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Home ज़रूर पढ़ें

शुकराना: डॉ संगीता झा की कहानी

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
July 24, 2023
in ज़रूर पढ़ें, नई कहानियां, बुक क्लब
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Dr-Sangeeta-Jha_Kahani
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अगर आप ख़ुश रहना चाहो तो ख़ुशियां बहुत सस्ती हैं. कई बार जिन चीज़ों को हम मामूली समझते हैं, जिनका मूल्य हमारे लिए बहुत ज़्यादा नहीं होता, वो किसी के लिए बहुमूल्य होती हैं. डॉ संगीता झा छोटी-छोटी बातों में बड़ी-बड़ी ख़ुशियों वाली कहानी ले आई हैं.

‘आपी आप तो मेरे लिए ख़ुदा की भेजी एक नेमत हैं. रोज़ मैं आपके लिए भी शुकराने की नमाज़ पढ़ता हूं. आपने मुझे मेरे इंसान होने का एहसास कराया है. वरना तो सारी दुनिया के लिए गैसवाला ही हूं. अपना नाम जावेद तो मैं कब का भूल चुका था. घर में बच्चे ‘अब्बा’, बीबी, ‘एजी’ और गांव जाने पर अम्मा बेटी बहन ‘भाईजान’ और भांजी ‘मामू’ कह कर पुकारते हैं. एक आप ही हैं जो मुझे प्यार से जावेद कह पुकारती हैं. आपका जितना शुक्रिया अदा करूं उतना कम है.’
वो बोलता जा रहा था और मैं चुपचाप सुनती जा रही थी . इतना शुकराना मेरे छोटे से काम का. मेरा और जावेद का क़रीब तीन सालों का परिचय था. हम इस अपने इस नए घर में तीन सालों पहले ही शिफ्ट हुए थे. नया इटालियन मार्बल फ़र्श पर जिसमें मैं अपना चेहरा भी देख सकती थी. हर वक़्त डर सताए रहता कि इसपर कोई निशान ना पड़ जाए. पति देहली यूनिवर्सिटी से थे तो घर पर कम्युनिज़्म का बोलबाला था यानी सब बराबर हैं और हमारे मुलाजिम नौकर नहीं हमारे हेल्पर हैं और उनसे बराबरी का सुलूक करना ही हमारा धर्म है. मैं एक कॉलेज में केमिस्ट्री पढ़ाती थी और पति का कहना कि मैंने यह प्रगति यह आत्मनिर्भरता एक दूसरी औरत की पीठ पर अपना पांव रख कर ही पाई है यानी हमारी केयर टेकर ललिता ना होती तो मैं कभी भी इतनी बेफ़िक्र ना होती. इससे हमारे घर पर बरतन भी सबके एक ही थे.
इस घर जिस दिन आए उसी दिन इस गैस वाले से पाला पड़ा. उसने कॉल बेल दवाई और तुरंत उस कॉल बेल का जवाब देते हुए मैंने पूछा,‘कौन?’
वहां से जवाब आया,‘गैस वाला’
मैंने तुरंत दरवाज़ा खोलते हुए फिर कहा,‘अरे यह गैस वाला क्या होता है? नाम तो होगा कुछ…’
उसने भी उसी तरह जवाब दिया,‘मां बाप का दिया नाम तो है पर यहां आज तक किसी ने मेरा नाम नहीं पूछा. सब गैसवाला कह कर ही पुकारते हैं.’
मैंने बड़े प्यार से कहा,‘अरे नहीं नाम बताओ और अन्दर तो आओ.’
इतने अपनेपन से ही वो इतना खुश हो गया कि गैस का सिलिंडर उसने अपने कंधे पर उठा कर रसोईघर तक ले कर आया. मेरे मार्बल पर कोई खरोंच नहीं आयी. चूल्हे से सिलिंडर का कनेक्शन होने के बाद मैंने उसे गैस सिलेंडर के दाम के साथ सौ रुपए की बख़्शीश दी. उसने मुझे सौ का नोट वापस करने की कोशिश करते हुए कहा,‘अरे मैम आपने यह सौ का नोट ज़्यादा दे दिया .’
