बात छोटी-सी ही है, पर मेरे मन की डायरी में दर्ज हुए बिन रह न सकी. महिलाओं के साथ हुए और होते आ रहे भेदभाव हर महिला की तरह हमेशा मुझे भी चुभते हैं, लेकिन कुछ घटनाएं जो मेरे सामने, मेरे जानने वालों के साथ घटीं, उन्होंने बराबरी, लैंगिक भेदभाव या फिर लैंगिक समानता के बारे में मुझे सोचने का एक नया नज़रिया दिया है. उनमें से एक घटना का ज़िक्र मैं यहां कर रही हूं. इसे आप भी पढ़ें और सोचें…
हर मां की तरह मैंने भी अपने बच्चे (बेटे) को सिखाया है कि अपने दोस्तों, मिलनेजुलने वालों और ख़ासतौर पर लड़कियों के साथ हमेशा विनम्रता से पेश आना, उनका ख़्याल रखना, उनके प्रति संवेदनशील रहना, जिसे वह मानता भी आया है. मेरा मानना है कि कोई भी अनपढ़/पढ़ी-लिखी और संवेदनशील मांअपने बच्चों और ख़ासतौर पर लड़कों को यही सिखाती है और सिखाना भी चाहिए. देश की आधी आबादी रही महिलाओं के साथ पितृसत्तात्मकता के चलते अतीत में बहुत-सी चीज़ें बहुत ग़लत हुईं, जिन्हें सुधारे जाने की ज़रूरत है, ताकि हर लड़की, युवती और महिला अपनी क़ाबिलियत के अनुरूप ऊंचाई पर पहुंच सके.
यहां एक बात ध्यान रखनेवाली है कि महिलाओं के साथ होनेवाला अधिसंख्य भेदभाव या अत्याचार मौजूदा पीढ़ी के अधिकतर लड़कों ने नहीं किया है. यह अत्याचार पिछली पीढ़ी की महिलाओं के साथ, पिछली पीढ़ी के पुरुषों ने किया, जिसका दोषारोपण आज की लड़कियों, युवतियों या महिलाओं द्वारा आज के लड़कों, युवकों या पुरुषों पर कर देना भी तो क़तई सही नहीं है! हमारे देश के आज के पुरुष, जो बच्चियों, लड़कियों, युवतियों के पिता हैं, वे कितनी शान से अपनी बेटियों को शिक्षा और उच्च शिक्षा दिलाते हैं, उनकी नौकरी लगने पर ख़ुश होते हैं, गर्व महसूस करते हैं और यह भी चाहते हैं कि शादी से पहले लड़की अपने पैरों पर खड़ी हो जाए. या फिर वे पुरुष भी हैं जो आज की कामकाजी पत्नियों के पति, बहनों के भाई हैं, एक बार उनपर भी तो नज़र डालना बनता है! ये पुरुष तो घर पर अपनी मांओं, बहनों, पत्नियों की मदद भी कर रहे होते हैं… माना कि आज की युवतियों पर भी अत्याचार हो रहे हैं, रेप जैसे जघन्य अपराध घट रहे हैं, पर इनके लिए पूरी पुरुष जाति को ही तो दोषी करार नहीं दिया जा सकता, है ना! कम से कम तब तो बिल्कुल नहीं, जबकि इस ज़माने के बराबरी में विश्वास रखनेवाले पुरुषों की जमात भी हमारे एकदम आसपास मौजूद है.
ख़ैर… जिन मसलों पर मैं बात करने जा रही थी, वो हैं: बराबरी, जेंडर इक्वैलिटी और बात करने का सामान्य सलीका. तो बात यूं है कि मेरा बेटा, जो हाल ही में 18 वर्ष का हुआ है, उसने अपना पासपोर्ट रिन्यू कराया. जब उसे पुलिस वैरिफ़िकेशन का कॉल आया तो मैं उसके साथ गई, पर बाहर ही खड़ी रही, क्योंकि अब वह अपने अधिकतर कामों में मुझे इन्वॉल्व नहीं करना चाहता, ख़ुद ही करना चाहता है… एक वयस्क नागरिक को ऐसा करना भी चाहिए! जब वह वापस लौटा तो उसने मुझे मुस्कुराते हुए ये वाक़या सुनाया- ‘‘मां, मेरे साथ जो आंटी गई थीं न अंदर उनके साथ कितने सलीके से बात की पुलिस अंकल ने. उनसे विनम्रता से पूछा- नाम और फिर पूछा –पिताजी का नाम… मुझसे तो रौबदार आवाज़ में ऐसे पूछा- नाम? नाम बताने के बाद पूछा- बाप का नाम?’’ मैं समझ गई कि मेरे बेटे को नैतिक यानी मॉरल और सांस्कृतिक यानी कल्चरल शॉक लगा है. मुझे उसकी बात सुनकर जहां, इस बात की ख़ुशी हुई कि कम से कम उसके साथ गई महिला के साथ पुलिस ने सम्मानजनक व्यवहार किया… लेकिन वहीं उसी पल इस बात के लिए दुख भी हुआ कि जिस पुलिस को जेंडर इक्वैलिटी के दबाव में युवतियों और महिलाओं से अच्छी तरह बर्ताव करने को कहा गया है, उसे युवकों और पुरुषों के साथ भी उतने ही सलीके से बर्ताव करने का प्रशिक्षण क्यों नहीं दिया गया? बराबरी या जेंडर इक्वैलिटी या फिर बातचीत के सामान्य शिष्टाचार के तहत तो महिला-पुरुष दोनों के साथ ही समान और सलीकेदार व्यवहार किया जाना चाहिए, है ना?
मैं अपने बेटे के साथ बहुत अजीब, अनमनी मन:स्थिति में घर पहुंची. मेरे भीतर यही सवाल घुमड़ रहा था कि जेंडर इक्वैलिटी या फिर बराबरी के मायने कितने गूढ़ हैं, कितने गहरे हैं. और ये हमारे-आपके दैनिक व्यवहार से सलीके से ही संभव है कि हम इसके अर्थ समझने के क़रीब पहुंच सकें. न जाने कब हमारे देश के लोग बराबरी और सलीके का सही अर्थ समझ सकेंगे…!
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