ख़बरों में बलात्कार की घटना को सुन और जान कर हम सभी को अखरता है, पर क्या आपने कभी सोचा है कि कोई व्यक्ति बलात्कारी आख़िर कैसे बन जाता है? क्या हमारा समाज और उसका रवैय्या इसके लिए दोषी है? बलात्कार घृणित है, निंदनीय है, पर यह बंद तो तभी होगा न, जब इसके कारणों को खोज कर दूर किया जाएगा? भावना प्रकाश की यह कहानी आपको इस मामले में सोचने के लिए एक नया धरातल देगी, जो आईना दिखाता-सा है.
बनी-ठनी मेम-साहब की ट्रेन शायद बहुत लेट थी इसीलिए बहुत देर से अपनी बनी-ठनी बेटी को गाजर का हलवा ठुंसाने में लगी थीं. साहब उसे गोद में लेकर टहला रहे थे. जब कालू से अपनी लार पर नियंत्रण नहीं रखा गया तो हमेशा की तरह उनके उस हाथ को हल्का सा धक्का मारते हुए निकल गया, जिसमें हलवे का दोना था. फिर वही हुआ जो होता था. हलवे का दोना गिर गया और कालू ने फुर्ती से उठा लिया. मगर वो बच्ची जो इतनी देर से हलवा खाने में आनाकानी कर रही थी, उसे ज़मीन पर गिरा देखकर रोने लगी बस, साहब ने उसका कॉलर पकड़ लिया. ग़ुस्से से आंखें निकाल कर बोले- ‘क्यों बे? जानबूझकर धक्का मारा न? क्या करता है यहां पर? चोरी? ‘नहीं साहब, मैं तो सामान उठाता हूं.’ कालू बिना किसी डर या हिचकिचाहट के बोला. ‘झूठ मत बोल. इतनी देर से देख रहा हूं खड़ा घूर रहा है हमें. सामान उठाता है कमीना, मक्कार.’ कहकर हल्के से धक्का देते हुए साहब ने कॉलर छोड़ दिया, पर दोना उसके हाथ से छीनकर कूड़ेदान में फेंक दिया. बस, कालू को ग़ुस्सा आ गया. ‘तो वो खिला काहे को रही थी जब बचवी नहीं खाना चाहती थी. मैं खाना चाहता था तो धक्का मार कर गिरा दिया. और तुमने उसे फेंक क्यों दिया? ख़ुद नहीं खाओगे तो दूसरे को भी नहीं खाने दोगे?’ कालू भी आंखें निकाल कर चीखा.
अब साहब की आंखों में ख़ून उतर आया. ‘इत्ता सा छोकरा और ये तेवर! एक तो बदमाशी करता है उस पर से जवाब भी देता है.’ उन्होंने कालू को कॉलर से पकड़ लिया और प्लेटफ़ॉर्म के किनारे ले जाकर बोले- ‘फेंक दूं नीचे पटरी पर? माफ़ी मांग, नहीं तो फेंक दूंगा.’ वो चीख़े. ‘फेंक दोगे तो क्या मैं उठ न पाऊंगा?’- कालू के चेहरे पर या स्वर में डर का कोई निशान नहीं था. तभी हरिया आ गया और गिड़गिड़ा कर उसे बचा ले गया. मगर अपनी जगह पहुंच कर संटी से पिटाई शुरू कर दी. ‘कितनी बार भीख मांगना सिखाया मगर सब बेकार! हज़ार बार बताया कि मांग ले, रिरिया ले, दुआएं दे पर नहीं, बड़ा लाटसाहब बनता है. आज खाना नहीं मिलेगा.’
रात बहुत काली थी. भूख से कालू की अंतड़ियां कुलकुला रही थीं और संटी के निशान भी दर्द कर रहे थे. पर कालू को भूख या चोट से ज्यादा सताते थे वो प्रश्न जिनका उत्तर देने वाला कोई न था. उसने जब होश सम्हाला ख़ुद को रेलवे स्टेशन पर भीख मांगते पाया. मगर लोगों की दुत्कार उससे बरदाश्त नहीं होती थी. वो अक्सर हरिया से कहता कि लोग कहते हैं काम करके खाओ तो हम कोई काम क्यों नहीं करते? कुछ बातें वो जानता था. बच्चे सामान्यतः दो लोगों के साथ रहते हैं. एक औरत जिसे महतारी कहे हैं, और आदमी जिसे बाप कहे हैं. उसकी महतारी उसको जनते समय मर गई. उसे मिलाकर छः बच्चे जने उसने. वो सब उसके भाई-बहन हैं. हरिया उसका बाप है. पर कुछ बातें उसे समझ नहीं आती थीं. ये जो बने-ठने लोग ट्रेन पर चढ़कर कहीं जाते हैं वो अपने बच्चों को इतना सम्हाल कर क्यों रखते हैं? उसका जीवन उन बच्चों जैसा क्यों नहीं है? वो क्यों उन्हें खिलाते नहीं थकते और हरिया को उसे क्यों खिलाना पड़ता है? उसका दिल हमेशा बगावत के लिये तैयार रहता.
