कहावतें चाहे जिस ज़ुबान की हों, वे अक्सर समय और परिस्थिति पर सटीक बैठती हैं. इस कहानी में भी एक कहावत की सटीकता को दर्शाया गया है, जो आज की राजनीतिक परिस्थिति पर खरी उतरती है.
पूरी कहावत थी- अंधा बांटे रेवड़ी फिर-फिर अपने को ही दे.
लोकतंत्र का राजा था. दरअसल, उसने लोकतंत्र को राजशाही में बदल दिया था. राजा अनपढ़ था, लेकिन उसे हर जगह अपना नाम देखना पसंद था. अब उसने कहावत सुनी- अंधा बांटे रेवड़ी… तो उसे गुस्सा आ गया कि आख़िर उसके राज में अंधा कैसे रेवड़ी बांट सकता है? रेवड़ी तो राजा ही बांटेगा.और फ़रमान आ गया कि कहावत में नाम बदला जाए. राजा के हुक्म से कहावत हुई- राजा बांटे रेवड़ी…
समय गुज़रता रहा. राजा अपनों को ही रेवड़ी बांटता रहा. जनता त्रस्त होती रही, राजा और उसके सामंत मस्त होते रहे. फिर सामंतों के चुनाव आ गए. राजा तो यूं भी रेवड़ी अपनों को ही बांटता था और जनता बख़ूबी जानती थी, लेकिन प्रतिरोध नहीं कर पा रही थी. विपक्षी सामंत जनता को जगाने के काम पर लगे हुए थे. जनता जागृत होने लगी थी और डर ये था कि कहीं कोई एक आदमी, सूबा या सामंत इस बात पर विद्रोह न कर दे. क्योंकि राजा जाना-माना डरपोक था और विद्रोह से तो इतना डरता था कि चिड़िया उसके बगल से उड़ जाए तो जनता को बताता था कि ये विपक्ष की चिड़िया है, जो उसे मारने के इरादे से उसके पास से उड़कर गई है. अपने कर्मों के चलते गद्दी छोड़ने से तो राजा बहुत ज़्यादा डरता था इसलिए सामंती चुनाव में जीतने के लिए जनता के सामने कोई नया खेल प्रस्तुत करना ज़रूरी था कि राजा बदल गया है.
राजा ने मंत्री को समस्या बताई. मंत्री छंटा हुआ बदमाश सामंत था! मंत्री ने एक तरक़ीब सोची. उसने राजा से कहा कि राज-पाट आपका जनता आपकी और सामंत भी आपके. और तो और चुनाव करवाने वाले आपके, वोट गिनने वाले आपके… लेकिन अबकि चुनावों में आप दो-चार रेवड़ी ख़ुद रखिए और एकाध रेवड़ी विपक्षी सामंत को दे दीजिए, क्योंकि अब तो सबको कहावत पता ही है कि राजा बांटे रेवड़ी… सभी अपने पास रख लेंगे तो आप पर उंगलियां उठ सकती हैं, सवाल उठ सकते हैं, जनता विद्रोह कर सकती है.
पर राजा कौरवों से प्रेरित था. हड़पे हुए हिस्से का सूई की नोक जितना भाग भी किसी को देना उसे गंवारा न था. बहुत सोच-सोचकर उसने मंत्री की बात मान तो ली, लेकिन इससे पहले जो सूबे उसे विपक्ष के सामंतों को देने का मन बनाया वहां राजपालों की नियुक्ति कर दी और सारे अधिकार उनके हाथ में सौंप दिए. फिर वह राजा, जो अनपढ़ था, लेकिन सत्ता में बने रहने को लेकर किसी भी हद तक क्रूर हो सकता था, चार-पांच रेवड़ियां ख़ुद के लिए रखता और एकाध रेवड़ी उन सूबों के लिए विपक्षी सामंतों को दे देता, जहां उसके अपने राजपाल बैठे होते.
जनता तो यूं भी मूर्ख बनती रही है, इसी में अपना आनंद खोजती रही है, इसी को अपना भाग्य मानती है. अब जबकि राजा ने रेवड़ी वाली कहावत में थोड़ा फेर-बदल किया है तो जनता इसी में लहालोट रहेगी. जब तक सच सामने आएगा, तब तक राजा और उसका छंटा हुआ मंत्री कोई नया खेल शुरू कर देंगे. जो लोग राजा के खेल के बारे में चेताएंगे, वो राजद्रोही घोषित कर दिए जाएंगे. वो जनता, जिसका खून चूसकर राजा अपने मित्रों को बांट देगा और उसकी जगह धर्म के चोले से निकाला हुआ नकली ख़ून उनके जिस्म में भर देगा, वो जनता राजा का जयकारा करती रहेगी.