर्फ़ आपके पति के नाम की तख़्ती क्यों? आपका नाम क्यों नहीं? थाने में सब आपको मैडम मैडम कह रहे थे.’’
उसकी बातों ने मुझे गहराई से सोचने पर मजबूर कर दिया. कभी ये बात मेरे दिमाग़ में आई ही नहीं, पर ऐसा भी नहीं था कि अशोक ने मुझे कभी याद दिलाया हो कि मैं अपने नाम की तख़्ती भी टांग दूं. मां मां करते दो बेटे भी थे मेरे, उनको भी नहीं लगा कि जिस घर को मां बरसों से सजा रही है वो तो उसका है ही नहीं.
मैंने तुरंत जस्ट डायल में फ़ोन कर नेमप्लेट बनाने वालों का पता लगाया और तुरंत गेट पर अपने नाम की तख़्ती लगवाई. कृतिका बड़ी प्यारी लड़की थी, बड़ी होशियार और निडर भी. उसने मेरे छोटे बड़े काम भी हाथ में ले लिए. उसे इंगलिश भी पढ़ना आता था. उसे अपने माता-पिता का नाम याद नहीं था, लेकिन उसने बताया कि वो शायद बचपन में गुम गई थी. उसे एक परिवार वालों ने अपने यहां बंधुआ मज़दूर की तरह रखा था, वहीं उनके बच्चों से उसने इंगलिश पढ़ना और लिखना सीखा. मुझे बड़ा अच्छा लगा और मैंने भी उसके पढ़ने की व्यवस्था कर दी. किताबें मंगवाई और बीच में समय निकाल वो आउट हाउस में रहने वाली मेरी मेड के बच्चों से सीख लेती.
एक दिन सुबह वो मेरे पैरों में तेल लगा रही थी तो मेरी कुक ने पूछा,“मेम साब आज क्या बनेगा?”
मैंने कहा,‘‘भरवां बैंगन और कढ़ी.’’
ये तुरंत चिल्लायी,“वो तो आपको कढ़ी पसंद है. मुझे बिलकुल नहीं.”
मैंने जवाब दिया,“ओह सेम पिंच. मुझे प्लेन दही पसंद है, लेकिन शर्मा जी को कढ़ी दाल से भी ज़्यादा पसंद है.’’
उसने फिर मुंह बनाया,“अंकल को पसंद है! अपनी भी पसंद का ख़्याल किया करो.’’
उसके ठीक अगले दिन उसने जल्दी-जल्दी मेरे पैर में तेल लगाया, ब्लड प्रेशर लिया, दवाई दी और ग़ायब हो गई. कॉलेज में लंच टाइम में अपना टिफ़िन खोला तो मैं लगभग रोने लगी, क्योंकि टिफ़िन में था मिस्सी रोटी, बैंगन का भरता, जिमीकंद का सना और छोटे-छोटे कटे प्याज़, खीरा और टमाटर का सलाद. अचानक अपनी अम्मा की याद आ गई और सलाद और भरते में डले कच्चे सरसों के तेल ने मुझे तो कुछ देर के लिए मायके ही पहुंचा दिया. विंडम्बना ये थी कि वहां अब अम्मा के बाद भाभी मालकिन थीं ,जिन्हें सरसों के तेल से बू आती थी.