दूसरे दिन एक लम्बा-तगड़ा आदमी आया. उसने कालू के ऊपर हाथ रखकर कहा कि मुझे छोटा बच्चा चाहिए और हरिया के हाथ में रुपए पकड़ाए. ‘तुझे काम करके खाना है न? चल जा इसके साथ.’ हरिया ने कहा तो नित्ती, जिसे उसकी बड़ी बहन कहा जाता था, उसे लिपटा कर रोने लगी. ‘ऐसा न करो बाबा, मैं खिलाया करेगी उसे.’ वो सिसकियां भरते हुए बोली. उस आदमी ने उसे बहन से छुड़ाया और घसीट कर ले चला. कालू के कुछ समझ में नहीं आ रहा था. वो भी रोने लगा. स्टेशन के बाहर सलुआ गरम समोसे निकाल रहा था. उस आदमी ने कुछ दोने खरीदे और दो पूरे दोने कालू को पकड़ा दिए और जीप में बैठने को कहा. चुप होने के लिए इतना काफ़ी था.
जीप में पता चला कि उस तगड़े आदमी का नाम भरुआ है जो उसे हरिया से ख़रीद कर आगे बेचने जा रहा है. उसी जीप में एक और आदमी था जिसे भरुआ ठेकेदार कहकर बुला रहा था. उसे कालू पर दया आ गई. बोला इसे मुझे दे दे. अच्छी जगह लगा दूंगा और दिहाड़ी तुझे दे दिया करूंगा.
‘यहां पोछा लगाना है? ये जगह तो पहले से ही चमक रही है!’ कालू ने आश्चर्य से कहा. ठेकेदार हंस पड़ा- ‘तो बस ऐसे ही चमकती रहनी चाहिए.’ कहकर उसने कबाब-परांठे का दोना कालू को पकड़ा दिया. कालू को काम करने से कोई परहेज़ नहीं था. उसे ये जगह बहुत अच्छी लगी, जिसे स्कूल कहते हैं. ठेकेदार भला आदमी था. उसे भरपेट खाना मिलता था और सारा दिन कॉरीडोर्स में पोछा लगाते रहना होता था और बच्चों के जाने के बाद कक्षाओं में. सबसे अच्छी बात ये कि कोई गलियां देने वाला नहीं था. शाम को एक घंटा ग़रीब बच्चे पढ़ने आते. उनके साथ कालू को भी बिठा दिया जाता. मुफ़्त में मिलने वाली हर चीज़ की कद्र कालू जानता था इसीलिए मन लगाकर पढ़ाई करने लगा. सबसे अच्छा उसे तब लगता जब टीचर दीदी उसके सिर पर हाथ फेर कर कहतीं. तू तो बड़ा होशियार है. पर इससे नित्ती की याद आ जाती. वो भी तो ऐसे ही यही कहा करती थी. मगर ये सुख कालू की किस्मत में एक साल ही रहा.
एक दिन उन बड़े साहब की नज़र उस पर पड़ गई, जिसे सब झुककर सर बोलकर सलाम करते थे. वे उसे और ठेकेदार को अपने कमरे में बुलाकर बोले- ‘ये बच्चा यहां कैसे काम कर रहा है? तुम्हें पता है ना कि बाल श्रम अपराध है. कल को कुछ हो गया या किसी ने देख लिया तो स्कूल पर बात आ जाएगी. माना कि स्कूल ने तुम्हें क्लास फ़ोर्थ एम्प्लाई मुहैया कराने का ठेका दिया है, पर इसका मतलब ये तो नहीं कि रूल्स ऐंड रेगुलेशंस तुम पर अप्लाई नहीं होते.’
कालू को लगा उसकी दुनिया डूब जाएगी. उसने उन्हें समझाने की कोशिश की- ‘मैं मन लगाकर काम करता है साहब और शाम को पढ़ता भी है.’
इस पर उन्होंने कालू को बड़े प्यार से अपनी तरफ़ बुलाया और उसके कंधे पर एक हाथ रखकर उसे अपने से सटा लिया. ‘मैं तुम्हें काम से निकाल नहीं रहा हूं बेटा, मैं ये कह रहा हूं कि जैसे तुम मन लगाकर काम करते हो वैसे ही मन लगाकर पढ़ाई करके दिखाओ.’ ये कहकर उन्होंने अपनी मेज़ पर रखा एक रंग-बिरंगी किताबों का बंडल और एक चॉकलेट उसे पकड़ा दिया. कालू गालियों का जवाब आंखें तरेर कर दे सकता था पर इतने प्यार से पहली बार उसे किसी ने कुछ कहा था. वो बताना चाहता था कि दिहाड़ी नहीं मिलेगी तो भरुआ उसे ले जाएगा और… मगर उसका गला रुंध गया.