मैंने उतने ही प्यार से कहा,‘ज़्यादा नहीं यह तुम्हारे लिए है.’
वो मुझे एकटक देखता रहा और उसकी आंखों में पानी आ गया, कहने लगा,“आप जैसे लोग बहुत कम रह गए हैं ऊपर वाले की बनाई कायनात में. मेरा नाम जावेद है. मेरा नंबर लिख लीजिए मैम, अब मुझे ही डायरेक्ट फ़ोन कीजिएगा. तुरंत बंदा गैस ले हाज़िर हो जाएगा. अच्छा चलता हूं. अल्लाह हाफ़ीज़.’
यह हमारी पहली मुलाक़ात थी और उसके बाद हर महीने मेरे फ़ोन करने पर उसका गैस ले कर पहुंचना, मेरा उसे सौ रुपए देना फिर उसका शुकराना. यह सिलसिला चलता रहा. मेरा सौ रुपए देना मेरा स्वार्थ था, एक तो तुरंत गैस और दूसरा अपने मार्बल की रक्षा, जिसे वो बेचारा मेरी दरियादिली समझ रहा था.
वो एक बार भरी दोपहरी में गैस सिलिंडर कंधे पर लाद अन्दर आया और उसने मुझसे फ्रिज का ठंडा पानी मांगा. मैंने उसे एक चेयर पर बैठने कह पानी के बदले कांच की ग्लास में ठंडा नीबू का शरबत दिया. वो बेचारा फिर शुरू हो गया,‘आप सचमुच इस दुनिया की नहीं हैं. ऐसा चमचमाता ग्लास तो अपुन सपने में भी नई देख. था. एक तो मुसलमान, दूसरा ग़रीब ये शरबत गिरबत तो छोड़िए कोई पास बैठाता तक नहीं था. ’
फिर सौ रुपए ले शुक्रिया-शुक्रिया कहते हुए गया. मेरे बेटे को मेरा जावेद को इतना प्यार देना नागवार गुज़रता था. कहता,‘आप भी ना सिर्फ़ कहने की प्रोफेसर हो और दोस्त पाले हो दूध वाला, गैस वाला, धोबी और ना जाने कौन-कौन.’
इस तरह गैस और शुकराने का सिलसिला चल रहा था.
***
वो एक बारिश की रात थी बत्ती भी गुल हो गई. हम सब इन्वर्टर के सहारे एक ही जगह बैठे थे. बाहर इतना अंधेरा था कि निकलना ही नामुमकिन था. टाटा स्काई और नेट कनेक्शन दोनों ही ग़ायब हो गए थे, जिससे ना तो हम टीवी देख सकते थे और ना ही बेटा फ़ोन पर गेम खेल सकता था. अचानक पति को ख़्याल आया कि इसके पहले की इन्वर्टर बंद हो जाए क्यों ना गरम गरम पकौड़े बनाए जाएं और साथ में बारिश का लुत्फ़ उठाया जाए. फ्रिज में सुबह की बनी पुदीने की चटनी थी ही सिर्फ़ प्याज़ काट बेसन फेंटना ही था. मैं तुरंत राज़ी हो गई. बड़े उत्साह के साथ रसोई घर में पहुंचने पर पाया कि एक अजीब सी गंध आ रही है. तुरंत पति देव को आवाज लगाई, वो बेचारे दौड़ते हुए आए गंध से समझ में आ गया कि गैस लीक हो रही थी. गैस चूल्हे का नॉब बंद था और सिलिंडर का बंद नहीं कर पाए. किसी तरह बाहर आ रसोई घर का दरवाज़ा बंद किया.