आंखों के सामने पूरा बचपन झूल गया. ठंड के दिनों में बाबूजी रोज़ सबेरे हमारे उठने के पहले ही हमारे दोनों नथुनों में सरसों तेल अपनी उंगली से लगा देते. ये उनका हमें उठाने का एक तरीक़ा भी था क्योंकि ठंड के दिनों में नींद भी नहीं खुलती थी और नथुनों में घुसा सरसों का तेल सर्दी से बचाता भी था. हर सब्ज़ी ज्यादातर सरसों के तेल या शुद्ध घी में बनती थी. पता नहीं बाबूजी के किसी दोस्त ने उन्हे बता दिया था कि मूंगफली का तेल हार्ट की नसों को ब्लॉक करता है जो कि सरासर ग़लत है अब पता चला. उन दिनों इंटरनेट और गूगल ज्ञान की सुविधा भी नहीं थी कि हम बच्चे पता भी कर पाते. हमारे ज्ञान का स्त्रोत थी हमारी किताबें और अख़बार में आने वाला कलाम ‘क्या आप जानते हैं’. आज का ज़माना होता तो लड़ भी लेते. मेरे दोनों बेटों के साथ हमेशा उनके गूगल बाबा रहते थे. मुझे पहले किसी ने भी इतना ख़ुश नहीं देखा था, ऊपर से नीचे तक अम्मा बाबूजी और सारा बचपन मेरे चेहरे से झलक रहा था. काश अम्मा आज ज़िंदा होतीं तो देखती उनकी लाली कितनी ख़ुश है. मैं बचपन से ही ज़रूरत से ज़्यादा समझदार थी. चेहरे पर हंसी ख़ुशी कम ही दिखती, इसीलिए तो बाद में मैडम लतिका शर्मा बन गई. अकेले ही प्रिंसिपल रूम में आइने के सामने अपने जूड़े को खोला और अपनी लटों को उंगलियों से उलझाया. ऐसा शायद मैं बचपन में करती थी और आज…
घर पहुंच कर भी मैं गुनगुना रही थी ‘रात कली एक ख़्वाब में आई और गले का हार हुई.’ वो दौड़ कर मेरे पास आई और कहा,“एक मिनिट.’’अपना फ़ोन ले मेरे जाने बिना छोटी-सी क्लिपिंग रिकॉर्ड की. शाम को अचानक छोटे बेटे का फ़ोन आया,“अरे मॉम आप तो सुपर मॉम हो, क्या गाती हो. कहां थी अब तक? आपके गाने को यू ट्यूब में डाला ,दो ही घंटे में दस हज़ार लाइक्स. मुझे और रिकॉर्ड करके भेजो.’’
मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि बेटों के कई दोस्तों के एक के बाद एक मैसेजेस आने शुरू हो गए और सब का यही कहना था कि आंटी यू आर ग्रेट. उस दिन एक साथ दो दो ख़ुशियां, पहले सालों बाद बचपन का खाना और फिर छुपी हुई प्रतिभा की सराहना. पति तो हमेशा मुझे अपना प्रतिस्पर्धी समझते थे. बोलते कुछ नहीं थे पर मन में ज़रूर ये भावना थी कि मर्द स्त्री का स्वामी है, उन्होंने मेरी ख़ुशी को अनदेखा किया. कृति तो बड़ी निडर थी उसने पति से कहा,“सर रोज़ मैडम आपकी पसंद का खाना बनवाती हैं, आज आप भी इनकी पसंद का खाना खा कर देखिए.’’
घर की कुक लक्ष्मी ने आंखों से इशारा कर मना भी किया. वक़ील साहेब का तो ग़ुस्सा फूट पड़ा,“मैं और ये सब सरसों तेल का खाना? मालिश के तेल से बना खाना कौन खाता है? मेरे लिए सिर्फ़ सैंडविच ही बना दो.”
मुझे पहली बार इस चीज़ का एहसास हुआ कि मैं हमेशा दूसरों की लड़ाई लड़ती रही और घर पर ये है मेरा हाल. मैं सोच ही रही थी कि मेरी देवरानी का फ़ोन आया. उन्हें अपने बेटे की पढ़ाई के लिए पैसों की ज़रूरत थी और ख़ानदानी घर बेचने के लिए फ़ोन किया था. फ़ोन ख़त्म भी नहीं हुआ कृति ने पूछा,“किसका फ़ोन था?”
“मेरी देवरानी का “मैंने उत्तर दिया. तो वो कहने लगी आपके ये रिश्ते मैं समझ ही नहीं पाती, कभी देवर, कभी देवरानी, कभी ननद, कभी साहेब के चचेरे भाई. मैंने आपको कभी किसी सहेली को फ़ोन करते नहीं देखा. स्कूल कॉलेज में नहीं थी क्या आपकी कोई दोस्त?”