उम्र का अगला पड़ाव एक अंधेरा और सीलन भरा कमरा था. काम भी कालू को बिल्कुल पसंद नहीं आया. छोटी-छोटी नलियों में कोई गंदा सा पाउडर भरना था सारा दिन बैठकर. वो दो घंटे में ही ऊब गया. सोचा, उठकर बाहर थोड़ा सा टहल आऊं. दरवाज़ा खोलने गया तो पाया कि वो बाहर से बंद था. ‘ये दरवाज़ा बाहर से बंद क्यों है?’ उसने वहां काम कर रहे दूसरे बच्चों से पूछा तो वे उसे यों देखने लगे जैसे वो दुनिया का सबसे बड़ा मूर्ख हो. लेकिन शाम को उसे इसका उत्तर मिल गया जब सबके लिए खाना आया. खाना ऐसा था, जिसे देखकर ही अरुचि हो जाए. जो आदमी खाना लाया था उसने जब कालू के सामने बिना भरी नलियां देखी तो चीखा- ‘ओए नासपीटे, तूने काम पूरा क्यो नहीं किया?’ ‘एक दिन में मुझसे इससे ज्यादा काम न हो सकेगा. मशीन समझे हो का?’ कालू कब किसी की फटकार सुनकर चुप रहने वाला था. बस उस आदमी की त्योरियां चढ़ गईं. उसने दूसरे बच्चों के सामने उनका खाना फेंका और कालू का खाना लेकर वहीं बैठ गया. ‘हरामज़ादे, काम पूरा कर तब खाना मिलेगा.’ वो ग़ुस्से से बोला. ‘तू क्या समझे है खाना न मिलेगा तो मर जावेगा मैं?’ कालू को भी गालियां सुनकर ग़ुस्सा आ गया. ‘अच्छा! बड़ी तेजी दिखाए है, अभी बताता हूं’ कहकर उसने किनारे पड़ी संटी उठा ली.
रात बहुत काली थी. कालू क़ो एक बार फिर संटी के निशानों के दर्द और भूख भरी आंतों की कुलबुलाहट से ज़्यादा मन के प्रश्न परेशान कर रहे थे. उसका जीवन उन स्कूल में पढ़ने वाले सजे-धजे बच्चों की तरह क्यों नहीं है?
ये एक दिन की बात नहीं थी, रोज़ का सिलसिला था. काम तो कालू औरों जितना करने ही लगा था, पर उसकी किसी न किसी बात पर अक्सर उस आदमी से झड़प हो जाती और वो संटी उठा लेता. रात में जब सब बच्चे घोड़े बेचकर सो रहे होते, या अपनी तकदीर पर सुबक रहे होते, कालू कभी स्टेशन की, तो कभी स्कूल की यादों में जग रहा होता. स्टेशन पर कभी गरम समोसे, कभी गाजर का हलुआ तिकड़म भिड़ा कर मिल जाता था तो कभी चमकीली पन्नियों में लिपटा स्वाद खाना सुंदर ट्रेन से उतरने वाले लोग दे जाते थे. स्कूल में टीचर जी… और स्कूल की याद आते ही कालू वो सुंदर किताबों का बंडल उठा कर उसे प्यार से सहलाता तो लगता कोई ज़ख़्मों पर मरहम लगा रहा हो. कुछ उसके छोटे से संदूक में भी ऐसा था, जो उसे किसी ने बड़े प्यार से दिया था.
छत से सटे छोटे से रोशनदान से आने और जाने वाली किरणें दिन और रात का पता देती रहती थीं और ज़िंदगी उसी ढर्रे पर चलती जा रही थी कि एक दिन कालू ने उस आदमी को हरामी कह दिया. हुआ ये था कि उसका एक साथी खांस-खांस कर मर गया था, मगर वो आदमी दवाई नहीं लाया था. बस उसके खाना लेकर आने पर कालू ने कॉलर पकड़ लिया उसका. फिर क्या था वो आदमी भी तुल गया कि कालू की अकड़ ढीली करके रहेगा. तीन दिन कालू को खाना नहीं मिला और पिटाई होती रही. इससे कालू का रहा-सहा डर भी निकल गया और जाने कैसे पूरी ताक़त और हिम्मत बटोर कर उसने संटी छीन ली और कस के उसे जमा दी. वो आदमी तो एक ही संटी में गिरकर कराहने लगा. उसका फ़ोन भी जेब से छटक कर गिर गया, जो कालू ने चुपचाप उठा लिया. कालू को सामने खुला दरवाज़ा दिखा. वो भागने चला ही था कि याद आया सबके संदूक अंदर वाले कमरे में रखे हैं. वो भाग गया तो किताबों का बंडल वहीं रह जाएगा. वो अंदर वाले कमरे में दौड़ा. किताबों का बंडल लेकर वापस आया तो वो आदमी कमरे का दरवाज़ा बंद करके भाग चुका था. मगर फ़ोन कालू के पास रह गया था. उसे याद था कि टीचर दीदी ने बताया था कि सौ नंबर डायल करने से पुलिस आ जाती है. उसने भाग्य आज़मा ही लिया और सच में दूसरे पहर पुलिस आ गई. पुलिस सारे बच्चों को पुलिस स्टेशन ले गई. इंस्पेक्टर ने उस पूछ्ताछ के दौरान जानना चाहा- ‘तू भागा क्यों नहीं रे?’ ‘कैसे भागता सहब? मेरा बंडल वहीं न रह जाता?’ कहकर कालू ने किताबों के बंडल की कहानी सुना दी.