तभी इन्वर्टर भी बंद हो गया. समझ ही नहीं आ रहा था क्या करूं? रात के ग्यारह बज चुके थे. इस तरह गैस का रिसना प्राणघातक था. बेटे ने टोंट किया,‘बुलाओ ना अपने उस गैस वाले को, करेगा कुछ वो आकर.’
मैंने डांट लगाते हुए कहा,‘इतनी रात को! आर यू मैड?’
बेटे ने तपाक से उत्तर दिया,‘इट्स एन इमरजेंसी. उसी समय तो पता चलता है कि उसका शुकराना कितना सच्चा है कि ख़ाली होंठ घूमता है.’
मैंने फ़ोन घुमाया, पहली ही रिंग पर उसने फ़ोन उठाया और कारण जानते ही तुरंत दौड़ता हुआ आया. उसने मुझे फ़ोन पर ही ताकीद दी कि मैं रसोई घर बंद कर दूं और हम सब वहां से दूर रहें.
जैसे ही जावेद घर पर आया साथ रौशनी ले आया लेकिन गैस की दुर्गंध तो फैली हुई थी. बिजली वापस आने से हम ख़ुश तो बहुत हुए वहीं बेटा उदास कि मैं कहीं माइक्रोवेव में मैगी बना उसका पिज्ज़ा मंगाने का प्लान ध्वस्त ना कर दूं. अब तो गैस वाले जावेद को देख उसकी उदासी गुस्से में बदल गई और बेटा अंकुश बड़बड़ाने लगा,‘साले को लगता है कोई काम नहीं है. दौड़ता दौड़ता आ गया अब तो और इनका जान से प्यारा बन जाएगा.’
अपने नथुने फड़फड़ाता अंकुश अपने कमरे में चला गया.
जावेद ने घर में घुसते ही मुझे और पति देव को अंदर कमरे में जाने को कहा. पति देव अंदर तो आए पर मेरा मज़ाक उड़ाते हुए कहने लगे,‘अच्छे से जानती हो ना इसको? कहीं ऐसा तो नहीं अब रसोई घर से चाकू ला हमारी गर्दन पर रख सब लूट ले. महारानी आपकी तिजोरी भी इसी कमरे में है.’
उस बेचारे जावेद ने मुंह पर रूमाल बांध लिया और रसोई घर की लाइट ऑफ़ कर अपने मोबाइल की लाइट से ही पाने और स्क्रू की मदद से किसी तरह सिलिंडर का नॉब लगाया. सारी खिड़कियां खोल दी और पूरी गैस बाहर जाने दी. मैंने बाहर आ कर देख. इस मशक़्क़त में उसका चेहरा पूरा लाल हो गया था और वो बुरी तरह से खांस रहा था. मैं दौड़ कर उसके पास गई और मैं उसकी पीठ थपथपाने लगी. उसने मुझे बड़े स्नेह से देखा लेकिन तुरंत भाग कर घर के बाहर चला गया. बेचारा… बाहर बड़ी ज़ोर से उल्टियां कर रहा था जिसकी आवाज़ घर तक आ रही थी. मैं फिर दौड़ एक जग पानी ले बाहर तक गई. उसने अपना मुंह धोया फिर बाल्टी में पानी मांग पूरा बरामदा साफ़ किया. इसी बीच अंकुश वहां आ रही उल्टी की बदबू को दूर करने के लिए रूम फ्रेशनर डाल कर चला गया. मैं जावेद को हाथ पकड़ कर अंदर लाई. उसे कुर्सी में बिठा पहले उल्टी बंद होने की दवाई दी फिर फ्रेश नीबू का जूस बना पिलाया. पति और बेटे को मेरी यह हरकत बड़ी नागवार गुजर रही थी.