मैं चुप रह गई. सचमुच दूसरों की दुनिया बनाते-बनाते अपना क्या-क्या पीछे छूट गया. रात को बैठ, एक कागज पर पुरानी दोस्तों के नाम लिखे-मंजु, मीना, रेणु, अरुणा और मधु. हम छः लोगों का एक ग्रुप था. साथ जीने मरने की कसमें खाते थे, कभी ना सोचा था कि कभी एक दूसरे को भूल भी पाएंगे. मेरी छोटी बहन का नंबर मेरे फ़ोन पर था, उसे फ़ोन किया और सभी सहेलियों के बारे में बताया और उनके नम्बर मांगा. सबके नंबर मिल जाने पर हम सबका एक ग्रुप बनाया और नाम रखा,‘हम साथ साथ हैं.’
जब एक के बाद सभी के फ़ोन आए तब मेरा एक नया जीवन ही प्रारंभ हो गया. अब समझ आ रहा था कि अपनों के साथ जीना क्या जीना होता है. हम सबने मिल कर मनाली जाने की सोची. जब पति को पता चला ग़ुस्से से पूछा,“कहां जा रही हो? किसके साथ जा रही हो?’’
मैंने धीरे से जवाब दिया,“ना एक साथ नहीं, धीरे-धीरे कर प्रश्न पूछो. तुम्हारे पहले प्रश्न जवाब मनाली और दूसरे का जवाब बचपन की सखियों के साथ.’’
पति चिल्लाए,“पागल तो नहीं हो गई हो?”
मैंने भी उसी तरह जवाब दिया,“पागल थी, अब ठीक हो गई हूं.’’
पति ने कृति को ही दोषी ठहराया मेरे इस बदले रूप के लिए. उन्होंने बड़े बेटे से शिकायत की तो जवाब मिला,“वंडरफ़ुल मॉम ने बड़ी देर कर दी, ये तो उन्हें पहले ही कर देना था. आप भी जाते हैं अपने दोस्तों के साथ. आप तो हमारे बचपन में भी अपनी प्रैक्टिस और दोस्तों में ही व्यस्त रहते थे. वो तो मॉम ने सिंगल हैंडेड हम लोगों की परवरिश की. याद है हम लोगों के यूरोप वीसा के लिए आपने हमसे पूछा था कि हम किस क्लास में हैं. इनफ़ेक्ट आई एम वेरी हैप्पी फ़ॉर मॉम.’’
मैं तो मानो फिर से बचपन की लतिका बन गई थी. सारी सहेलियां मिलने पर हमारा तितलियों का एक झुंड सा बन गया था.
जैसे तितलियां नहीं जानतीं कि उनके पंखों का रंग कितना चटक, या कितना धूसर है, चिड़ियां नहीं जानतीं कि उनके चहकने से किसकी उदासी दूर हो रही है, कौन-सा सन्नाटा दरक रहा है. सर्द हवाएं नहीं जानतीं कि वे किसकी खिड़की खड़खड़ा रही हैं, किसके मन में कैसी सिरहन पैदा कर रही हैं. हम सब बस एक साथ थीं और अपने होने में पूरे रस-गंध, उसके सुख-दुख के साथ खपी, अपने प्रभाव से अंजान, अपने समय में धीरे-धीरे घुल रही थीं. उन दस दिनों में हम सब की दुनिया पूरी तरह से बदल चुकी थी.
हमने जाना कि एक तरफ़ हमारी माटी इतनी गीली थी कि उसे छू देने भर से स्वरूप बदल सकता था और दूसरी तरफ़ हम सब अपने जीवन के अनुभव में इतनी पकी थीं कि हमारा मिलना एक उत्सव-सा हो गया.
हममें से कईयों में इच्छाओं के ऐसे असंख्य बीज थे जो मिट्टी, खाद-पानी को तलाशते-तलाशते, अंकुरित होने की चाह में, ऐसे मोतियों में बदल गए थे जो चमक तो सकते थे लेकिन अंकुरित नहीं हो सकते थे.
…हम सबने मिलकर एक दूसरे को खोला, एक दूसरे की उंगली पकड़कर साथ-साथ चले, हंसे-रोए, सुबके और फिर अंत में थककर कांधे पे सिर रखकर सोए और फिर सब मिलकर बचपन के साझा सपने में उतर गए.
जहां अतीत में लौटकर यथार्थ को थोड़ा उल्टा-पल्टा जा सके..
…जो छूट गया है वो सिरा फिर से पकड़ा जा सके…
…जो जीने से रह गया, उसे फिर से जिया जा सके…
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