पूछताछ पूरी करके वो इंस्पेक्टर सब बच्चों को शेल्टर होम ले गया. सबके नाम दर्ज कराकर वहां से लौटने लगा तो गेट तक जाकर वापस आ गया. कालू के पास पहुंच कर बोला- ‘तू पढ़ना चाहता है?’ कालू ने हां में सिर हिला दिया. ‘तो कल तैयार रहना. मैं तेरा स्कूल में नाम लिखवा दूंगा. कालू को तो जैसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. रातभर वो सजे धजे स्कूल के सपने देखता रहा, पर दूसरे दिन स्कूल पहुंच कर उसे बड़ी निराशा हुई. ऐसा स्कूल भी होता है. बने-ठने बच्चों के मां-बाप और घरों की तरह उनके स्कूल भी बने-ठने और उस जैसे बच्चों का स्कूल इतना गंदा और टूटा-फूटा?
मगर टीचर दीदी बड़ी अच्छी थीं. पहले ही दिन उन्होंने कालू की बहादुरी की कहानी बच्चों को सुनाकर उसके लिए ताली बजवाई. कालू का दिमाग़ तो जैसे सातवें आसमान पर पहुंच गया. उसने अपनी सारी ताक़त पढ़ाई में झोंक दी. तो क्या हुआ जो शेल्टर होम वाली मैडम गलियों से बात करती थीं, और लोगों द्वारा लाए हुए अच्छे-अच्छे फल मिठाई और कपड़े पहले अपने घर के लिए रख लेती थी. तो क्या हुआ कि शेल्टर होम से स्कूल दो किलोमीटर पैदल भागते हुए आना पड़ता था. तो क्या हुआ कि दो साल अंधेरे कमरे में रहने से हुई खुजली उसे परेशान करती रहती थी. टीचर दीदी कहती थी कि वो एक इंटेलिजेंट बच्चा है और बड़ा होकर बने-ठने लोगों जैसी ज़िंदगी कमा लेगा इसलिए वो ख़ुश रहता था. परीक्षाएं हुईं और वो अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गया. छुट्टियों के बाद गया तो पता चला अब दूसरी टीचर दीदी पढ़ाएंगी.
मगर दूसरी टीचर दीदी वैसी न थीं. उनका बात करने का लहजा तो शेल्टर होम वाली मैडम से भी ख़राब था. फिर भी शुरू के एक हफ़्ते वो आईं तो. उसके बाद तो सारा समय बस इंतज़ार या शैतानी ही करनी होती थी या फिर गाली-गलौज या लड़ाई-झगड़ा. टीचर दीदी हफ़्ते में एक दिन आतीं और कालू से खड़े होकर किताब पढ़ने को कहतीं. कालू पढ़ तो देता, पर उसके कुछ समझ में न आता. वो मतलब पूछना चाहता, तभी वो और बच्चों को लताड़ते हुए कहतीं- ‘कुछ सीखो इससे, कितनी स्पीड से पढ़ता है और एक तुम सब फिसड्डी हो जो बैलगाड़ी की तरह रुक-रुक कर पढ़ते हो.’ सब हंस पड़ते और कालू कुछ बोल न पाता. दो-तीन बार पूछ सका तो टीचर दीदी ने कहा अगले दिन बताएंगी.
एक दिन स्कूल पहुंचा तो नज़ारा बदला हुआ था. एकदम साफ़-सुथरा हो गया था स्कूल. टीचर दीदी ने कहा कि कोई बाहर का कक्षा में आए और कुछ पूछे तो बिल्कुल ठीक-ठीक जवाब देना. दिन में बहुत ही बने-ठने साहब आए. उन्होंने पूरा स्कूल देखा और कालू की कक्षा में आकर रुक गए. ‘बच्चों, तुम लोग रोज़ मन लगाकर पढ़ाई करते हो न?’ उनके पूछने पर सारे बच्चे एक साथ एक लय में बोले- ‘यस सर’ लेकिन कालू की बुलंद आवाज़ अलग से आई–‘नो सर’ बड़े साहब ने पहचान लिया और उसे बुलाकर पूछा- ‘तुम रोज़ पढ़ाई नहीं करते?’ नहीं सर, पढ़ाई तो हम लोग सिर्फ़ हफ़्ते में एक दिन करते हैं जब टीचर दीदी आती हैं.’ टीचर दीदी सकपका गईं. बड़े साहब ने दूसरे बच्चों की ओर देखा. सबने सिर झुका लिया, पर रामू जिससे कालू की बिल्कुल नहीं पटती थी, बोला- ‘ये केवल उसी दिन पढ़ता है क्योंकि टीचर दीदी केवल कालू से पढ़वाती हैं. हम तो रोज़ अकेले भी पढ़ लेते हैं.
