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मदद के लिए मोहताज समझे जानेवाले विकलांगों ने महामारी में करुणा मील बांटकर समाज की मदद की: अलीना आलम

शिल्पा शर्मा by शिल्पा शर्मा
June 15, 2021
in ओए हीरो, ज़रूर पढ़ें, मुलाक़ात
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मदद के लिए मोहताज समझे जानेवाले विकलांगों ने महामारी में करुणा मील बांटकर समाज की मदद की: अलीना आलम
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कोरोना से लड़ाई के बीच शायद दुनियाभर में यह पहली बार हुआ है कि ख़ुद दूसरों पर बोझ माने जानेवाले, दूसरों का मोहताज समझे जानेवाले विकलांगों ने आगे बढ़कर समाज की मदद की. उन्होंने ‘करुणा मील’ के ज़रिए भूखों को भोजन कराया. और यह संभव हुआ मिट्टी कैफ़े के ज़रिए. हमारी स्व-स्फूर्त कोरोना योद्धा सीरीज़ में आज हम मिट्टी कैफ़े की फ़ाउंडर अलीना आलम से जानेंगे कैसे इन विकलांगों ने महामारी से जूझते देश की अपनी ओर से मदद करने की कोशिश की.

मिट्टी कैफ़े, ऐसी कैफ़े चेन है, जिसे केवल शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग लोग ही चलाते हैं. आपको जानकर अचरज होगा कि मिट्टी कैफ़े के कर्मचारियों ने कोरोना काल में वर्ष 2020 मार्च से अब तक ज़रूरतमंदों को 16 लाख करुणा मील बांटे हैं. यह अपने आप में बेहद फ़ख्र की बात है कि जिन वकलांगों को उनका समाज मदद का मोहताज समझता है, उन्होंने अपने समाज की मदद करके ये बता दिया के वे कितने सक्षम हैं. कैफ़े की संस्थापक अलीना के साथ हुई मेरी बातचीत के अंशों में हम जानेंगे कि किस तरह मिट्टी कैफ़े ने इस काम को अंजाम दिया और कैसे इसे अब तक करते चले आ रहे हैं.

कैसे हुई कोरोना काल में करुणा मील की शुरुआत?
पिछले वर्ष मार्च में जब पैन्डेमिक की वजह से लॉकडाउन चल रहा था, तब हमारे एक एम्प्लॉई हेमंत, जो सेरेब्रल पाल्सी और ऑटिज़्म से ग्रस्त हैं, ने मुझसे आकर कहा- बहुत से लोग भूखे हैं और हमें खाना बनाना आता है तो यदि हम खाना बनाकर लोगों को देंगे तो कोई भी भूखा नहीं रहेगा. उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि इसे मेंटल डिसेबिलिटी है, मल्टिपल डिसेबिलिटी है, बावजूद इसके अंदर इतनी करुणा है! हेमंत ने तो यह भी कहा कि हमारे खाना बांटने से कोई भी, कहीं भी भूखा नहीं रहेगा. मुझे लगा कि काश, हम इस तरह खाना बांट पाते कि पूरी दुनिया में कोई भी भूखा नहीं रहे! पर ये तो संभव नहीं है. अत: उसके सुझाव पर हमने तय किया कि 100 लोगों का भोजन बनाते हैं और लोगों को बांटना शुरू करते हैं. इस भोजन को हमने नाम दिया-करुणा मील. फिर ज़रूरत को देखकर धीरे-धीरे हमने इसकी संख्या बढ़ा दी. पिछले सालभर में हमने मिट्टी कैफ़े की ओर से ग़रीबों और ज़रूरतमंद लोगों को 16 लाख करुणा मील बांटे जा चुके हैं. यह वो भोजन है, जो ऐसे लोगों द्वारा बनाया गया है, जिनमें से कुछ देख नहीं सकते, कुछ सुन नहीं सकते, कुछ बोल नहीं सकते, कुछ अपंग हैं. ये खाना बनाते हैं, उसे पैक करते हैं और ज़रूरतमंद लोगों को बांटते हैं. ये दुनिया में पहली बार हुआ है विकलांग लोगों ने केवल ख़ुद को ही नहीं संभाला है, बल्कि पूरे देश को संभालने के लिए अपने हिस्से का प्रयास किया है.