बेचारा जावेद पूरे समय मुझे बड़े प्यार और सम्मान से देख रहा था. जाते समय मैंने उसे इस बार सौ की जगह पांच सौ का नोट पकड़ाया. वो तो बेचारा शुक्रिया शुक्रिया कहता रहा, लेकिन बेटा अंकुश अपने नथुने फड़काने लगा. बेटे का गुस्सा देख मैंने उसे दूसरा पांच सौ का नोट दे ख़ुद के लिए पिज़्ज़ा मंगवाने के लिए कहा. बेटा तो अभी भी नाखुश था कि अगर दूसरा पांच सौ का नोट भी उसके हाथ होता तो वो एक और पैपी पनीर पीज़ा मंगा लेता.
पति को भी मेरा जावेद को पांच सौ देना नागवार गुज़रा उनका कहना था,‘टू हंड्रेड वुड हैव बीन बेटर फाइव.. हंड्रेड टू मच. तुम भी ना ….अरे यार यह तो काम है इनका. गैस सप्लायर को फ़ोन करती तो उनका बंदा फ्री में कर के जाता. ख़ैर तुम्हारी मर्जी.’
मैंने भी उतने आश्चर्य से कहा,‘गैस सप्लायर.. साढ़े ग्यारह बजे रात को? सुबह तक तो एकाध जन टपक ही जाता. तुम क्या समझोगे? ख़ैर…’
दूसरे दिन सुबह आकर उसने ना केवल सिलिंडर बदला बल्कि पाइप भी बिना कुछ पैसे लिए चेंज कर दिया.
मैं नहा रही थी इससे हमारे बीच कोई लेन देन नहीं हुआ ना पैसों का और ना ही शुकराने का. एक महीना गुज़र गया और बात आई गई हो गई. एक महीने बाद जब गैस की ज़रूरत पड़ी तो मैंने जावेद को फ़ोन लगाया. वो चहक कर बोला,“बस आपा थोड़ी देर में आता हूं. परेशान ना हों.’
मैं हैरान अचानक मैडम जी से आपा बनने पर. लेकिन अच्छा लगा उसके मुंह से आपा सुनकर. ठीक आधे घंटे बाद जावेद हाज़िर था. इस बार उसके अन्दाज़ बदले-बदले से थे. वो कुछ गुनगुना रहा था और उसके चेहरे पर एक अजब सी चमक थी . मुझे उसका चहकना गुनगुनाना बड़ा अच्छा लगा. मेरा भी मन किया पूछू उसके इस चहकने का राज़. सो पूछ लिया,‘अरे जावेद कैसे हो? क्यों इतना चहक रहे हो?’
वो एकटक मेरी तरफ़ देखने लगा और कहता है,‘मेरे चेहरे पर ख़ुशी लाने वाली पूछ रही हैं मेरी इस ख़ुशी का राज़.’
मैंने आश्चर्य से कहा,“मैं?’
वो कहता है,‘हां आप आपी आप ही तो वो शख़्स हैं जिसने कम से कम एक महीने के लिए मेरी ज़िंदगी पूरी तरह से बदल दी.’
मैं भी अब उसे और उसमे आए परिवर्तन को ध्यान से देख रही थी. कहां पहले मैं मैडम जी फिर आपा और अब आपी. प्यार का कोई स्तर नहीं होता. उसका आपी संबोधित करना मेरे दिल को छू गया. वो लगातार बोलते जा रहा था और मैं मंत्र मुग्ध सी सुनती जा रही थी.
वो कहने लगा,‘आपके उस दिन दिए पांच सौ रुपयों ने तो जैसे मेरे जीवन में बहार ही ला दी.’
मैं तो जैसे ऊपर से नीचे गिरी पांच सौ रुपयों से किसी की जि़ंदगी इतनी बदल सकती है कि वो गुनगुनाए. मुझे तो उन पांच सौ में बेटे का दस टुकड़ों वाला पिज्ज़ा दिख रहा था जिसे अंकुश मुश्किल से दस मिनट में चट कर गया फिर भी दो दिनों तक जावेद की जेब में पहुंचे पांच सौ रुपयों के लिए नथुने फुलाए हुए था. मैंने आश्चर्य से पूछा,‘लाटरी लग गई क्या?’