उसके बाद तो कालू की ज़िंदगी ने फिर से यू टर्न ले लिया. टीचर दीदी तो रोज़ आने लगी थीं, पर अब वो कालू को पढ़वाने के बजाए किसी न किसी बहाने कान पकड़ कर खड़ा कर देतीं. संटी के दर्द से कालू न डरता था, पर ज़िल्लत उससे कभी बरदाश्त न होती. अक्सर टीचर दीदी उसे देखते हुए बड़बड़ातीं– सुबह उठकर खाना बनाओ, फिर ढाई घंटे बस में लगा कर यहां आओ, फिर इन जैसे के साथ माथापच्ची करो, जिन्हें आता-जाता तो कुछ है नहीं, ख़ुद को हीरो समझे हैं. न नहाने की तमीज़ है, न बाल बनाने की. खुजली करता फिरे है. ये टीचर दीदी अच्छी तरह से जानती थीं कि कालू को पिटाई से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा इसीलिए वहां चोट करती थीं, जहां चोट पड़ने से वो तिलमिला जाता था. कालू को बैठने की जगह पर होने वाली खुजली बहुत परेशान और शर्मिंदा करती थी. उसकी खुजली के कारण ही कोई बच्चा उसके साथ खेलना नहीं चाहता था. इसीलिए वो उसके बारे में किसी को बताना नहीं चाहता था. खुजली और शरीर की गंदगी का ज़िक्र होते ही उसे लगता जैसे किसी ने उसके कपड़े उतार दिए हों. मगर उसे अपमान का घूंट चुपचाप पीकर रह जाना पड़ता.
जैसे-तैसे कालू ने तीन और जमात पढीं पर पहली वाली टीचर दीदी जैसी कोई न मिली. कुछ ठीक थीं पर ज़्यादातर जैसे अपने जीवन से उकताई हुई अपना ग़ुस्सा उन बच्चों पर उतारने ही स्कूल आती थीं. फिर स्कूल में और कुछ भी तो आकर्षक नहीं था. कालू का मन उचटता गया और एक दिन शेल्टर होम में अपनी जगह पहुंचा तो मैडम उसका संदूक खोल कर देख रही थीं. ‘ये किताबों का बंडल कहां से आया?’ उन्होंने कड़क कर पूछा. ‘मुझे दिया था पिछले स्कूल वाले बड़े साहब ने, क्योंकि मैं मन लगाकर पढ़ाई करता था.’ कालू पूरी ताकत लगाकर चीख़ा और बंडल झपटने के लिये हाथ आगे बढ़ाया.
मगर मैडम ने बंडल वाला हाथ पीछे कर लिया और कालू को धनवा और भूरी ने कसकर पकड़ लिया. ‘ज़रा इसकी सुनो, ये बंडल पिछले स्कूल से मिला था.’ मैडम ने व्यंग्य के लहजे में कहा और सब हंस पड़े. ‘अबे सोना है का जो ख़राब नहीं हुआ?’ मैडम चीख़ीं और सब सहम कर चुप हो गए. ‘देख बचवा, कल जो बड़े साहब लोग आए थे वो किताबों के कई बंडलों के साथ दस हजार रुपए दे गए थे. वो दस हजार रुपए कहां छुपाए हैं, बता दे नहीं तो मुझे तो तुझसे निपटना आता ही है.’ जब मैडम ने संटी दिखाकर धमकी दी तो कालू का ग़ुस्सा भड़क उठा. ‘नहीं लिए मैंने वो रुपए! मेरी किताबें दे दो वरना…’
‘मुझे वरना कहता है.’ मैडम की त्योरियां चढ़ गईं और फिर वही संटी… वो जीवन में पहली बार गिड़गिड़ाया. बहुत समझाया कि ये किताबें उसी की हैं, पर उन किताबें फाड़कर मैडम ने अच्छा नहीं किया. ‘मेरे बटुए से रुपए चुराकए खा गया हरामी.’ वो बड़बड़ाते हुए उसकी किताबें फाड़ती जा रही थीं. उस दिन उन किताबों के पन्नों के साथ कालू के मन की बची खुची कोमल भावनाएं भी हवा में लहराते हुए तितर-बितर हो गईं.
सुबह स्कूल के लिए निकला तो भागता ही गया, भागता ही गया…
स्ट्रीट लाइट पर कुछ बच्चे भीख मांग रहे थे. बने-ठने लोग उन्हें दुत्कार कर जा रहे थे. कालू तीन दिनों से भूखा था. वो गिड़गिड़ाया तो तुरंत दस का नोट पकड़ा दिया एक बड़ी सी कार वाली गोरी सी मेम ने. नुक्कड़ से कचौड़ी ली तो तीन दिन की भूखी आंखों में खाना देखकर ही आंसू आ गए. पर निवाला तोड़ा ही था कि एक तगड़े से दिखने वाले बड़े बच्चे ने झपट्टा मार कर छीन लिया और उसका हाथ पकड़ कर घसीट ले चला.
‘क्यों रे, ख़ुद ख़रीद कर खाने की हिम्मत कैसे पड़ी?’ मुंह में पान चबाती मोटी औरत ने घुड़क कर पूछा. ‘मेरे पैसे थे तो मैं ही तो ख़रीदूंगा.’ भूख से बेहाल कालू के मुंह से जैसे-तैसे निकला. ‘अच्छा, पैसे तेरे है? क्यों? ये जगह क्या तेरे बाप की है?’ ‘नहीं तो क्या तेरे बाप की है?’ कालू ने कोशिश तो चीख़ कर बोलने की की थी पर उसका स्वर रिरिया गया.