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करुणा मील के लिए आपने फ़ंड कैसे जुटाया? और यह देश के किस हिस्से में बांटा गया?
हमने करुणा मील, जिसे हम ज़रूरतमंदों को मुफ़्त में बांटते हैं, की क़ीमत 25 रुपए रखी है, जिसे हम डोनेशन के ज़रिए इकट्ठा करते हैं. इसके लिए हम चंदे के ज़रिए ही फ़ंड जुटाते हैं. हर मील के 25 रुपए का एक हिस्सा इसके लिए काम करने वालों के लिए जाता है, क्योंकि वे भोजन बनाने का काम दिन-रात कर रहे हैं. अपने कोरोना राहत कार्यक्रम के तहत हम एनएसआरसीईएल (NSRCEL, स्टार्टअप्स और मेंटर्स) और आईआईएम बैंगलोर के प्रोफ़ेसर्स के साथ कैंपेन चला रहें हैं. उनके सहयोग से करुणा मील के ज़रिए हम बहुत से ज़रूरतमंदों को खाना दे पा रहे हैं, जैसे- दिहाड़ी मज़दूर और उनके परिवार के सदस्य, रात-दिन काम करने वाले हेल्थ वर्कर्स, ग़रीब कोविड मरीज़ और उनके रिश्तेदार, सेक्स वर्कर्स और उनके परिवार के सदस्य आदि. हमारे कुल 16 कैफ़े हैं, जो बैंगलोर, कोलकाता और सुंदरबन में ही हैं. अत: हमारा यह प्रयास भी बैंगलोर, कोलकाता और सुंदरबन क्षेत्र में ही किया गया है.

आपने मिट्टी कैफ़े की शुरुआत कैसे की?
जब मैं कॉलेज के अंतिम वर्ष में थी, अपने रिज़ल्ट का इंतज़ार कर रही थी, तब मैंने एक डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म देखी-नीरो, जिसने मेरी सोच, मेरा जीवन ही बदल दिया. नीरो प्राचीन रोमन साम्राज्य का एक राजा था. एक बार जब उसने एक लड़ाई जीती और उसके बाद पार्टी दी. जिसमें राजाओं-रानियों, प्रिंस-प्रिंसेस आदि को आमंत्रित किया गया. पार्टी रात के वक़्त थी तो उसमें लाइट्स की ज़रूरत थी तो उसने प्रकाश लाने के तरीक़े सोचे. उनमें से एक था युद्ध के बंदियों और ग़रीब लोगों को जलाकर उजाला करना. मैं तब 23 साल की थी, मुझे बहुत बुरा लगा. मुझे लगा कि समस्या नीरो नहीं है. नीरो की तरह कई लोग हैं इस दुनिया में और आगे भी होंगे, जो अन्याय और अत्याचार करते रहेंगे. मुझे परेशानी हुई कि वहां आए हुए मेहमान ये कैसे बर्दाश्त कर सके कि लोग जलते रहें, उससे प्रकाश फैलता रहे और वे पार्टी करते रहें? मुझे लगा कि कहीं मैं भी तो नीरो के उन मेहमानों में शामिल लोगों में से तो नहीं? आप कुछ कर सकें न या न कर सकें, लेकिन ये बिल्कुल सच है कि इस बात से बड़ा फ़र्क़ पड़ता है कि आपके किसके पक्ष में खड़े हैं!
तब तक मैं विकलांग लोगों के लिए काम कर रही संस्थाओं के साथ काम करना शुरू कर चुकी थी. और मुझे एहसास हुआ कि समस्या ये नहीं है कि हमारे देश में 17 करोड़ लोग विकलांग हैं और दुनियाभर में 120 करोड़, समस्या है कि इससे बड़ी संख्या में मौजूद लोगों के नज़रिए की विकलांगता को कैसे दूर किया जाए, जो अपनी सारी विकलांगताओं के बावजूद विकलांग लोगों में मौजूद योग्यताओं को देख ही नहीं पाते. मैं एक ऐसा मॉडल पेश करना चाहती थी कि सामान्य लोगों को इस बात का एहसास हो, उनमें इनके प्रति जागरूकता आए और विकलांगों को अपनी आजीविका चलाने का एक ज़रिया उपलब्ध हो. मैंने इस काम के लिए भोजन यानी फ़ूड को इसलिए चुना, क्योंकि लोगों को लोगों से जोड़ने का काम भोजन से बेहतर कोई नहीं कर सकता, बल्कि भोजन तो सभ्यताओं को जोड़ने का काम भी करता है.