वो कहने लगा,‘हां पांच सौ रुपए ग़रीब के लिए लॉटरी ही है आपी. पहली बार जेब में मेरे अपने पांच सौ रुपए थे जिसका हिसाब मुझे किसी को भी देने की ज़रूरत नहीं थी. तनख़्वाह तो पहली तारीख़ को ख़त्म. किसी तरह बीबी खींचतान कर महीना चलाती थी. आप जैसे लोगों से मिली बख़्शीश से कभी बच्चों के स्कूल के जूते तो कभी दूसरी ज़रूरत में लग जाते थे. इस बार इन पांच सौ रुपए मेरी आशा से बहुत ज्यादा थे. दूसरे ही दिन मैं पहली बार ख़ूद से बस का किराया दे अपने गांव मां से मिलने गया. आने जाने का मिलाकर पचास रुपए लगे. मेरी ठसन देख बस का कंडक्टर भी हैरान था वरना जब भी जाता कभी ट्रक वाले से नहीं तो बस वाले से मिन्नतें कर बिना टिकिट सामान के साथ छत पर बैठ कर जाता. मां मुझे अचानक आया देख बड़ी ख़ुश हो गई. उन्हें ले पास में रहने वाले उनके भाई यानी मेरे मामू से मिलने चला गया. उनके लिए भी गांव के मेले थोड़े से फल ले लिए. मुझसे मिल उनके चेहरे पर चमक आ गई. इसमें मेरे पचास रुपए ख़र्च हुए. पास के
गांव से मेरे आने की ख़बर सुन मेरी बहन और भांजी मुझसे मिलने आए. उसी मेले से भांजी को आंख झपकाने वाली गुड़िया और बहन को चुनरी ले कर दी. हमारे गांव में सब कुछ बहुत सस्ता मिलता है आपी. इसमें मेरे मात्र पचास रुपए लगे. मां के हाथो में मैंने पहली बार… पहली बार सौ रुपए पकड़ाए. वो तो बस रोने लगी. इतनी ख़ुशी मैंने सालों बाद मां की आंखो में देखी. घर वापस आने के बाद बेटी को भी मैंने एक पेंसिल बॉक्स और मोज़ा दिलाया जिसकी जिद वो बहुत दिनों से कर रही थी. आपी अभी भी दो सौ रुपए बचे हुए हैं. सोच रहा हूं अगले महीने बीबी का जन्मदिन है, सो उसे भी बाहर ले जाऊंगा. इतना संतोष सालों बाद सिर्फ़-सिर्फ़ आपकी वजह से.’
मेरा तो सर चकराने लगा, मुझे तो उन पांच सौ रुपयों में बेटे का दस टुकड़ों वाला पिज्ज़ा दिख रहा था. पहले टुकड़े से जावेद अपने गांव हो आया. कुल दो टुकड़ों में उसने मामू, बहन और भांजी का दिल प्रसन्न कर दिया. दो टुकड़े यानी सौ रुपए जन्म देने वाली मां पर न्योछावर कर आया. एक टुकड़ा बेटी को देने के बाद भी वो चार टुकड़े जेब में रखे हुए था जिससे उसने अगले महीने की ख़ुशी की प्लानिंग भी कर रखी थी. जिस पिज्ज़ा को बेटा दस मिनटों में चट कर गया, वो ही पिज्ज़ा जावेद के जीवन में दो महीने यानी साठ दिन की ख़ुशियों की वजह बन
गया. वो बार-बार मुझे शुक्रिया-शुक्रिया कह रहा था और मैं सिर्फ़ उसके शुकराने की बारिश में पूरी तरह से भीग एक अलग ही ख़ुशी महसूस कर रही थी.

Illustrations: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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