मोटी औरत इस उत्तर पर पहले चौंकी फिर थोड़ा मुस्कुराई. एक चक्कर लगाकर घूर-घूर कर उसे देखा फिर उस तगड़े बच्चे से बोली- ‘नया आया है, इसे यहां का चाल-चलन सिखाना पड़ेगा.’ कहकर उसने अपना हाथ कुछ मांगने की मुद्रा में उस तगड़े बच्चे के आगे कर दिया. उसने पास जलते चूल्हे से एक लकड़ी उसे थमा दी.
‘आह!’ और एक बार फिर छड़ी के निशान कालू के पैरों को गोदते रहे और वो चीख़ता रहा. मगर उसकी दर्द भरी चीखें ट्रैफ़िक के शोर के अलावा और किसी ने नहीं सुनी. ‘कल जब भीख मांगकर मुझे लाकर देगा तो मिलेगा खाना. समझा या और समझाऊं कि जगह किसके बाप की है?’ कहकर वो छड़ी पटक कर चली गई.
रात बहुत काली थी. कालू कराह रहा था. एक बार फिर आंतों की कुलबुलाहट और शरीर के ज़ख़्मों से ज़्यादा मन के प्रश्न परेशान कर रहे थे. उसके जीवन और कार से आने-जाने वालों बच्चों के जीवन में इतना फ़र्क़ क्यों है?
कुछ ही दिनों में कालू समझ गया कि भले ही यहां कोई बाहर से बंद दरवाज़ा न हो लेकिन फ़ुटपाथ पर सोने वाले सब बच्चे उस मोटी औरत के क़ैदी ही हैं, जिसे सब ताई कहते हैं. यहां भी उन्हें दिनभर काम करना है, जो भी कमाई हो वो उसे देनी है और जो वो दे दे उसे खाकर फ़ुटपाथ पर सो रहना है. वो अपना दर्द किसी से नहीं कह सकता था, कहीं जा नहीं सकता था. ये उसे लंगड़े खनुआ ने बताया था. इस क़ैद से छूटने का हर उपाय, वो कर के देख चुका था. उसकी टूटी टांग गवाह थी कि भागने की कोशिश में पकड़े जाने वालों का ताई क्या हश्र करती है. यहां से भाग गए तो किसी और ताई की खुली क़ैद ही नसीब होने वाली है. वो किसी और ट्रैफ़िक सिग्नल से भाग कर ही आया था. अक्सर कम कमाई होने पर ताई सबकी तरह उसे भी जलती लकड़ी से दागती रहती. पुलिस के सिपाही के भी नए रूप से कालू की पहचान हुई. वो पिछले इंस्पेक्टर से बिल्कुल अलग था. उसे ताई से मिलने वाले अपने हिस्से के अलावा किसी चीज़ से कोई मतलब नहीं था. कई बार उसने आने-जाने वाले सजे-धजे लोगों को अपना दर्द बताना चाहा पर उनसे दुत्कार या चंद पैसों के अलावा कालू को कभी कुछ न मिला. हां, एक दिन वहां से भी भागने का मौक़ा मिल ही गया.
रेलवे स्टेशन पड़ा तो मन में कुतूहल हुआ कि शायद….
स्टेशन पर कालू को जगह, दोस्त और काम ढूंढ़ने में ज़्यादा दिक़्क़त नहीं हुई. वो पंद्रह बरस का हो चला था. शरीर और मन में होने वाले परिवर्तन उसे कभी ख़ुश करते तो कभी उदास. उसकी जगह के थोड़ी दूर सनुआ और उसकी लुगाई सोते थे. रात में वहां से कभी हंसी-ठिठोली की तो कभी लुगाई के चिल्लाने और सनुआ के गाली-गलौज करते हुए उसे पीटने की आवाज़ें आतीं. उन्हें तो वो अनसुना कर देता पर कभी-कभी अजीब सी आवाजें उसकी उत्सुकता बढ़ातीं. एक दिन सनुआ से लुगाई को पीटने का कारण पूछने पर उसने बताया कि लुगाई उसको मर्दानगी दिखाने से इनकार करती है तो उसे पीटता है. उसकी आंखों में आश्चर्य देखकर वो बोला-‘तू नहीं समझेगा. अभी बच्चा है.’ कालू के लिए इससे बड़ी शर्मिंदगी नहीं थी कि कोई उसे बच्चा कह दे.
एक दिन उसने छुपकर उन्हें देखकर सारे मतलब समझ लिए. उन्हीं दिनों एक सवारी से उसका झगड़ा हो गया. कारण वही गाली-गलौज बरदाश्त न कर पाना. बस, जब वो आदमी ऑटो में बैठने लगा कालू ने एक पत्थर उठाया और उसके सिर पर निशाना साधकर दे मारा. उसे पकड़कर पुलिस स्टेशन ले जाया गया. इंस्पेक्टर ने कुछ डंडे मारकर छोड़ दिया. बाहर निकला तो गरम-गरम चाय समोसे मिल रहे थे. वो गुमटी पर पहुंचा और दोना लेकर खाने लगा. वहीं खड़े एक आदमी ने पूछा- ‘कितनी देर सुताई हुई?’ ‘ज़्यादा नहीं यही कोई दो घंटे’ कालू का लापरवाह सा उत्तर था. ‘मेरे लिए काम करेगा?’ ‘काम क्या करना होगा?’ ‘कभी सिनेमा देखी है?’
