हमारे यहां दस्तूर है कि किसी के जन्मदिन या ख़ास दिन पर उसके बारे में बात की जाए. आज हम बात करने जा रहे हैं मशहूर उर्दू शायर वसीम बरेलवी की, तो बता दें कि आज उनका जन्मदिन नहीं है. तो यह लेख क्यों? इसका क़िस्सा ख़ुद इसे लिखने वाले जय राय बताते हैं, जो एक बिज़नेसमैन होने के साथ-साथ सिनेमा और म्यूज़िक के शौक़ीन हैं. ट्रेन से ऑफ़िस जाते हुए गाने सुनना उनका पसंदीदा काम है. आज वसीम बरेलवी को सुनते हुए वे इस प्यारे शायर के बारे में लिखने से ख़ुद को रोक नहीं सके. आगे का लेख पढ़िए जय राय के ही शब्दों में.
अगर आप ग़ैर उर्दू भाषी हैं और उर्दू की आपकी अच्छी समझ नहीं है तो यक़ीनन आप शायरी से दूरी बना के रखते होंगे. या शायरी के नाम पर कुछ हल्की चलताऊ तुकबंदियों को सुनते होंगे. आजकल तो हम लोग हिंग्लिश को ज़्यादा महत्व देते हैं और हमारा काम भी चल जाता है. अगर आप शायरी के शौक़ीन हैं लेकिन उर्दू की जटिलता के कारण शायरी आपको समझ नहीं आती तो हमारा सुझाव है की आपको वसीम बरेलवी को पढ़ना और सुनना चाहिए. बरेलवी साहब की शायरी आम लोगों के लिए होती है जिसकी भाषा एकदम उम्दा परंतु बेहद सरल होती है.
8 फ़रवरी 1940 को उत्तर प्रदेश के बरेली में पैदा हुए वसीम बरेलवी का असली नाम ‘ज़ाहिद हुसैन’ है, लेकिन लेखन के लिए इन्होंने पेन नेम वसीम बरेलवी अपनाया और इसी नाम से मशहूर हो गए. बरेलवी साहब अपने समकालीन उर्दू शायरों से इस मायने में अलग हैं कि वे शेरो-शायरी के लिए उर्दू के भारी-भरकम शब्दों के इस्तेमाल से बचते हैं. अपनी फ़िलॉसिफ़िकल रचनाओं के लिए बेहद आसान या कहें जनता की भाषा का इस्तेमाल करते हैं. इनकी यही सरस भाषा उनकी रचनाओं को उम्दा बनाती है और वसीम बरेलवी को दूसरे उर्दू शायरों से अलग पहचान दिलाती है. मरहूम ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह ने इनकी कई शायरियों को अपनी आवाज़ के माध्यम से ग़ज़ल का रूप दिया है. हम ऐसे दौर से गुज़र रहे हैं जब सब कुछ एक जैसा ही लगता है, जैसे कि एक ही फ़िल्मी गाने को रीमिक्स के नाम पर दो बार इस्तेमाल किया जा रहा है, ऐसे में कुछ नया सुनना और पढ़ना लाज़मी सा हो जाता है. आज हम आपके लिए वसीम बरेलवी की दो ग़ज़लों का ज़िक्र करना चाहते हैं जिसे बरेलवी साहब ने अलग-अलग समय में लिखा और जगजीत सिंह जी ने अपनी आवाज़ दी.
पहली ग़ज़ल है, आपको देखकर देखता रह गया.
आपको देख कर देखता रह गया
क्या कहूं और कहने को क्या रह गया
आते-आते मेरा नाम-सा रह गया
उस के होंठों पे कुछ कांपता रह गया
वो मेरे सामने ही गया और मैं
रास्ते की तरह देखता रह गया
झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गए
और मैं था कि सच बोलता रह गया
आंधियों के इरादे तो अच्छे न थे
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया
आप इस ग़ज़ल की ख़ूबसूरती देखिए कहीं भी आपको भाषा की कोई उलझन महसूस नहीं होगी. आप जहां से भी शुरू करेंगे आपको मज़ा आ जाएगा और इसे बार-बार सुनने का मन करेगा. हालांकि यह ग़ज़ल है तो बहुत छोटी, लेकिन जगजीत सिंह ने अपने आवाज़ से इसे चार चांद लगा दिया है उनके सुरों के उतार-चढ़ाव के बीच आप ख़ुद को एक अलग माहौल में पाएंगे. बहुत सारे लोग इसे सुनते हुए इन शब्दों से अपने को जुड़ा हुआ महसूस करेंगे और आपको एहसास होगा कि इस ग़ज़ल में कहीं आपकी ही बात तो नहीं हो रही है.
अब बात करते हैं दूसरी ग़ज़ल की, उसे भी जगजीत सिंह ने अपने अनूठे अंदाज़ में गाया है. वह ग़ज़ल है-तू अम्बर की आंख का तारा.
तू अम्बर की आंख का तारा, मेरे छोटे हाथ
सजन मैं भूल गई ये बात
तुझको सारे मन से चाहा, चाहा सारे तन से
अपने पूरेपन से चाहा और अधूरेपन से
पानी की एक बूंद कहां, और कहां भरी बरसात
सजन मैं भूल गई ये बात
जनम जनम मांगूंगी तुझको, तुम मुझको न ठुकराना
मैं माटी में मिल जाऊंगी, तुम माटी हो जाना
लहर के आगे क्या इक छोटे तिनके की औक़ात
सजन मैं भूल गई ये बात
तेरी ओर ही देखा मैंने, अपनी ओर न देखा
जब जब बढ़ना चाहा, पांव से लिपटी लक्ष्मण रेखा
मैं अपने भी साथ नहीं थी, दुनिया तेरे साथ
सजन मैं भूल गई ये बात
इस ग़ज़ल में आप प्रेम के समर्पण को महसूस कर सकते हैं, दो चाहनेवालों में तमाम असमानता होने के बावजूद दोनों के एक हो जाने की उम्मीद. बरेलवी साहब के शब्दों का जादू देखिए आपके सामने पूरी एक कहानी गुज़रती हुई नज़र आएगी. प्रेम का समर्पण देखिए कि मिट्टी में मिल जाने के बावजूद मिट्टी में ही सही कहीं ना कहीं मिलने की गुंजाइश तो है. लक्ष्मण रेखा जैसे शब्द के इस्तेमाल से पता चलता है की अगर आपको भारतीय समाज की रूढ़िवादी परम्परा की बात करनी है तो एक शब्द काफ़ी है बहुत कुछ समझने के लिए. प्रेम का एकतरफ़ा समर्पण और उसके बावजूद किसी को खो कर भी पा लेने की कोशिश इस ग़ज़ल की ख़ूबसूरती है. बरेलवी साहब को आप जितनी बार पढ़ेंगे या सुनेंगे उनकी रचनाओं में हर बार आपको अपनी दुनिया नज़र आएगी.
आज के दिन मैं इन दो रचनाओं को बार-बार सुनता रहा. उनके अर्थ समझने की कोशिश करता रहा. हर बार, ये ग़ज़लें पिछली बार से ज़्यादा प्यारी लगीं. यही तो जादू है इस आम आदमी के महबूब शायर का. हां, जगजीत सिंह की आवाज़ का जादू तो अलौकिक है ही. आगे कभी उनकी आवाज़ पर लिखने की कोशिश करूंगा. बहरहाल इतना ही कहूंगा,‘तू अंबर की आंख का तारा, मेरे छोटे हाथ…’