फिर यह आगे कैसे बढ़ा? इसके ज़रिए होनेवाली आमदनी को किस तरह ख़र्च किया जाता है?
कॉलेज से ग्रैजुएशन के तुरंत बाद वर्ष 2017 में मैंने मिट्टी कैफ़े शुरू किया, ताकि दुनिया को विकलांग लोगों की क्षमता का जादू दिखा सकूं. मैं विकलांगों की सहायता का एक टिकाऊ तरीक़ा ढूंढ़ रही थी, जो संस्थाओं के भीतर हो, जैसे- कॉलेज, कॉर्पोरेट, हॉस्पिटल आदि. कॉर्पोरेट्स ने हमें सीएसआर ऐक्टिविटीज़ की तरह फ़ंड किया तो हमें कैफ़े चलाने के लिए पैसों की ज़रूरत नहीं पड़ी. हमारी टीम द्वारा बनाए गए प्रोडक्ट्स के ज़रिए हमें आमदनी होती है, जिससे विकलांग लोगों को अपनी गरिमा बनाए रखते हुए, अपनी आजीविका चलाने का अवसर मिला. जहां वे वेतन पा रहे हैं, लोगों की सेवा भी कर रहे हैं और अपने काम के बारे में जागरूकता भी फैला रहे हैं. हमारे कैफ़े में बनने वाले अलग-अलग प्रोडक्ट्स से भी हमें आमदनी होती है, जिससे हम अपनी लागत निकालकर दोबारा एनजीओ में लगा देते हैं. इससे उन विकलांगों को व्हीलचेयर मुहैया कराते हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति कमज़ोर है. हमारे कर्मचारियों में से 90% आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर होते हैं. पैन्डेमिक के दौरान हमने रास्ते पर भटक रहे, भीख मांग रहे कई विकलांगों को मदद भी मुहैया करवाई. अब वे भी गरिमा के साथ अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं.

आपने शुरुआत से अब तक मिट्टी कैफ़े को किस तरह बदलते हुए देखा?
मेरे पास जो पहली महिला इंटरव्यू देने के लिए आई थी, कीर्ति वो घिसटते हुए आई थी, क्योंकि उसका परिवार उसके लिए व्हीलचेयर का ख़र्च नहीं उठा सकता था. आज वो हमारे सबसे पहले कैफ़े की मैनेजर है और अपनी व्हीलचेयर पर बैठ करने अपने जैसे 10 विकलांगों की टीम को मैनज करती है. आज देशभर में हमारे 16 कैफ़े हैं, जिन्हें पूरी तरह से शारीरिक और मानसिक विकलांगता से ग्रस्त लोग ही चला रहे हैं. पिछले चार सालों में हमने कुल 60 लाख लोगों को भोजन-पानी और पेय पदार्थ (मील्स ऐंड बेवरेज) उपलब्ध करवाया है. हर बार जब हम किसी को खाना या बेवरेज सर्व करते हैं तो साथ ही साथ हम इस बात की जागरूकता भी फैलाते जाते हैं कि जिन लोगों को हम डिसेबल मानते हैं, दरअस्ल, वे कितने एबल यानी कितने योग्य हैं!

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शिल्पा शर्मा

शिल्पा शर्मा

पत्रकारिता का लंबा, सघन अनुभव, जिसमें से अधिकांशत: महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कामकाज. उनके खाते में कविताओं से जुड़े पुरस्कार और कहानियों से जुड़ी पहचान भी शामिल है. ओए अफ़लातून की नींव का रखा जाना उनके विज्ञान में पोस्ट ग्रैजुएशन, पत्रकारिता के अनुभव, दोस्तों के साथ और संवेदनशील मन का अमैल्गमेशन है.

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