‘बहुत’
‘पता है, सिनेमा में लोग जो बोलते हैं, उन्हें लिखकर दिया जाता है. उसे वो ऐसे बोलते हैं, जैसे ख़ुद की बात हो’
‘तो? सिनेमा में काम करना है?’
नहीं, पर उसी तरह तुम्हें जो बता दिया जाए,जहां बता दिया जाए, जाकर ग़ुस्से में वही चिल्लाते हुए बोलना और पत्थर वगैरह मारना है. पैसे ख़ूब मिलेंगे.’ कालू को भला क्या ऐतराज़ हो सकता था.
ये नया धंधा इतना अच्छा था कि कालू ने दो बरस में ही चालीस हज़ार रुपए कमा लिए. बहुत कुछ जान और समझ भी लिया. टीचर दीदी ठीक ही कहती थीं. कालू बहुत बुद्धिमान था. छोटी सी उमर में ही उसने ज़िंदगी से सारे फ़रेब सीख लिए थे. एक बार झगड़े की जगह पर पुलिस आ गई और लॉक-अप से छूटने के बाद उस आदमी ने साफ़ कह दिया कि एक बार पुलिस की पहचान में आने के बाद ये काम नहीं मिलता. ‘फिर मैं क्या करूं?’ ‘मैंने क्या तेरा ठेका ले रखा है? चल प्यार से पूछ रहा है तो एक सलाह दे देता हूं. ऑटो ले ले. और मेरे लिए अपने जैसा कोई छोरा दिखे तो बताना’ कहकर उस आदमी ने उस बार के दो हज़ार रुपए पकड़ा दिए.
आज कालू बहुत ग़ुस्से में था. ऑटो के काग़ज़ न होने के कारण पुलिस वाले ने उसकी पूरे दिन की कमाई ऐंठ ली थी. उसने ये पैसे चिकनी वाली हीरोइन की फ़िलम देखने के लिए जोड़े थे. तभी एक सवारी आई. कालू उसे ऊपर से नीचे तक घूरकर देखकर अपनी आंखें सेंक ही रहा था कि वो बोली- ‘महरौली चलोगे?’
‘चलूंगा, दो सौ लगेंगे.’
‘ठीक है, पर घर तक पहुंचाना होगा. रास्ता पता है न?’
‘बिल्कुल!’ ये पता चलते ही कि सवारी को रास्ता पता नहीं है, कालू के दिमाग़ में शैतानी इरादा कौंध गया. वो सवारी को सुनसान रास्ते पर ले गया और ऑटो रोककर उसे दबोच लिया. लड़की ने बचने की कोशिश शुरू की और कालू के हाथ में पूरी ताक़त से दांत काट लिया. हाथ से ख़ून बह चला और वो तिलमिला उठा. लड़की भागी तो कालू की आंखों में ख़ून उतर आया. वो इस लड़की से कमज़ोर तो नहीं है. मर्द हो गया है अब वो. ऐसे कैसे अपने से कमज़ोर की दी चोट बर्दाश्त कर लेगा? उसने ऑटो में रखी संटी उठा ली और उसके पीछे भागा. जल्द ही उसने लड़की को फिर दबोच लिया. ये वैसे ही बने-ठने लोगों में से एक थी, जो कार या ट्रेन में चढ़ कर कहीं जाते रहे, उसे दुत्कारते रहे या चंद टुकड़े उसके सामने फेंककर ख़ुद को खुदा समझते रहे. आज कालू के हाथ में संटी थी और सजे-धजे लोगों के तबके का कोई उसके सामने डरा-सहमा रोता-गिड़गिड़ाता खड़ा था. उसने लड़की को नीचे गिरा दिया, उसे मसला, कुचला और दिखा दिया कि वो भी किसी से ज़्यादा ताक़तवर है. आज उसने समाज से अपना बदला ले लिया था. आज वो बनी-ठनी लड़की बचाव के लिये संघर्ष कर रही थी, रो रही थी, गिड़गिड़ा रही थी और कालू के हाथ में ताक़त थी. उसने पिता हरिया का, उस अंधेरे कमरे वाले आदमी का, ताई का, सबका बदला ले लिया था. उसका सपना पूरा हो गया था. उसने संटी पटकी, उल्टे हाथ से लार पोछी, जाते-जाते उसे एक लात और जमाई और चला गया.
और फिर अगले दिन दिल दहला देने वाली उस सनसनीखेज़ ख़बर से सारे समाचार-पत्र और चैनल पट गए थे.
