आप इसे इनमें से किसी भी नाम से जान सकते हैं: परमल या कुरमुरा या फिर मुरमुरा. पर मेरा सवाल ये है कि इसके बारे में सोचते हुए आपके दिमाग़ में क्या क्या आता है? सोचिए, सोचिए… चटपटी भेल या कलकतिया झालमुड़ी? मीठे परमल या परमल के लड्डू? छुईमुई सी परमल की गुड़पट्टी या सीधी सादी सेंव परमल? मुझे तो सब कुछ याद आता है, क्योंकि ये छोटी सी दिखने वाली चीज़ हमारी ज़िंदगियों में किस हद तक शामिल है ये बात तो वो ही लोग जानते हैं, जो परमल के मुरीद रहे हैं. तो चलिए, आज परमल की कहानी जान लेते हैं…
परमल की ख़ास बात ये है कि अलग अलग लोग इसे अलग अलग समय का साथी मानते रहे हैं. ये छोटी छोटी भूख बाय बाय और दो मिनिट नूडल वाले कॉन्सेप्ट तो बहुत बाद में आए हैं. भारत में बरसों से लोग परमल-सेव, भेल या झालमुड़ी खाकर अपनी छोटी छोटी भूख मिटाते रहे हैं.
बच्चों के लिए डब्बाबंद राइस क्रिस्प तो बाद में आए, पर हमारे यहां छोटे छोटे बच्चों के लिए परमल हमेशा ही फ़ेवरेट स्नैक रहा है- पहले मुट्ठी में भरकर परमल फेंक देना और फिर बीन बीन कर खा लेना. खेल का खेल भी और खाने का खाना भी!
कहानी परमल की: परमल की कहानी बड़ी रोचक है, जैसे अमेरिका अचानक खोज लिया गया था वैसे ही परमल का आविष्कार हो गया था. मतलब ये कुछ ऐसा है कि जाना था जापान पहुंच गए चीन समझ गए ना…
तो कहानी ये है कि वर्ष 1901 में एक वैज्ञानिक ऐलेग्ज़ेंडर ऐंडरसन अपनी प्रयोगशाला में स्टार्चग्रेन यानी कि हमारे चावल को बड़ी सी बंद परखनली में गर्म कर रहे थे. किसी स्पेशल रिऐक्शन की उम्मीद में उन्होंने चावल के भूरा होने पर परखनली को फोड़ दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि इससे एक तरह की भाप निकलेगी पर इस रिऐक्शन से बने पफ़्ड राइस, जिन्हें उस समय शॉट से निकला खाना नाम दिया गया. कितना मजेदार है ना? नाम क्यों ही सोचा जाए जो हुआ वही पूरा बोल दो. हालांकि इससे पहले भी चीन और कुछ अन्य देशों में अलग ढंग के पफ़्ड राइस प्रचलन में थे.
भारत की परमल: भारत में मुरमुरा या परमल का उल्लेख पुराने संस्कृत ग्रंथों में लाजा के नाम से मिलता है. उस समय भारतीय लोग इस परमल को शहद के साथ खाते थे, जिसे मधुलाजा कहा जाता था. इसका महत्व सिर्फ़ खाने में नहीं था, बल्कि घर में होने वाले पूजा पाठ और उत्सव में भी इसका बड़ा महत्त्व था. शादियों में हवन में लाजा की आहुति का भी उल्लेख मिलता है, जिसे लाजाहोम कहा जाता था. कालिदास ने अपने ग्रन्थ में शिव-पार्वती के विवाह के हवन में भी लाजा के प्रयोग का उल्लेख किया है. इससे यह माना जा सकता है कि भारत में परमल का प्रचलन आदिकाल से रहा होगा.
कैसे बनाया जाता है इसे: आप लोगों ने कभी कभी लोगों को ग़ुस्से में कहते हुए सुना होगा “भाड़ में जाओ” या भाड़ में झोंक दो… है ना? अब आप सोच रहे होंगे परमल का यहां क्या कनेक्शन? तो बात ये है कि परमल इसी भाड़ यानी भड़भूंजे (भाड़ में कुछ भूंजने वाले भड़भूंजे कहे जाते हैं) की भट्टी में बनाई जाती है. ये भट्टी आम भट्टी से थोड़ी अलग होती है. ये एक तरह का बड़ा मिटटी का मटका होता है, जिसमें रेत भरकर उसे आग पर गर्म किया जाता है और उसमें चावल डाले जाते हैं. फिर मटके पर ढक्कन लगा दिया जाता है. मटके के अन्दर तेज़ गर्मी से चावल फूलने लगते हैं और फूले हुए चावल, जो परमल बन चुके होते हैं, वो मटके में ऊपर की तरफ़ आ जाते हैं. एक विशेष तरह की चलनी से परमल से रेत को अलग कर दिया जाता है और परमल तैयार हो जाता है.आपने अगर भाड़ नहीं भी देखे हों तो मॉल में पॉपकॉर्न बनाने की मशीन तो देखी ही होगी, परमल भी कुछ उसी तरह से बनाए जाते हैं.
क़िस्से परमल वाले: परमल के क़िस्से क्या ही कहे जाएं, सबकी इनके साथ अपनी यादें जुड़ी होती हैं. गर्मी का मौसम है और मालवा के लोग सेंव-परमल, कच्चा प्याज़ और साथ में कच्ची कैरी याद न करें, ऐसा हो ही नहीं सकता. ये हमारे लिए ऑल टाइम फ़ेवरेट स्नैक्स हुआ करता है. गर्मियों की छुट्टियों में देर रात तक चंगा-अष्टा, लूडो, सांप-सीढ़ी खेलना और फिर भूख लगने पर सेंव परमल खाना या फिर दोपहर में पिकनिक पर जाना और साथ में सेंव ले जाना. शाम की छोटी छोटी भूख मिटाना हो या भेल पूरी बनाकर चाट का मज़ा लेना हो, परमल ने हमेशा साथ दिया है. आज भी आधी रात को जब अचानक भूख लगती है तो हाथ बिस्किट या चॉकलेट की तरफ़ नहीं जाते, ना ही केक या पेस्ट्री ढूंढ़ी जाती है, सबसे पहले सेंव-परमल की ही याद आती है. ये बात केवल स्वाद से ही जुड़ी नहीं है, बल्कि स्वास्थ्य से भी जुड़ी है, क्योंकि इसमें न तेल होता है, न तीखे मसाले और ना ही ट्रांसफ़ैट. परमल लोकप्रिय भी तो इसीलिए है कि यह हल्का-फुल्का और सुपाच्य है.
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