‘डॉक्टर साहब!’ सपना की मां ने दोनों हाथ जोड़ दिए, ‘मेरी इकलौती बच्ची है. बहुत सपने देखे हैं उसके लिए. अब तक का सारा जीवन तो पढ़ती ही रही. सपने पूरे करने करने का समय आया तो…’ उसके करुण क्रंदन से हॉस्पिटल में उपस्थित लोगों के साथ डॉक्टर की भी पलकें भीग गईं. ‘हम अपनी कोशिश कर रहे हैं. फ़िलहाल तो इस ऑपरेशन के लिये साइन कर दीजिए. इसके बाद वो कभी मां नहीं बन पाएगी, लेकिन उसकी ज़िंदगी बचाने के लिए ज़रूरी है. उसका…’ मां को आधी बात सुनकर ही चक्कर आ गया पर पिता ने कहा- ‘कोई बात नहीं डॉक्टर, बस बचा लो उसे. वो हमारी ज़िंदगी है. उसके साथ हम भी मर जाएंगे.’ और सिसकते हुए साइन कर दिए. ‘आप दुआ कीजिए, हम दवा करते हैं.’ कहकर पलकें पोछती हुई डॉक्टर चली गई.
रात बहुत काली थी और बहुत से अंधेरे कोने कुछ कह-सुन रहे थे.
कमली की देह ने सुखवा की उंगलियों का मादक आमंत्रण स्वीकार कर लिया और कुछ ही देर में हज़ारों बीज जीवन पाने की होड़ में दौड़ने लगे थे. उस जीवन की होड़ में, जिसे जीवन भर दुत्कार ही मिलने वाली थी.
ढाबे के मालिक से मार खाकर भूखा बैठा दस वर्षीय सुखू अपना क्षोभ मिटाने के लिए कपड़ों की गठरी में लात मारे जा रहा था. और उस गठरी में किसी जीते जागते इनसान की कल्पना कर रहा था.
बहुमत से विजयी हुए क्षेत्र के नए विधायक ने अपने सेक्रेटरी को बुला कर हिदायत दे रहे थे कि किसी अच्छे लेखक से उस लड़की के मरने या सर्वाइव कर जाने की दोनों स्थितियों के लिए अलग-अलग अच्छे भाषण तैयार करवा ले.
प्रसिद्ध चैनल के डायरेक्टर अपने पत्रकारों को हिदायत दे रहे थे कि इस सनसनीखेज़ घटना से जुड़े सारे तथ्य ज़ोरदार प्रश्नों के साथ सबसे पहले हमारे चैनल पर दिखाए जाने चाहिए. पुलिस, प्रशासन, सरकार सबकी बखिया उधेड़ी जानी चाहिए.
नई बनी हाइ-फ़ाइ सोसायटी की स्मार्ट सेक्रेटरी बिशा दूसरे दिन होने वाले कैंडिल मार्च के लिए अपनी वार्डरोब में कोई सादी सी खादी की साड़ी ढूंढ़ रही थी.
और उसी रात दूसरी तरफ…
इस नई घटना से द्रवित होकर कुछ और लोग निशा की स्वयं-सेवी संस्था के साथ जुड़े थे. समाज-सेविका निशा उन नए कार्यकर्ताओं को समझा रही थी कि कल किस क्षेत्र में जाकर क्या करना है. सबसे प्रतिभाशाली कार्यकर्ताओं को उसने भिखारियों को नसबंदी के लिए प्रेरित करने को चुना था.
पब्लिक स्कूल के प्रधानाध्यापक ने तय कर लिया था कि नैतिक शिक्षा के समुचित शिक्षण, पैरेंटल काउंसलिंग के द्वारा या जैसे भी बन पड़ेगा, वो कम से कम अपने स्कूल के लड़कों की मनोवृत्ति दूषित नहीं होने देंगे. और शाम को होने वाले गरीब बच्चों की शिक्षा की निरंतरता को भी अब रुकने न देंगे. वे इसके लिए पूरी रूपरेखा तैयार करने में लग गए थे.
गृहिणी सीमा ने सुबह का अलार्म आधे घंटे पहले का सेट कर लिया था, ताकि काम वाली के बेटे को पढ़ाने के लिए समय निकाल सके. उसने कहा था कि अगर कोई होमवर्क कराने की ज़िम्मेदारी ले तो उसके बेटे को अच्छे स्कूल में दाख़िला मिल सकता है.
इंस्पेक्टर केशव ख़ुद अपनी बेटी की शादी से अनुपस्थित था. उसके लिए इस अपराधी को पकड़ना अधिक ज़रूरी था और ये काम उसने अपनी संवेदनशील टीम के साथ मिलकर चार दिनों में कर लिया. वो अब इसे सख़्त से सख़्त सज़ा दिलवाने के लिए चार्जशीट बनाने में लगा था.
वक़ील संदर्शिका, जिसने हर तबके के ऐसे अपराधियों को बेख़ौफ़ होकर सज़ा दिलवाने की लड़ाई की थी, कालू के ख़िलाफ़ भी अपना केस तयार कर रही थी.
रात बहुत काली थी, लेकिन तीन-चार सितारे अपनी मद्धिम रौशनी के साथ अंधकार से लड़ने की कोशिश में लगे थे.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट